हर व्यक्ति शांति, सुख और प्रसन्नता चाहता है और जिन्दगीभर उसी की खोज में लगा रहता है। ऐसी ही चाहत को लेकर एक व्यक्ति एक संत के पास गया और बोला मैंने अनेक स्थानों पर इनको ढूंढा, पर तीनों वस्तुएं कहीं नहीं मिली। आपको अत्यंत शांत, सुखी और प्रसन्न देखकर ही आपके पास आया हूं। संभव है, आप के पास ही वे वस्तुएं उपलब्ध हो जाएं। संत मुस्कराए और एक पुड़िया दी। आगंतुक पुड़िया लेकर चला गया और अपने घर पहुंच कर उसे खोलकर देखा, उसमें लिखा था- अंतःकरण में विवेक और संतोष का भाव रखने से ही स्थायी सुख, शांति और प्रसन्नता मिलती है।
सुख, शांति और प्रसन्नता के लिये दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार करना जरूरी है। जो दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, उन्हें सहज ही शांति मिलती है और सुख का अहसास होता है। सफल जीवन के लिए यह गुण होना अनिवार्य है। चाहे बहिर्मुखी हों या अंतर्मुखी, दोनों ही यह हुनर सीख सकते हैं। जो लोग अंतर्मुखी हैं, वे समय के साथ अपना आत्मविश्वास फिर से हासिल कर सकते हैं, वहीं बहिर्मुखी ज्यादा से ज्यादा लोगों का साथ पाकर यह मजबूती हासिल कर सकते हैं। समाज और मनुष्य के विकास के लिए दोनों तरह के लोगों की जरूरत है। हालांकि बहुत से लोग अंतर्मुखी को कमजोर समझ लेते हैं, वहीं बहिर्मुखी को मजबूत शख्सियत वाला। जबकि सच्चाई यह है कि अंतर्मुखी बोलने से पहले उस पर विचार करते हैं, वहीं बहिर्मुखी अकसर कुछ बोल देने के बाद उस पर विचार करते हैं। अगर आप खुद को अंतर्मुखी कहते हैं तो इसका अर्थ यह है कि सोच-समझकर बोलते हैं, अकेले में कुछ क्षण बिताकर खुद को तरोताजा करते हैं। ज्यादा शोर-शराबे वाली गतिविधियों के बजाय शांतिपूर्ण तरीके से होने वाली सामूहिक गतिविधियों या व्यक्तिगत तौर पर किसी से मिलने में आपको ज्यादा मजा आता है, जिसमें संबंधों की प्रगाढ़ता भी होती है।
सफल और सार्थक जीवन के लिये अंतर्मुखी और बहिर्मुखी मनोवृत्ति के बीच संतुलन जरूरी है। दोनों की ही जीवन में उपयोगिता है और इन्हीं से जीवन परिपूर्ण और महान् बनता है। सूसन केन ने कहा है, ‘अंतर्मुखी होने में कोई बुराई नहीं है। अंतर्मुखी और बहिर्मुखी में फर्क बस इतना है कि इनकी ऊर्जा का स्रोत अलग होता है। आपका संवाद प्रभावी रहे, इसके लिए जरूरी है कि लोगों से बातचीत करते हुए हमेशा अपने विचारों और शब्दों को सही तरीके से रखें। डेनिस सिनोम मानती हैं कि खुद के प्रति जागरूक होना ही जिंदगी को अनोखे ढंग से जीना है। सिर्फ इतना कह कर कि अब मेरे दिल में किसी के प्रति कुछ भी दुर्भाव नहीं है, आप दूसरों को अपना बना लेते हैं। और ऐसा करके आप उन्हें भी मुक्त करते हैं और खुद को भी। यह एक तरह का व्यायाम है, जैसे हम अपने शरीर को ठीक रखने के लिए व्यायाम करते हैं या सैर पर जाते हैं, उसी तरह से दूसरों के प्रति अपनापन का भी नियमित अभ्यास करना होता है।
जीनियस लोग खुद को ही सब कुछ मान कर अपने में ही मुग्ध नहीं रहते हैं। जितना संभव हो दूसरों की खूबियों पर नजर दौड़ाएं। अलग-अलग क्षेत्र के उन लोगों को पढ़ें, जो प्रतिभाशाली है। पहली नजर में ऐसा कुछ नजर न आए तो भी कुछ और समय लगाएं। यकीनन आप पायेंगे कि उनमें ऐसा कुछ जरूर है, जिसने उन्हें जीनियस बनाया। दूसरों की प्रतिभा के बारे में लोगों से बात करें। दूसरों के प्रति प्रशंसापूर्ण व विश्वसनीय बनने की भरपूर कोशिश करें। यकीन मानंे, दूसरों के प्रति किया गया यह व्यवहार लौटकर आपके पास से आएगा।
