क्या राजनीति में सौहार्द एवं सद्भावना असंभव है? क्या विरोध की राजनीति के स्थान पर देश के विकास की राजनीति को संभव बनाया जा सकता है? घृणा, विद्वेष और घनीभूत ईष्र्या के बिना क्या राजनीति हो सकती है? मूल्यों एवं सिद्धान्तों की राजनीति क्यों नहीं लक्ष्य बन सकती? ऐसे अनेक प्रश्न जन-जन को झकझोर रहे हैं। इस विराट देश की आशाओं, सपनों, यहां छाई गरीबी, तंगहाली, बीमारी और कुपोषण को दूर करना राजनीति की प्राथमिकता होना ही चाहिए। मंदिर- मस्जिद से पहले भूखे की भूख दूर करना राजनीति का लक्ष्य होना चाहिए। क्या करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह फुटपाथ और रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द जिंदगी जिएं और हम अपने-अपने राजनीतिक झंडे लिए झगड़े करें तो देश कैसे उन्नति करेंगा?
देश वोटों की राजनीति, अहंकार और धन के बल से नहीं, बल्कि राजनीति अपने अस्तित्व को जन-जन एकाकार करने से समृद्ध एवं शक्तिशाली बन सकता है। देश आम आदमी की परेशानियों के साथ विलीन करने वाले सौजन्य से बनता और बचता है। चाहे चीन हो या अमेरिका, जापान हो या जर्मनी हर उन्नत देश के सिर्फ उस कार्यकर्ता और नेतृत्व ने शून्य से महाशक्ति बनने का सफर तय किया, जिसने अपने अहं, अपनी जीत-हार से बड़ा देश का अहं, देश की जीत-हार को माना। हम हार जाएं, तो क्या! देश नहीं हारना चाहिए। जब तक ऐसी सोच विकसित नहीं होगी, देश वास्तविक तरक्की नहीं कर सकेगा। जन प्रतिनिधि लोकतंत्र के पहरुआ होते हैं और पहरुआ को कैसा होना चाहिए, यह एक बच्चा भी जानता है कि ”अगर पहरुआ जागता है तो सब निश्चिंत होकर सो सकते हैं।“ इतना बड़ा राष्ट्र केवल कानून के सहारे नहीं चलता। उसके पीछे चलाने वालों का चरित्र बल होना चाहिए।
इन नये राजकुमारों-जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं और स्वार्थों को गरीब राष्ट्र बर्दाश्त भी कर लेगा पर अपने होने का भान तो सांसद अपने क्षेत्र में कराए। जो वायदे उन्होंने अपने मतदाताओं से किए हैं, जो शपथ उन्होंने भगवान या अपनी आत्मा की साक्षी से ली है, जो प्रतिबद्धता उनकी राष्ट्र के विधान के प्रति है, उसे तो पूरा करें।
आज करोड़ों के लिए रहने को घर नहीं, स्कूलों में जगह नहीं, अस्पतालों में दवा नहीं, थाने में सुनवाई नहीं, डिपो में गेहूं, चावल और चीनी नहीं, तब भला इतनी सुविधाएं लेकर यह राजकुमारों की फौज कौन-सा ”वाद“ लाएगी? देश केवल ”वाद“ या ‘‘वादों’’ से ही नहीं बनेगा, उसके लिए चाहिए एक सादा, साफ और सच्चा राष्ट्रीय चरित्र, जो जन-प्रतिनिधियों को सही प्रतिनिधि बना सके। तभी हम उस कहावत को बदल सकेंगे ”इन डेमोक्रेसी गुड पीपुल आर गवरनेड बाई बैड पीपुल“ कि लोकतंत्र में अच्छे आदमियों पर बुरे आदमी राज्य करते हैं।
कहते हैं कि जो राष्ट्र अपने चरित्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। क्या परमाणु बम भारतीयता की रक्षा कर पाएगा? दरअसल, यह भुला दिया गया है कि पहले विश्वास बनता है, फिर श्रद्धा कायम होती है। किसी ने अपनी जय-जयकार करवाने के लिए क्रम उलट दिया और उल्टी परंपरा बन गई। अब विश्वास हो या नहीं हो, श्रद्धा का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। गांधीजी भी श्रद्धा के इसी प्रदर्शन के शिकार हुए हैं। उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। पर उनकी कसमें खाकर वाहवाही जरूर लूटी जा रही है। यह राजनीति की बड़ी विसंगति बनती जा रही है जिसमें गांधीजी के विचार बेचने की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। वे छपे शब्दों से अधिक कुछ नहीं हैं।
इसलिए ही वर्तमान राजनीति को गांधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामथ्र्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है। अपने लालच की रक्षा में वह गांधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है। शायद कल उनमें से किसी को यही करना पड़े! अपने हितों की विरोधी चीजों को इतिहास में बदल देने में भारतीयता आजादी के बाद माहिर हो चुकी है। वर्तमान और इतिहास की इस लड़ाई में वर्तमान ही जीतता आ रहा है क्योंकि इतिहास की तरफ से लड़ने वाले शेष नहीं हैं।
कुछ राजनीति करने लोग जेहाद के नाम पर घृणित कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं। कहीं दंगे हो रहे हैं तो कहीं महिलाओं और बच्चों के साथ अत्याचार की घटनाएँ हो रही हैं। धर्म और संप्रदाय के नाम पर समाज में विष घोला जा रहा है। दुनिया में शस्त्रों ही होड़ चल रही है। आतंकवाद जीवन का अनिवार्य सत्य बन गया है। वैचारिक धरातल में खोखलापन आ गया। जान-बूझकर धीरे-धीरे और योजनाबद्ध ढंग से राजनीति में मूल्यों और सिद्धान्तों को मिटाया जा रहा है क्योंकि यह मौजूदा स्वार्थों एवं राजनीतिक हितों में सबसे बड़े बाधक हैं। मूल्यों एवं नैतिकता को मिटाने की इस गतिविधि को देखा नहीं गया, ऐसा नहीं है। सब चुप हैं क्योंकि अपना-अपना लाभ सभी को चुप रहने के लिए प्रेरित कर रहा है।
फिर भी इतना अवकाश तो होना ही चाहिए कि बाकी तमाम विषयों पर असहमति के बावजूद राजनीति में मूल्यों एवं सिद्धान्तों का निश्छल छंद कहीं, थोड़ा-सा ही सही, बचा रहे। जिससे राजनीतिक लोग आपस में मिल सके, देश के विकास के मुद्दों पर सहमति बना सके। पर अब दीवारें बड़ी गहरी होती जा रही हैं। आपस में ही अनौपचारिक मिलना-जुलना, सुख-दुख बांटना संभव नहीं हो गया, तो दीवारें लांघ कर कौन जाए? जाए भी तो डरा-सा रहता है कि मुसीबत गले पड़ जाएगी। इस तरह बनता माहौल कैसे देश को साफ-सुथरा नेतृत्व दे पाएगा। आज राजनीति अनेक छिद्रों की चलनी हो गयी है।
एक बार एक चित्र देखा। दो दोस्त घाट पर पानी लाने गए। एक के पास मिट्टी का घड़ा था, दूसरे के पास चलनी थी। घाट के किनारे दोनों बैठे, पानी भरना शुरू किया। एक का घड़ा एक बार में ही पानी से पूरा भर गया मगर दूसरे की चलनी में पानी भरने का हर प्रयत्न व्यर्थ होता देखा गया। दोस्त निराशा से घिर गया। समझ नहीं पाया कि आखिर में मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?
बात तो बहुत सीधी-सी है। एक समझदार बालक भी कह सकता है कि घड़े में पानी इसलिए भर गया कि उसमें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। घड़ा पूर्ण था किन्तु चलनी में तो अनेक छिद्र थे, भला उसमें पानी का ठहराव कैसे संभव होता?
मगर यह समस्या घट और चलनी की नहीं, राजनीति की है, राजनीति के बनते-बिगड़ते संदर्भों की है जिसे आम आदमी नहीं समझ सकता। इसके लिए एकाग्रचित्त होकर सूक्ष्मता से सोचना-समझना होगा। वर्तमान की विडम्बना है कि राजनीति का चरित्र भी घट और चलनी जैसा होता जा रहा है। एक वर्ग में श्रेष्ठताओं की पूर्णता है तो दूसरे में क्षुद्रताओं के अनगिनत छिद्र। एक राजनीतिक विचारधारा में समंदर-सा गहरापन है। सब कुछ अनुकूल-प्रतिकूल अनुभवों को समेट लेने की क्षमता है, तो दूसरे में सहने का अभाव होने से बहुत जल्द प्रकट होने वाला छिछलापन है। एक में तूफानों से लड़कर मंजिल तक पहुंचने का आत्मविश्वास है, तो दूसरा तूफान के डर से नाव की लंगर खोलते भी सहमता है।
हम देख रहे हैं कि नये-नये उभरते राजनीति दल एवं उनके पैरोकारों का निजी स्वभाव औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति का होता है। वे हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहंा, किसने, कैसी गलती की। औरों को जल्द बताने की बेताबी उनमें देखी गई है, क्योंकि उनका अपना मानना है कि इस पहल में भरोसेमंद राजनीति की पहचान यूं ही बनती है। ऐसे राजनीतिक लोग देश के लिये दुर्भाग्य ही है, वे किसी-न-किसी कमजोरी से घिरे हैं, वे झूठ बोलकर स्वयं को सुरक्षा देते हंै। अन्याय और शोषण करके अपना हक पाने का साहस दिखाते हंै। औरों की आलोचना कर एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते है। उसमें अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं होता, इसलिए औरों की ताकत से डरते हुए भी वह उनका विरोध करते हैं ताकि उसकी दुर्बलताएं प्रकट न हो सकें।
ऐसे दुर्बल लोगों ने राजनीति के चरित्र को धुंधलाया है, उसमें तत्काल निर्णय लेने का साहस नहीं होता मगर वे स्वयं को समझदार और समयज्ञ दिखाने के लिए यह कहकर उस क्षण को आगे टाल देना चाहता है कि अभी सही समय नहीं है। ऐसे तुच्छ तथाकथित राजनेता या जनप्रतिनिधि समझते हंै कि छोटे-छोटे अच्छे काम कर देने से किसी का भला नहीं होता, इसलिए वे अच्छे काम नहीं करते। वे समझते है कि छोटे-छोटे बुरे काम कर देने से किसी का बुरा नहीं होता, इसलिए वे बुरे कामों का त्याग नहीं करते। ऐसी क्षुद्रताओं को जीने वाले राजनेता कभी बदलना चाहते भी नहीं। वे मन के विरुद्ध किसी नापसंद को सह नहीं पाते। स्वयं पर औरों का निर्णय, आदेश, सलाह, लागू नहीं कर सकते क्योंकि उनकी नजर में स्वयं द्वारा उठाया गया कदम सही होता है। जब दिल और दिमाग में बुराइयां अपने पैर जमाकर खड़ी हो जाती हैं तो फिर अच्छाइयों को खड़े होने की जगह ही कहां मिलती है?