नवभारत टाइम्स, 26 मार्च 2007 : मार्क्सवादी सरकार अपवाद नहीं हैं| काँग्रेसी, भाजपाई, सपाई आदि कोई भी सरकार वही करती, जो प. बंगाल में बुद्घदेव भट्टाचार्य की सरकार ने किया है| निहत्थे किसानों को भून देना कोई मुद्दा नहीं है, इस देश में ! जलियाँवाला बाग तो राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था लेकिन नंदीग्राम को मुद्दा कौन बनाए ? हर पार्टी का, हर नेता का अपना-अपना नंदीग्राम है| वे सब अपने-अपने नंदीग्रामों को किसानों के खून से सींच रहे हैं| चीन के नंदीग्रामों की नकल करनेवाले तीन बातें भूल गए| एक तो चीन के नंदीग्राम सरकार की सम्पत्ति हैं| वे पूंजीपतियों के निजी किले नहीं हैं| दूसरा, वे भारत की तरह सैकड़ों नहीं हैं, सिर्फ छह हैं और तीसरे इन नंदीग्रामों से उखाड़े जानेवाले लोगों को बसाने में चीनी सरकार ने कोई कोताही नहीं बरती है| चीन में भारत की तरह मुखर लोकतंत्र् भी नहीं है| एक पार्टी अधिनायकत्व है और थियेन आन मान की खूनी परम्परा भी है| इसके बावजूद हमारे नंदीग्राम चीनी नंदीग्रामों के मुकाबले खून में इतने सने हुए क्यों दिखाई पड़ रहे हैं ?
इसका मूल कारण तो यही है कि भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र् (सेज) निजी फायदे के लिए बनाए जा रहे हैं| टाटा और रिलायंस आदि भारतीय कम्पनियाँ ही नहीं, इंडोनेशिया के सलीम समूह आदि भी हमारे नंदीग्रामों में अपने नंदनवन खड़े करने के लिए बेताब हैं| अगर फायदा इन्हीं निजी कंपनियों का होना है तो ये सरकारें ज़मीन-मालिकों का खून बहाने पर क्यों उतारू हैं ? ज़मीन खरीदने का जिम्मा वे इन निजी पूंजीपतियों पर क्यों नहीं डालतीं ? वे राज्य के अधिकार का दुरुपयोग क्यों कर रही हैं ? किसी भी नागरिक की ज़मीन छीनकर क्या राज्य को किसी पूंजीपति, उद्योगपति या व्यवसायी की जेब भरने का कोई नैतिक अधिकार है ? वह अपने कानूनी अधिकार का अनैतिक उपयोग कर रहा है| साधारण किसानों का गला वह इसलिए काट रहा है कि धन्ना-सेठों की जेबें मोटी हो सकें| जिस लक्ष्य की सिद्घि के लिए मानव समाज ने राज्य की स्थापना की है, उसी लक्ष्य को आज राज्य कच्चा चबा डाल रहा है| क्या देश में ऐसा कोई दल या नेता है, जो राज्य के इस बलात्कार के विरुद्घ खड्रगहस्त हो ? क्या सोनिया गाँधी की काँग्रेस महात्मा गाँधी की काँग्रेस को बिल्कुल भूल गई है ? इस या उस सरकार की स्तुति या निंदा करना तो दलों का रोज़मर्रा का धंधा बन गया है| क्या भारत की जनता को पता नहीं कि सभी दलों की सरकारें अपने-अपने प्रांतों में ‘सेज’ बिछाने के लिए मरी जा रही हैं| वे जिसे फूलों की सेज समझ रही हैं, वह उनके लिए चुनावों में काँटों की सेज बन जाएगी, क्या यह उन्हें बताने की जरूरत है ? प. बंगाल की मार्क्सवादी सरकार तीन दशक में पहली बार ऐसा झटका खाएगी, जैसा आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी ने खाया था| यह कितना बड़ा मजाक है कि एक मार्क्सवादी सरकार इसलिए धूल चाटेगी कि वह पूंजीपतियों की रंगशाला में में रंगे हाथ पकड़ी गई है| कार्ल मार्क्स ‘एतिहासिक भौतिकवाद’ को शीर्षासन करवाना चाहते थे, लेकिन प. बंगाल की मार्क्सवादी सरकार ने मार्क्सवाद को शीर्षासन करवा दिया है|
