धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण का इतिहास पुराना है। हिंदू धर्म के तहत जहां मंदिरों में देवदासी प्रथा का प्रचलन हुआ, वहीं बेबीलोन के मंदिरों में भी देवदासियां रहा करती थीं। ईसाई धर्म के तहत चर्च और कॉन्वेन्ट्स में नन रहने लगीं जो चिरकुमारियां कही जाती हैं। जैन धर्म में संतों के साथ साध्वियां भी होती हैं।
13 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक के मुख्य सचिव को निर्देश देते हुए कहा कि वह सुनिश्चित करें कि किसी भी मंदिर में किसी लड़की का इस्तेमाल देवदासी के रूप में न हो। यह खबरें मीडिया में प्रसारित हुई। आश्चर्य की बात है कि जिस समय देश के ढेरों मंदिरों के धन कुबेर होने की खबरें आती हैं, उसी समय इन्हीं देव परिसरों में नारी के शोषण की धिनौनी प्रथा के अस्तित्व होने की खबरें विचलित करती हैं। वर्ष 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था, जिसमें जोगिनियों के बच्चों के बदहाल जीवन के बारे में बताया गया था। कोर्ट ने इसे जनहित याचिका मान लिया और उसी समय सरकार को इस सम्बन्ध में जरूरी कदम उठाने तथा एक आयोग गठन करने के भी निर्देश दिए थे।
गूगल में देवदासी सर्च करने पर पता चलता है कि महात्मा बुद्ध मठों में औरतों को शामिल करने के विरुद्ध थे। उनका मत था कि औरतों की मौजूदगी में व्यक्ति काम वासना के आकर्षण से बच नहीं सकता, पर उनके महाप्रयाण के बाद मठों के द्वार औरतों के लिए खुल गए। बौद्ध धर्म की एक शाखा पूरी तरह तंत्र पर आधारित हो गई और तंत्र क्रिया में औरतों की देह का इस्तेमाल मोक्ष यानी निर्वाण पाने के नाम पर किया जाने लगा। सभी धर्मों में कमोबेश ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं। भारत के कुछ क्षेत्रों में खास कर दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया। सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुर्इं। देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गर्इं।
कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहे। सामान्य सामाजिक अवधारणा में देवदासी ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। पहले समाज में इनका उच्च स्थान प्राप्त होता था, बाद में हालात बदतर हो गये। देवदासियां परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। पेरियार तथा अन्य नेताओं ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। कुछ लोगों ने अंग्रेजों के इस विचार का विरोध किया कि देवदासियों की स्थिति वेश्याओं की तरह होती है। देश के इतिहास और संस्कृति में एक काले अध्याय के रूप स्थापित हुए देवदासी प्रथा का आज कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कहीं ज्यादा उन बच्चियों के भविष्य की नींव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है, जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है। उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है।
पर प्रकाशित एक तीन साल पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक पुरी के प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर में 800 साल पुरानी देवदासी परंपरा खत्म होने के कगार पर है और यहां विशेष अनुष्ठानों के लिए केवल दो ही देवदासियां हैं। इस बात का पहले से ही आभास होने पर मंदिर प्रशासन ने परंपरा को जीवंत रखने के लिए 90 के दशक की शुरुआत में नई देवदासियों को जोड़े का प्रयास किया था, लेकिन इस पद्धति के खिलाफ देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के चलते और महिलाओं के इसमें रुचि नहीं दिखाने से कोशिशें नाकाम रहीं। 12वीं सदी के इस मंदिर में 36 अलग-अलग सेवाएं देवदासियों द्वारा की जाती हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें महरी कहा जाता है। एक शोधकर्ता रवि नारायण मिश्रा ने कहा कि देश में यह एक मात्र विष्णु मंदिर है, जहां महिलाओं को नृत्य और गायन के अलावा विशेष अनुष्ठान करने की भी इजाजत होती है। महरी सेवा एकमात्र सेवा है, जिसमें महिलाओं की एक बड़ी भूमिका होती है। पुजारी रवींद्र प्रतिहारी कहते हैं कि एक महिला के बिना इस अनुष्ठान को नहीं किया जा सकता। जगन्नाथ मंदिर प्रशासन के उप प्रशासक भास्कर मिश्रा ने कहा कि इस बार नंदोत्सव के दौरान महिलाओं की सेवा नहीं ली जा सकी। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव में देवदासियां उनकी मां की भूमिका में होती हैं। भास्कर मिश्रा ने कहा कि 80 साल पहले इस मंदिर में दर्जनों देवदासियां थीं, लेकिन अब केवल दो शशिमणि और पारसमणि रह गई। 85 वर्षीय शशिमणि के बाएं पैर में फ्रैक्चर होने के कारण वह बिस्तर पड़ी रही। पारसमणि ने भी लंबे समय से मंदिर आना बंद कर दिया। मंदिर के पास अपने कमरे में बिस्तर पर ही रहने को मजबूर शशिमणि का जीवन का हर दिन कष्ट में देखा गया। कुछ वर्ष पहले एक पत्रकार से बातचीत उसने कहा था कि अब सेवा नहीं कर सकतीं, जो वह आठ साल की उम्र से करती रही। वह आठ साल की उम्र में महरी बन गई थी। शशिमणि के अनुसार लोगों ने हमेशा ही देवदासियों का सम्मान किया। देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की जीवित पत्नी माना जाता है।
हिन्दू धर्म की ही तरह कैथोलिक चर्चों में भी सेक्स के खुले खेल के खुलासे होते रहे हैं। कुछ दिन पहले ही एक पूर्व नन ने पादरियों के व्यभिचार के बारे में सनसनीखेज खुलासा किया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि पादरी ननों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। जब वह गर्भवती हो जाती हैं तो बच्चों को गर्भ में ही मार देते हैं। नन सिस्टर मैरी चांडी अपनी आत्मकथा ननमा निरंजवले स्वस्ति लिखा है-मैंने वायनाड गिरिजाघर में हासिल अनुभवों को सहेजने की कोशिश की है। चर्च के भीतर की जिंदगी आध्यात्मिकता के बजाय वासना से भरी थी। एक पादरी ने मेरे साथ बलात्कार की कोशिश की थी। मैंने उस पर स्टूल चलाकर इज्जत बचाई थी। उनके मुताबिक चर्च में ननें सेक्सी किताबें पढ़ती है। इसी तरह से नन सिस्टर जेस्मी ने एक किताब लिखकर धार्मिक पाखंडों का खुलासा किया था। इस किताब का नाम (आमेन: द आटोबायोग्राफी) है।