नक्सलबाड़ी के वसंत (कानू सान्याल) की खुदकुशी

1970 में जब कानू सन्याल को गिरफ्तार किया गया तो वह फौजी पोशाक पहने हुये थे। और चालीस साल बाद नक्सलबाडी के हाथीघिसा गांव के झोपडीनुमा घर में जब उनका शव मिला तो शरीर पर सिर्फ लुंगी और गंजी थी। चालीस साल के इस दौर में कानू सन्याल वामपंथी धारा में मजदूर-किसान के हक को सपनों से तोड़ कर जमीनी सच बनाने की जद्दोजहद ही करते रहे। नये संगठन, नयी पार्टी ,चुनावी दांव सब कुछ इसी दौर में कानू सन्याल ने किया। और इस दौर में जो नहीं किया वह 1970 से पहले का सच है। एक ऐसा सच जिसने सत्तर के दशक को मुक्ति-दशक बनाने का सपना खेत खलिहानों से लेकर कोलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज के अहाते तक में पैदा कर दिया।

 

1964 में सीपीआई से टूट कर निकली सीपीएम को बनाने वालों में कानू सन्याल भी थे। और 1967 में वाम मोर्चा की सरकार जब पहली बार सत्ता में आयी तो सीपीएम के संशोधनवादी रुख के खिलाफ हथियारबंद क्रांति का सपना जगाने वाले भी कानू सन्याल ही थे। संयुक्त मोर्चा सरकार बनने के ठीक 18 वें दिन 18 मार्च1967 को कानू सन्याल और जंगल संथाल की अगुवायी में सिलीगुडी परगना में किसान सम्मेलन हुआ। जमीन पर कब्जा करने और जमींदारों के विरोध का मुकाबला हथियारों से करने का ऐलान करते हुये कानू सन्याल ने किसानों को चेतावनी दी थी कि उनकी कार्रवाई का विरोध राज्य से लेकर केन्द्र सरकार तक करेगी। इसलिये लडाई लंबी है, जिसके लिये वह तैयार रहें।

 

दीर्घकालीन हथियाबंद संघर्ष के ऐलान के साथ ही हथबंदी को चकमा देने वाले झूठे रिकॉर्ड को जलाने और कर्ज के प्रोनोट नष्ट करने से शुरु हुए इस संघर्ष की चिंगारी तब भडकी, जब जमींदार ईश्वर टिर्की ने दीवानी से जमीन मिलने के बावजूद किसान बिगुल की पिटाई कर दी। कानू सन्याल ने विरोध में किसानों को एकजुट किया। 23 मई 1967 को नक्सलबाडी थाने के इस गांव में जमींदार की मदद के लिये पुलिस पहुंची तो तीर धनुष से लैस किसानों ने हमला कर दिया। दरोगा सोनम वांग्दी मारा गया। किसानों को सबक सिखाने के लिये 25 मई1967 को जब पुलिस नक्सलबाडी इलाके में पहुंची तो हजारों हजार किसानों को देखते ही उसके होश फाख्ता हुये। लेकिन सबक सिखाना था तो गोलियां दागी गयीं। सात महिला और दो बच्चो समेत 10 लोगो की मौत ने नक्सलबाडी आंदोलन का बिगुल बजा दिया।

 

अगुवाई करते कानू सन्याल और जंगल संथाल के पीछे किसानों ने जब गीत गाना शुरु किया, ” ओ नक्सल, नक्सल, नक्सलबाडी की मां / तेरे सीने में खून झरे ला, ओ खून से जनम लेई / जंगल संथाल बंगाल के घर-घर मां ” तो इसकी गूंज कोलकत्ता के राइटर्स बिल्डिंग में सुनायी दी। नक्सलबाडी से निकली इस चिंगारी ने ही पहली बार सीपीएम के भीतर भी दो धाराओं को पैदा कर दिया। बंगाल ही नहीं बिहार,उड़ीसा, उत्तर प्रदेश,तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल से लेकर कश्मीर तक में संसदीय वाम धारा के भीतर क्रांतिकारी समन्वय समिति बनने लगीं। घबरायी सीपीएम मे 20 जून को पोलित ब्यूरो की बैठक में नक्सलबाडी को मुठ्टीभर लोगों की कारगुजारी बताकर इसे रुझान मानने से साफ इंकार कर दिया। और चारु मजूमदार, सोरज दत्त, सौरेन बोस और परिमल दास गुप्ता से लेकर सुशील रायचौधरी को पार्टी से निकाल दिया। इस घटना के महज आठ दिनो बाद ही 28 जून को रेडियो पेइंचिंग ने नक्सलबाडी संघर्ष को समर्थन दे कर संसदीय वामधारा को नया झटका दे दिया। चीन के समर्थन ने नक्सलबाडी आंदोलन और कानू सन्याल को किस हद तक प्रभावित किया, इसके दो चेहरे चारु मजूमदार और कानू सन्याल के जरिये समझे जा सकते हैं।

 

