मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा भारतीय इतिहास की थाती है ।भारतीय इतिहास,संस्कृति और आध्यात्मिकता में उनका योगदान अतुलनीय है । लेकिन दुर्भाग्य से अभी तक उनके योगदान को या तो मजहबी दृष्टिकोण से मूल्यांकित किया गया है या फिर केवल मध्यकालीन भक्तिकाल के साहित्य के सन्दर्भों में । मध्यकाल में देश के अनेक हिस्सों में बहुत कवि हुये जिनका साहित्य अब्बल दर्जे का माना गया है । लेकिन उनका दायरा अपने क्षेत्र तक ही सीमित रहा । दश गुरु परम्परा इससे हट कर है । इस परम्परा के अनेक महापुरुषों ने देश भर में निरन्तर यायावरी की । यह परम्परा श्री नानक देव से प्राम्भ होती है । उनके काव्य पद देश भर में विख्यात हैं । लेकिन उनकी यात्राएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं , जिनके माध्यम से उन्होंने देश के चप्पे चप्पे को छान डाला । देश का शायद ही कोई तीर्थ स्थान हो जिसकी यात्रा उन्होंने न की हो । उन्होंने लोगों को रुढ़ियों और अन्ध विश्वासों से मुक्त होने की शिक्षा दी । पूर्व में जगन्नाथ पुरी से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक गये । वहाँ से लंका भी गये । सिक्किम में भी नानक देव जी के जाने के प्रमाण मिलते हैं । वहाँ उन्हें नानक लामा कहते हैं । पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक नानक देव के पद चिन्ह सारे देश में मिलते हैं जिस प्रकार केरल से चले शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों को बाँध दिया था उसी प्रकार का करिश्मा नानक देव जी ने अपनी जन्म साखियों से किया । इस राष्ट्र यज्ञ से बड़ा यज्ञ भला और क्या हो सकता है ।
गुरु हरगोबिन्द जी ने कश्मीर से होते हुये पश्चिमोत्तर की लम्बी यात्रा की । इस परम्परा के नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी पूर्वोत्तर में असम तक गये । उन का प्रयास था कि औरंगजेब की ढ़ाल बन कर कुछ भारतीय आपस में ही न लड़ंे । असम पर आक्रमण के समय औरंगजेब की सेनाओं का नेतृत्व जयपुर के राजा राम सिंह कर रहे थे । गुरु तेगबहादुर असम तक उन्हें निरन्तर समझाते रहे कि वे विदेशी ताकतों के हस्तक न बनें । कुछ सीमा तक उन्हें अपने इस प्रयास में सफलता भी मिली । दशम गुरु गोविन्द सिंह जी की तो पूरी जीवन यात्रा ही मानों राष्ट्र पुरुष को समर्पित थी । उनका जन्म बिहार के पाटलिपुत्र में हुआ और वहीं उनका बाल्यकाल बीता । उनका कार्यक्षेत्र पंजाब हिमाचल रहा और वे सुदूर दक्षिण के पठारों में पंचतत्व में विलीन हुये । गोविन्द सिंह जी तो अपने पूर्व जन्म में हिमालय के हेमकुण्ड में की गई तपस्या का संकेत भी अपनी आत्मकथा में कर गये । जहाँ जहाँ गुरुओं के चरण पड़े वही क्षेत्र तीर्थ क्षेत्र बन गया । आज इन तीर्थ स्थानों में पूरे देश भर से लाखों लोग सिजदा करने के लिये जाते हैं । तीर्थ स्थानों का राष्ट्ीय एकता के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान होता है । देश के लोग देश की मिट्टी से जुड़ते हैं । राष्ट्रीयता के निर्माण में तीर्थ क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण भावनात्मक तत्व होते हैं । भौगोलिक एकता में उनका प्रथम स्थान है । जिस नानक को सिक्किम का आदमी लामा समझ कर अपने तरीके से पूजता है , उसी नानक को पंजाब का आदमी गुरु मान कर पूजता है , उसी को सिन्ध का आदमी देवता मानता है । इसी प्रक्रिया से सिन्धु के लिये पंजाब पावन होता है , पंजाब के आदमी के लिये सिक्किम पवित्र हो जाता है ।
परन्तु दुर्भाग्य से गुरुओं के इस योगदान की ओर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया । यह जरुरी है कि गुरु परम्परा के इस पक्ष का भी अध्ययन किया जाये । देश के सांस्कृतिक जीवन में उनके मूल्याँकन को पारिभाषित किया जाये । आज जब कुछ देशी विदेशी शक्तियाँ अलगाव पैदा करने की कोशिश कर रही हैं तो गुरुओं की इस भूमिका का महत्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है । वे इस देश की संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना के मूर्तिमान प्रतीक हैं । श्री नानक देव सांस्कृतिक दूत बन कर उस समय भारत भ्रमण पर निकले जब मुग़ल सत्ता देश में से सभी सांस्कृतिक चिन्हों को मिटाने का प्रयास कर रही थी । उन्होंने अपने समय में अपने ढ़ंग से बाबर की मुग़ल सत्ता को चुनौती भी दी । इस दृष्टि से स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम में भी उनकी भूमिका दर्ज होती है । उनकी इस परम्परा में पंचम गुरु श्री अर्जुन देव की भूमिका तो स्वतंत्रता संग्राम में सदा अग्रणी मानी जायेगी । श्री तेगबहादुर और श्री गोविन्द सिंह , पिता पुत्र ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नया इतिहास ही रचा । इस लिये जरुरी हो जाता है कि दश गुरू परम्परा का एक पक्षीय नहीं बल्कि सर्व पक्षीय मूल्याँकन किया जाये ।