जो स्नेह, अपनापन एवं सौहार्द रखने वाले असल में बड़े होते हैं, जीवन को सफल बना रहे होते हैं।। ऐसे गुणों के कारण ही वे महान कहे जाते हैं। अशांति फैलाने वाले, तेरा-मेरा करने वाले एवं स्वार्थी तो छोटे हैं और छोटे ही रहेंगे। ईष्र्या और द्वेष रखने से हम अपने आप पर बोझ बनाए रखते हैं तथा अप्रसन्नता और दुख को बुलावा देते हैं। जान सलडेस ने जीवन का सत्य उजागर करते हुए कहा है कि निराशावादी हरदम बुराई ही देखता है। आशावादी की नजर अच्छी चीजों पर रहती है। निराशावादी तो अपनी फिक्र में ही कमजोर पड़ जाता है। आशावादी अपनी खुशी में परेशानी दूर कर लेता है।
अक्सर हम अपने अहंकार के कारण दुःख और अशांति को आमंत्रित करते है। ‘हम’ शब्द हमें आपस में जोड़ता है जबकि ‘मैं’ दूरियां पैदा करता है। इसलिए ‘मैं’ की जगह ज्यादा से ज्यादा ‘हम’ शब्द का इस्तेमाल करें। आदर्श स्थिति यह है कि दोनों पक्षों की जीत हो। इसका तात्पर्य है कि दोनों पक्षों के लिए कुछ अर्थपूर्ण चीजें सामने आएं। छोटी-छोटी चीजें, जैसे कि ध्यानपूर्वक सुनने, सराहना करने और आभार जताने से ‘हम’ की भावना पुष्ट होती है। डायन सॉयर, जूलिया रॉबर्ट्स, अब्राहम लिंकन, एमा वॉटसन, क्रिस्टीना ऑगिलेरा और बिल गेट्स जैसी शख्सियतें ‘हम’ होने की भावना को लेकर जीये और इसी से वे सफल भी बने और लोकप्रिय भी हैं।
हमारी दुनिया में हर कोई मेरे लिए टीचर जैसा है, इसी सोच से हम करिश्माई शख्सियत बन सकते हैं। महान् बनने और जीवन को सार्थक बनाने के लिये जरूरी है कि हम दूसरों को महत्व दे। अपनी सोच में खुलापन लाएं। लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा कि आप अपने लिए दूसरों से अपेक्षा करते हैं। जब आप लोगों की सराहना करते हैं, तो वे भी आपको पसंद करने लगते हैं। अगर लोग आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे और उनकी सोच भी नकारात्मक है, लेकिन आपका रवैया सकारात्मक रहता है, तो बहुत मुमकिन है कि धीरे-धीरे उनका व्यवहार आपके लिए सौम्य हो जाए। अगर आप चाहते हैं कि दूसरे आपका हौसला बढ़ाएं तो आप उनका हौसला बढ़ाने से शुरुआत करें। इस तरह की सकारात्मकता से आप दूसरों के करीब जा सकते हैं। लेकिन ऐसा संभव होता नहीं है, क्योंकि हम हर अच्छाई की उम्मीद दूसरों से करते हैं। सभी यही चाहते हैं कि कोई भगतसिंह पडौसी के घर ही पैदा हो। तभी तो स्वेट मार्डेन ने कहा है कि निराशावादी वह है जो हर किसी को अपनी ही तरह से मलिन समझता है और इसीलिए उनसे घृणा करता है।
अपने लिए आप खुद जिम्मेदार हैं। सफल हैं या असफल, खुश हैं या नाखुश। जो करना है, आपको ही करना है। अपने हालात के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं होता। हर कोई अपने सुख-दुख, अपने ढंग से जी रहा है। ओशो के अनुसार, ‘यहां कोई भी आपका सपना पूरा करने के लिए नहीं है। हर कोई अपनी तकदीर बनाने में लगा है।
हमारे जीवन की विडम्बना है कि हम अक्सर खुद को ऐसे लोगों से घेरे रखते हैं, जो हमें बुरा एहसास कराते हैं। अपने डर और बेचैनी उन्हें बताते हैं, जिन्हें उनसे मतलब नहीं होता। उन्हीं के पास जाते हैं, जो वैसा ही सोचते हैं, जैसा कि हम। यही वजह है कि जिंदगी में बुरे रिश्तों का चक्र टूटने का नाम नहीं लेता। ‘ बी हैप्पी’ के लेखक रॉबर्ट होल्डेन कहते हैं, ‘हमारा खुद के साथ जो रिश्ता है, वही जीवन में दूसरों के साथ हमारे रिश्ते की नींव रखता है।’
यह सच है कि हर दिन के साथ जीवन का एक नया लिफाफा खुलता है, नए अस्तित्व के साथ, नए अर्थ शुरूआत के साथ। हर आंख देखती है इस संसार को अपनी ताजगी भरी नजरों से। हमारी नजरों की यह ताजगी तभी कुछ नया करने में और कुछ विलक्षण करने में सक्षम होती है जब हम अपने नजरिये को व्यापक बनाते है ‘विजनरी’ बनाते हैं।