चारु मजूमदार ने उस वक्त नारा लगाया- चीन के चैयरमैन हमारे भी चैयरमैन–चीन का रास्ता हमारा भी रास्ता । वहीं कानू सन्याल इस दौर में छुपते छुपते सीमा पार कर चीन जा पहुंचे। और वहां न सिर्फ विचारधारात्मक सलाह मश्विरा किया बल्कि वानकिंग मिलिट्री अकादमी में फौजी ट्रेनिंग भी ली । इस ट्रेनिंग का ही असर था कि सितंबर 1968 में कानू सन्याल ने तराई रिपोर्ट के आधार पर जब नक्सलबाडी की समीक्षा की तो उसमें लिखा-एक मजबूत पार्टी संगठन की कमी,फौजी मामलों की जानकारी ना होना, भूमि सुधारों को लेकर औपचारिक रवैया अपनाना और संघर्ष को खेत खलिहानों से बाहर ना ले जाना नक्सलबाडी संघर्ष की बड़ी कमजोरी रही। प्रयोगशाला के तौर पर पार्वतीपुरम इलाका खासा सफल भी हुआ। कानू सन्याल का मानना था कि जिन क्षेत्र में आंदोलन हो रहा है उसकी अगुवाई भी वहीं के लोगो के हाथों में होनी चाहिये। जुलाई 1969 तक पार्वतीपुरम इलाके के 518 गांवों में 300 गांवों को अपने प्रभाव में लेने के बाद यहां 300 से 400 छापामार टुकडियां बनायीं गयीं। और इन्हे ट्रेनिंग देने में कानू सन्याल की फौजी ट्रेनिंग खासी काम भी आयी। इसी के बाद अतिवाम धारा तले बहुसंख्यक तबके को गोलबंद करने के लिये कानू सन्याल ने हर रणनीति का प्रयोग किया। नक्सलबाडी के खेतिहर संघर्ष को व्यापक कैनवास में ले जाने के लिये भूमि सुधार को लागू ना करा पाने के लिये संसदीय राजनीति के अंतर्विरोध को भी उभारा और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी के गठन के लिये गांव-देहात की जगह कोलकत्ता चुना। नक्सलबाडी पर माओ के प्रेम से संगठन में बहस शुरु हुई तो संघर्ष कमजोर न हो इसीलिये पार्टी के गठन का दिन लेनिन की जन्मशताब्दी दिवस 22 अप्रैल 1969 चुना गया। और पार्टी की पहली काग्रेस जब भूमिगत तौर पर कोलकत्ता के बेहाला में 15-16 मई को हुई तो उसमें उस नयी पौध ने भी शिरकत की, जो अभी तक कालेज से नक्सलबाडी के तराई के संघर्ष के किस्सो को राइटर्स बिल्डिग के जरीये सुना करते थे।

 

इसी का असर हुआ कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है का नारा लगाते सैकड़ों छात्र भी नक्सलबाडी संघर्ष से जुड़ गये। 3 दिसंबर 1969 को ज्योति बसु ने ऐलान किया कि नक्सलवादियों को देखते ही गोली से उड़ा दिया जायेगा । ज्योति बसु तो नहीं लेकिन उसके बाद कांग्रेस की सरकार के सीएम सिद्दार्थ शंकर राय ने उन हजारों नवयुवकों को नक्सली करार देकर मारा जो प्रेसीडेन्सी कॉलेज से लेकर आईआईटी और मेडिकल की पढ़ाई छोड कर क्रांति का सपना संजोय गांव की तरफ बढ़े । बारासात,बरानगर,काशीपुर,डायमंड हार्बर,हावडा,कोन्नार और बेलेधाटा में सैकड़ों निहत्थो की हत्या जिस तरीके से हुई उससे समूचा बंगाल थर्रा उठा । 17 जुलाई 1972 को सरकार के युवा मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने जब चारु मजूमदार से पूछा कि इतनी तादाद में नौजवान जान दे रहे हैं। आप उन्हें रोकते क्यों नहीं, तो चारु का जबाब था- जो हो रहा है, वही होता रहेगा। वे मेरे लिये नहीं क्रांति के आदर्शों के लिये जान दे रहे हैं। और यही सवाल जब पार्वतीपुरम मामले में गिरफ्तार किये गये कानू सन्याल से पूछा गया था तो कानू ने मैक्सिम गोर्की को याद करते हुये कहा था – जैसे ही पुरानी सत्ता उपर से सड़ती है तो वैसे ही नयी सत्ता दिमाग से उपजती है। और नौजवान नयी सत्ता का सपना लिये निकल रहे हैं । लेकिन 1977 में जेल से रिहायी के बाद बीते 33 साल में कानू सन्याल को कभी लगा नहीं कि कोई नयी सत्ता किसी के दिमाग में उपज रही है। इसलिये माओवादी संघर्ष को भी कानू सन्याल ने मान्यता नहीं दी और उनकी हिंसा को भी कभी भटकाव तो कभी आंतक का ही प्रतीक माना। लेकिन कानू सन्याल ने सिंगूर-नंदीग्राम के दौर में यह भी जरुर कहा कि कि राज्य अब कहीं ज्यादा क्रूर हो चुके हैं। हालाकि खुद इस दौर में कानू सन्याल राजनीतिक प्रयोग करते रहे और 2003 में जब रेड फ्लैग और यूनिटी के साथ मिलकर सीपीआई एमएल बना रहे थे तो बिहार के एक कामरेड साथी गीत भी गा रहे थे– “जब तक मैं देख सकता हूं,/ मै तलाशता रहूंगा, / जब तक मै चल सकता हूं, / आगे बढता रहूंगा, / जब तक मै खड़ा रह सकूंगा / मै लड़ता रहूंगा । ” लेकिन किसने सोचा था कि 23 मार्च 2010 को यह गीत भी खारिज हो जायेगा , जब दोपहर एक बजे खबर आयी कि कानू सन्याल ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली।