आज की तारीख में भारत के राजनैतिक माहौल में अगर कोई शख्स, हर वक्त और सबसे ज्यादा चर्चा में रहता है तो वे हैं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। भारत के इतिहास में संभवतः ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद केंद्र की सत्ता से लेकर, गली-मोहल्ले के सामान्य व्यक्ति भी नरेंद्र मोदी पर अपनी नजरें गड़ाए रखते हों। जो व्यक्ति टीवी पर भाषण देने आता है तो चैनलों की टीआरपी अचानक आसमान छूने लगती है, जिस प्रकार रामायण के प्रसारण के समय लोग टीवी पर नज़रें गड़ाए बैठे रहते थे, वैसे ही आज जब भी नरेंद्र मोदी किसी मंच से भाषण देते हैं तो उनके विरोधी भी मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते हैं… कि नरेंद्र मोदी क्या बोलने वाले हैं…? मोदी किस नीति पर बल देंगे? या फिर नरेंद्र मोदी के मुँह से कोई विवादास्पद बात निकले, तो वे उसे लपक लें, ताकि भाषण के बाद होने वाली टीवी बहस में उसकी चीर-फाड़ की जा सके…. क्या किसी और पार्टी में ऐसा प्रभावशाली वक्ता और दबंग व्यक्तित्व है? जवाब है… नहीं!
बात साफ़ है, नरेंद्र मोदी इस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. हाल के तमाम सर्वे से यह बात जाहिर होती है। यहां तक कि कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या सोनिया गांधी अथवा राहुल गाँधी. भाजपा की तरफ से कोई भी नेता लोकप्रियता में उनके आसपास नहीं टिकता. यहाँ तक कि गोवा और छत्तीसगढ़ के सफल और लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्रियों को भी कुछ जागरूक नागरिक तस्वीरों से भले ही पहचान लें, परन्तु उनके नाम याद करने में दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, परन्तु नरेंद्र मोदी की बात ही और है… आज प्रत्येक नौजवान की ज़बान पर मोदी का नाम है, “नमो-नमो” का जादू चल रहा है. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी लोगों की पहली पसंद हैं. अधिकाँश सर्वे में भी यही बात सामने आई है. नीलसन सर्वे के साथ किए गए एक न्यूज चैनल के सर्वे के मुताबिक मोदी को 48 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहली पसंद बताया, जबकि महज सात फीसदी लोगों की पसंद मनमोहन सिंह हैं। सर्वे में कोई दूसरा नेता मोदी के आसपास नहीं दिखता। वहीं एक न्यूज साइट पर कराए गए ओपन सर्वे में 90 फीसदी लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पहली पसंद बताया।
वास्तव में बात यह है कि नरेंद्र मोदी आम लोगों से जुड़े नेता हैं। ये बात भाजपा के कई दूसरे नेताओं के लिए भी कही जा सकती है, लेकिन सवाल प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का है। दावेदारों के नाम गिनाना आरम्भ करें तो, उनमें से कई तो पार्टी को मिलने वाली सीटों के आधार पर ही छंट जाएंगे (जैसे कि नीतीश कुमार)… या फिर वह राजनैतिक हस्ती आम इंसान की तरह जिंदगी गुजारते हुए इतने ऊंचे ओहदे तक नहीं पहुंचे होंगे (अर्थात राहुल गांधी, जिन्हें “विरासत” में कुर्सी और समर्थकों की भीड़ मिली है), या फिर वो आम लोगों से जुड़े नेता नहीं होंगे (अर्थात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनका न तो आम आदमी से कोई लेना-देना है, और ना ही चुनावी राजनीति से. बल्कि यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, कि पहली बार दस साल तक देश का प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति रहा, जो लोकसभा में चुना ही नहीं गया… )।
चुनाव के परिणाम नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और पुख्ता करते हैं। लगातार तीन बार उन्होंने गुजरात का चुनाव भारी बहुमत से जीता है। विपक्ष द्वारा पूरी ताकत लगाने, मीडिया के नकारात्मक रवैये और विभिन्न विदेश पोषित संगठनों के दुष्प्रचार के बावजूद मोदी का कद बढ़ा ही है. यही नरेंद्र मोदी की मजबूती है. मोदी ने स्वयं को युवाओं से जोड़ने में भी कामयाबी हासिल की है। कई सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस समय देश का एक बड़ा तबका युवाओं का है, जिनके लिए बेरोजगारी, विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार एक बडा मुद्दा है। मोदी इन मुद्दों को एक विजन के साथ पेश करते हैं। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में मोदी के भाषण में इसकी झलक दिखाई पड़ी, जहाँ युवा वर्ग ने मोदी को हाथोंहाथ लिया था.