दूसरी सभी और मार्क्सवादी सरकार भी आखिर पूंजीपतियों की सेवा में इतनी बुरी तरह से क्यों जुटी हुई है ? उन्हें यह डर भी नहीं कि चुनावों में उनकी बधिया बैठ जाएगी| इसका कारण यह नहीं है कि ये सरकारें अपने-अपने प्रांतों का तुरंत औद्योगिकीकरण करना चाहती हैं| वह तो अपने आप ही हो जाएगा| वह तो आनुषांगिक कारण है| असली कारण यह है कि इन सरकारों, इन पार्टियों, इन नेताओं को पहली बार सोने की सेज़ पर सोने का बेखटके मौका मिलेगा| एक-एक ‘सेज’ में, एक-एक नंदीग्राम में, एक-एक सिंगुर में सैकड़ों एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण होगा| मुआवज़े के तौर पर मजबूर किसानों को दो-चार लाख रु. प्रति एकड़ दे दिए जाएँगे लेकिन अब इन्हीं ज़मीनों की क़ीमत कई करोड़ रु. प्रति एकड़ हो जाएगी| अरबों के इस सेंत-मेंत मुनाफे पर क्या नेतागण हाथ साफ़ नहीं करेंगे ? जरूर करेंगे| इतनी बड़ी लूट क्या स्वतंत्र् भारत में पहले कभी मची है ? इस लूट को बटोरनेवाले हाथ बहुत निर्मम हैं| अगर वे बेज़ुबान किसानों के खून से रंग भी जाते हैं तो किसे चिंता है| कौन डरता है, इस खून से ? यह खून सभी दलों और नेताओं के हाथों और दाँतों पर लगनेवाला है| चुनाव हार गए तो भी क्या? आगे आनेवाली अपनी कई पीढि़यों के इंतजाम का इससे सुनहरा मौका क्या कभी हाथ लगेगा ? और चुनाव हर पाँच साल में होते ही रहते हैं| गद्दी इस बार नहीं तो अगली बार ही सही| पाँच साल घर बैठने की फीस अगर पचास साल के बराबर हो तो सौदा बुरा नहीं है|
अगर हमारे नेताओं का चिंतन इतना दूषित नहीं हो गया होता तो वे ‘सेज़’ को सचमुच फूलों की सेज बना सकते थे| ये ‘सेज़’ निर्जन या नई ज़मीनों पर क्यों नहीं खड़े किए जा सकते ? यदि खेतिहर इलाकों में ही ‘सेज़’ खड़े करने थे तो वहाँ बसे किसानों की ज़मीनें लेने के पहले उन्हें उससे डेढ़ी या दुगुनी ज़मीन कहीं और देने का इंतजाम करते, उन्हें घर-बार बनाने की सुविधाएँ देते और उनके बच्चों को नए उद्योगों में नौकरियों पर भी लगाते| ये काम निजी कंपनियों के भरोसे भी छोड़ा जा सकता था| निश्चय ही ये कंपनियाँ सरकार से बेहतर काम करतीं| वे खून नहीं, पैसा बहातीं और गाड़ी शायद पार हो जाती| मार्क्सवादी दृष्टि से सामंतवादी युग से निकलकर लोग पूंजीवादी युग में प्रवेश करते लेकिन हमारे मार्क्सवादियों ने उलट-चमत्कार कर दिखाया| उन्होंने ‘पूंजीवादी सामंतवाद’ के नए युग की अवधारणा प्रस्तुत कर दी| ‘सेज़’ के नाम पर लगभग ढाई सौ नए जागीरदार खड़े किए जा रहे हैं, जो हमारे पाँच-सौ पुराने रजवाड़ों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्घ हो सकते हैं| सेज़ याने क्या ? वह राज्य की भीतर एक राज्य होगा| बिजली, पानी, सड़क, सब उसका अपना ! उसके कारखाने कर-मुक्त होंगे| एक राजा दूसरे राजा पर टैक्स कैसे लगा सकता है ? उसके कारखानों का माल विदेश जाएगा| उसे विशेष छूट होगी| डॉलरों की बरसात होगी| देश मालामाल हो जाएगा| देश याने कौन ? बड़ी कंपनियाँ, उनके मालिक, उनके दलाल (याने नेतागण) ! मज़दूरों को क्या मिलेगा ? उजड़े हुए किसानों को क्या मिलेगा ? आम उपभोक्ताओं को क्या मिलेगा ? वे सेज़ में बनी चीजें खरीद पाएँगे क्या ?
मूल प्रश्न यह है कि इस नई अर्थ-व्यवस्था का आखिर मकसद्र क्या है ? देश मालदार बने, इस इरादे का कौन स्वागत नहीं करेगा ? लेकिन देश मालदार हो जाए और लोग गरीब हो जाएँ, यह कैसा विकास है ? खेती की लाश पर सेज़ के भवन खड़े किए गए तो बेरोज़गारी, महँगाई और तड़क-भड़क बढ़ेगी| अंग्रेज़ ने जनता का जितना खून पिया, उससे ज्यादा ये सेज़ महाशय पी जाएँगे| यह दौड़ ढाई सौ पर नहीं रुकेगी, ढाई हजार तक जाएगी| हर राज्य चाहेगा कि उसके यहाँ सैकड़ों नंदीग्राम खड़े हो जाएँ| चीन ने इस लालसा को काबू कर रखा है लेकिन भारत नहीं कर पाएगा| भारत का हाल चीन से भी बदतर हो जाएगा| पिछले 20 वर्षों में चीन में गरीब-अमीर के बीच की खाई जितनी चौड़ी हुई है, पिछले दो हजार साल में नहीं हुई| हम शांघाई, पेइचिंग और शेन-जेन की चकाचौंध में अंधे हुए जा रहे हैं| हमारे नेताओं को अगर सियान, उरूमची, लोयांग और ल्हासा आदि के गाँवों को देखने का मौका मिले (जैसा कि इस लेखक कई बार मिला है) तो उनके रौंगटे खड़े हो जाएँगे| बंगाल का नंदीग्राम हमारे नीति-निर्माताओं की बुद्घि का बंदीग्राम बन गया है|