बिहार सरकार के नशाबंदी कानून को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दे दिया। उसे असंवैधानिक बताया गया, इसके पहले ही अनेक बिहारी और बाहरी नेताओं ने इस कानून की आलोचना शुरु कर दी थी। वे उसकी मजाक भी उड़ाते रहते थे। लेकिन शराबबंदी की घोषणा ने नीतीश के वोट बैंक को भारी-भरकम बनाया था। माना जाता है कि शराब से त्रस्त बिहार की महिला मतदाताओं ने नीतीश को थोक में वोट दिए थे। नीतीश की सफलता ने तमिलनाडु और केरल के चुनावों पर असर डाला था। मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही नीतीश ने अध्यादेश जारी करवाकर बिहार में शराबबंदी लागू करवा दी। जो कहा, वह कर दिया। शराबबंदी के मामले में नीतिश ने जैसा उत्साह दिखाया है, आज तक किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ने नहीं दिखाया। गांधीजी के चंपारण-सत्याग्रह की 100 वीं वर्षगांठ पर जब मैं बिहार गया तो नीतीश के साथ लंबी भेंट हुई। उनका निश्चय समझ आया। उन्होने विदेशी शराब की बिक्री पर भी रोक लगा दी। मुझे खुशी है कि नीतीश इस मार्ग पर चले। उन्होंने कई प्रांतों का दौरा किया और शराबबंदी का प्रचार किया।
लेकिन सिर्फ कठोर कानून बना देने से शराबबंदी नहीं हो सकती। ऐसे कानून बनाने वाले सज्जनों के मुकाबले इन कानूनों को तोड़ने वाले दुर्जनों का दिमाग कहीं ज्यादा तेज होता है। कानून को गच्चा देने के कई तरीके शराबियों ने बिहार में भी खोज लिये हैं। उच्च न्यायालय ने बिहार सरकार के कानून को रद्द कर दिया, इसके पीछे ठोस कारण हैं। यह कानून सामंती है। यदि किसी के घर या दफ्तर में शराब की बोतल पाई जाए तो उस घर और दफ्तर के सभी सदस्यों को 10 साल की सजा हो जाए, इसे कौन ठीक मान सकता है?
इससे तो वे महिलाएं भी जेल चली जाएंगी, जो शराबबंदी की समर्थक हैं और जिन्होंने नीतीश को वोट दिए हैं। यदि शराब का सुराग देने वालों को पुरस्कार का कानून बने तो यह कहीं बेहतर होगा। शराबबंदी के मामले में नीतीश के उत्साह की जितनी तारीफ की जाए कम है लेकिन हम उनसे यह आशा भी करते हैं कि वे कानून ऐसा बनाएं, जो व्यावहारिक हो।