एक समय था, जब राहुल गाँधी राजनीति में नए-नए आये थे, उस समय महिलाओं और कमसिन लड़कियों को राहुल गाँधी के चेहरे की मासूमियत और गालों के डिम्पल बड़े भाते थे, परन्तु जैसे-जैसे राहुल गाँधी की वास्तविकताएं महिलाओं से सामने आने लगीं, जिस प्रकार एक के बाद एक उप्र-बिहार में राहुल ने काँग्रेस का बेड़ा गर्क किया और विशेषकर दिल्ली रेप हो या रामलीला मैदान हो, केजरीवाल का आंदोलन हो या तेलंगाना का मुद्दा, राहुल गाँधी ने कभी जनता के सामने आकर अपनी ‘बुद्धिमत्ता’ का परिचय नहीं दिया. देश की जनता जानती ही नहीं कि देश की ज्वलंत समस्याओं पर राहुल का क्या रुख है? जबकि नरेंद्र मोदी हर वक्त आम जनता से जुड़े रहते हैं। चाहे वो सोशल नेटवर्किंग साइट ही क्यों न हो, इंटरव्यू के लिए बड़ी आसानी से उपलब्ध रहते हैं। गुजरात जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी, हर जगह के लिए न सिर्फ उपलब्ध होते हैं, बल्कि उनकी इस व्यस्तता के बावजूद सरकारी कामकाज में भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तो नरेंद्र मोदी युवाओं के साथ-साथ, महिलाओं में भी उतने ही लोकप्रिय हैं. ओपेन/सी वोटर के सर्वे से साफ है कि राहुल की तुलना में मोदी न सिर्फ पुरुष वोटरों की पसंद हैं बल्कि धीरे-धीरे ज्यादातर महिलाओं ने भी मोदी पर ही भरोसा जताया है। हाल ही में महिला उद्यमियों के मंच फिक्की में दिए गए अपने भाषण से नरेंद्र मोदी ने महिलाओं पर जादू तो कर ही दिया, अपने साथ-साथ “जसूबेन का पिज्जा” को भी लोकप्रिय बना दिया. एक महिला ने तो खुलेआम टीवी बहस में यह भी कह डाला कि राहुल गाँधी “बचकाने” किस्म के लगते हैं, जबकि नरेंद्र मोदी जब बोलते हैं तो “पिता-तुल्य” प्रतीत होते हैं. हर उम्र के लोगों में नरेंद्र मोदी ज्यादा लोकप्रिय है। सर्वे में युवाओं के साथ-साथ अधेड़ों और वृद्धजनों पर भी सर्वे किया गया था। मोदी लगभग सारे आयु समूहों में कमोबेश लोकप्रिय हैं।
स्थिति यह है कि अब निश्चित हो चुका है कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस खुलकर राहुल गांधी पर दांव खेलने का फैसला कर चुकी है, वहीं बीजेपी की तरफ से फिलहाल मोदी की दावेदारी मजबूत है। यदि इन दोनों की ही तुलना कर ली जाए तो राहुल की तुलना में मोदी ज्यादा लोगों की पसंद हैं। एक न्यूज चैनल के साथ कराए गए नीलसन सर्वे के मुताबिक देश की 48 फीसदी जनता ने अगर मोदी को पहली पसंद बताया तो महज 18 फीसदी जनता राहुल के साथ नजर आई। वहीं इंडिया टुडे पत्रिका ने भी 12,823 लोगों से बातचीत के आधार पर एक सर्वे किया। इसमें भी प्रधानमंत्री पद के लिए 36 फीसदी लोगों की पसंद मोदी थे, जबकि महज 22 फीसदी लोगों ने राहुल को अपनी पहली पसंद बताया। बाकी कई चैनलों के सर्वे का भी यही हाल है।
सबसे बड़ी बात यह है कि नरेंद्र मोदी में “कठोर निर्णय क्षमता” है, वे बिना किसी दबाव के फैसले ले सकते हैं, उनमें एक विशिष्ट किस्म की “दबंगई” है। गुजरात में उन्होंने कई-कई बार संघ-विहिप के नेताओं की बातों को दरकिनार करते हुए, अपने मनचाहे निर्णय लागू किए हैं. क्या प्रधानमंत्री के दावेदारों में किसी दूसरे नेता के लिए हम यह बात कह सकते हैं? मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का आलम ये है कि जेडीयू सांसद जय नारायण निषाद ने, न सिर्फ मोदी को खुला समर्थन दे दिया, बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपने घर में दो दिनों का यज्ञ करवाया। इससे मोदी की लोकप्रियता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। नरेंद्र मोदी को संघ का भी पूरा समर्थन हासिल है। ये सब कुछ जानते हुए भी कि मोदी की कार्यशैली संघ की कार्यशैली से बिल्कुल अलग है। खुद मोदी के नेतृत्व में गुजरात में संघ उतना प्रभावशाली नहीं रहा तथा नरेंद्र मोदी ने गुजरात में विहिप और बजरंग दल को भी “आपे से बाहर” नहीं जाने दिया है।
क्षेत्रवाद से परे मोदी ने जिस तरह से गुजरात के लोगों की सोच बदली, ऐसे मौके पर मोदी देश की एक बड़ी जरूरत बन चुके हैं। खासतौर पर राष्ट्रीय एकता बहाल करने के लिए मोदी को हर हाल में देश की केंद्रीय सत्ता सौंपनी चाहिए, ताकि हमें नासूर बन चुकी नक्सलवाद और कश्मीर सहित आतंकवाद की समस्याओं से निजात मिले. मोदी एक मजबूत सियासी नेता हैं, संघ की राजनैतिक जमीन पर तप कर आगे बढ़े हैं और उन्हें मुद्दों की बारीक समझ है। जाहिर है स्थायित्व और विकास के लिए इस देश को ऐसे ही तपस्वी राजनीतिज्ञ की जरूरत है। इस समय देश के सामने सबसे बड़ी विडंबना ये है कि मुश्किल की घड़ी में सर्वोच्च पद पर बैठे नेता सामने नहीं आते, खुलकर अपने बयान नहीं देते, बल्कि खुद को एसी कमरों में कैद कर लेते हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता के शिखर पर बैठने से ये मुश्किल भी दूर हो जाएगी।
नरेंद्र मोदी को चाहने की दूसरी बड़ी वजह है कि – मोदी पर आज तक व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कभी कोई आरोप नहीं लगा. हालांकि उनके विरोधी उनके द्वारा रिलायंस, अदानी और एस्सार समूहों को दी जाने वाली रियायतों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में खुद केंद्र सरकार ने न जाने कितनी विदेशी कंपनियों को तमाम तरह की कर रियायतें और मुफ्त जमीनों से उपकृत किया है. महज एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद मोदी ने गुजरात मॉडल को पूरी दुनिया के सामने पेश किया, सूरत जैसे शहरों का रखरखाव हो या अहमदाबाद की BRTS सड़क योजना हो, नहरों के ऊपर बनाए जाने वाले सोलर पैनलों से बिजली निर्माण हो, सरदार सरोवर से कच्छ तक पानी पहुँचाना हो… हर तरफ उनके काम की वाहवाही हो रही है। मोदी की धीरे-धीरे विदेशों में भी स्वीकार्यता बढ़ी है। यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और अमेरिका के राजदूत ने इस बात को माना है।
नरेंद्र मोदी के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि जब अमेरिका में वार्टन इकोनॉमिक फोरम ने चंद “चंदाखोर” लोगों के विरोध के बाद उनके भाषण को रद्द कर दिया, तो इस कार्यक्रम को प्रायोजित करने वाली सभी कंपनियों ने हाथ पीछे खींच लिए। सबसे पहले मुख्य स्पॉन्सर अडानी ग्रुप ने किनारा किया। इसके बाद सिल्वर स्पॉन्सर कलर्स और फिर ब्रॉन्च स्पॉन्सर हेक्सावेअर ने हाथ खींच लिए। यही नहीं इस ग्रुप से जुड़े लोगों ने भी शामिल होने से इनकार कर दिया। शिवसेना नेता सुरेश प्रभु ने भी इस फोरम में जाने से इनकार कर दिया। पेन्सिलवेनिया मेडिकल स्कूल की एसोसिएट प्रोफेसर डा. असीम शुक्ला ने भी इसके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। वहीं अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट से संबद्ध और वाल स्ट्रीट जर्नल के स्तंभकार सदानंद धूमे ने ट्वीट कर वार्टन इंडिया इकोनॅामिक फोरम से दूर रहने का एलान किया। न्यूजर्सी में रहने वाले प्रख्यात चिकित्सक और पद्मश्री से सम्मानित सुधीर पारिख ने विरोध दर्ज करते हुए इस सम्मेलन से अपना नाम वापस ले लिया। सन्देश स्पष्ट है कि अब भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी नरेंद्र मोदी का अपमान सहन नहीं किया जाएगा, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, अर्थात मोदी की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है.
नरेन्द्र मोदी को चाहने की तीसरी बड़ी वजह यह है कि वे अपने भाषणों और इंटरव्यू में एक सुलझे हुए नेता नज़र आते हैं, वे दूरदर्शी प्रतीत होते हैं। किसी भी मुद्दे को लेकर उहापोह की स्थिति में नहीं रहते, उनमें तकनीक की समझ है और किसी भी नए प्रयोग को करने और उसे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ वे युवाओं से इस मामले में निरंतर सलाह भी लेते रहते हैं. उत्तर भारत में उनकी लोकप्रियता बढ़ने का एक प्रमुख आयाम है, उनके द्वारा “हिन्दी” में दिए जाने वाले भाषण. “कूल ड्यूड” के कॉलेज माने जाने वाले श्रीराम कॉलेज हो या अंग्रेजी में सोचने वाले धनी महिलाओं का फिक्की फोरम हो, दोनों स्थानों पर नरेन्द्र मोदी ने आम बोलचाल वाली हिन्दी में भाषण देकर देश के सामान्य आदमी का दिल जीत लिया. वाजपेयी जी के बाद से बहुत दिनों तक देश ने किसी “असली नेता” के मुँह से हिन्दी में ऐसे भाषण सुने गए हैं.
जिस गुजरात में १९९८ से पहले हर साल बड़े-बड़े दंगे हुआ करते थे, उसी गुजरात में 2002 के गुजरात दंगों को छोड़ दें तो इसके बाद कोई दंगा नहीं हुआ. दंगों को लेकर भले ही नरेंद्र मोदी के दामन पर दाग लगाने की कोशिश की जाती रही हो, लेकिन हकीकत ये है कि अब तक किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार देना तो दूर तमाम सीबीआई और एसआईटी की जाँच के बावजूद उन पर एक एफआईआर तक नहीं है. इसलिए एक खास परिस्थिति (गोधरा ट्रेन कांड) के बाद दंगों को न रोक पाने की वजह से मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर सवाल उठाना सही नहीं है. यदि यही पैमाना रखा जाए तो राजीव गाँधी को कभी प्रधानमंत्री बनना ही नहीं चाहिए था. हालांकि दंगों की वजह से गुजरात की न सिर्फ देश में बदनामी हुई बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया में चंद स्वार्थी गैर सरकारी संगठन और देशद्रोही बुद्धिजीवियों ने भारत की जमकर बदनामी की, लेकिन पहले भूकंप और उसके बाद दंगे के बावजूद, जिस तरह से पिछले चंद सालों में नरेंद्र मोदी ने अपनी मेहनत की वजह से गुजरात की पहचान बदली, इसे मोदी की बड़ी सफलता माना जाएगा। देश को ऐसे ही “कुशल प्रशासक” की जरूरत है.
नरेंद्र मोदी को भले ही हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा हो, लेकिन मोदी के राज में कई मंदिरों को गैर कानूनी निर्माण की वजह से ढहा दिया गया। सिर्फ एक महीने के भीतर 80 ऐसे मंदिरों को गिरा दिया गया, जिसका निर्माण गैर कानूनी तौर पर सरकारी जमीन पर हुआ था। साफ है कि मोदी के मिशन का पहला नारा विकास है. जाति-धर्म सब बातें बाद में. 2001 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की आबादी का 9 फीसदी हिस्सा मुस्लिमों का है, यानी गुजरात में 45 लाख मुस्लिम हैं। लेकिन इनकी साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा 73 फीसदी थी। जामनगर के एक आर्किटेक्ट अली असगर ने एक लेख में लिखा कि \”अगर लोग बेरोजगार होंगे, तो हिंसा होगी। अब चूंकि हर किसी काम मिल रहा है… तो दंगे क्यों होंगे।\”. समय गुजरने के साथ मुस्लिमों का भरोसा भी नरेंद्र मोदी पर बढ़ा है। गुजरात में कई मुस्लिम बहुल सीटों पर हिन्दू उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर जीते हैं. मोदी को अल्पसंख्यक लोगों का समर्थन धीरे-धीरे हासिल हो रहा है. स्थानीय चुनावों में जामनगर इलाके में मोदी ने 27 सीटों के लिए 24 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया, इसमें 9 महिलाएं थीं। आश्चर्य की बात ये है सभी 24 मुस्लिम उम्मीदवारों ने यहां बीजेपी के कोटे से जीत हासिल की। स्वाभाविक है कि अब सिर्फ हिंदुत्व की चाशनी से काम नहीं चलेगा, पार्टी ने इसके साथ-साथ विकास का कॉकटेल भी शुरू किया है और इन दोनों हुनर को साधने में मोदी से बड़ा दूसरा नेता नहीं।