देश को स्वाधीन हुए 7 दशक बीत चुके हैं। परंतु दुर्भाग्यवश इन सात दशकों में पूरे विश्व ने जहां आशाओं से कहीं अधिक तरक्की की है,वैश्विकरण के इस दौर में दुनिया में जहां काफी खुलापन आया है,आधुनिकता,विकास एवं प्रगति के अनेक नए मार्ग प्रशस्त हुए हैं वहीं बावजूद इसके कि विभिन्न क्षेत्रों में भारतवर्ष ने भी बहुत तरक्की की है,परंतु आज भी हमारे देश में सदियों से चली आ रही दलित उत्पीडऩ व दलित समाज की उपेक्षा का दौर समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। कभी रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या का प्रकरण देश में कोहराम पैदा कर देता है तो कहीं गुजरात में दलितों की स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा बेरहमी से की गई पिटाई का मामला देश में भूचाल की स्थिति पैदा कर देता है। ग्रामीण स्तर पर देश के स्वयंभू स्वर्ण समाज अथवा उच्च जाति के लोगों द्वारा दलितों की पिटाई करना,उनके घरों को जला देना,उनकी बेटियों को बेइज़्ज़त करना या बलात्कार करना, दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने से मना करना, उन्हें कुर्सी या चारपाई पर बैठने का अधिकार न देना, देश के अधिकांश गंदे कामों को दलित समाज के लिए ही सुरक्षित रखना,उनके खानपान के बर्तन अलग रखना तथा उनके साथ छुआछूत बरतने जैसी अनेक बातें ऐसी हैं जो इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए काफी हैं कि आज भी हमारे देश में सामान्यत: दलितों को अन्य धर्मों के व्यक्तियों जैसे सामाजिक समानता के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
सवाल यह है कि भारतीय संविधान में दलितों के विकास,उत्थान तथा उन्हें समाज के दूसरे अन्य तब$कों के बराबर खड़ा करने हेतु की गई आरक्षण व्यवस्था के बावजूद 70 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भी आज तक दलित समाज के लोगों को उपेक्षा का शिकार क्यों होना पड़ रहा है? यहां तक कि हमारे देश की निर्वाचन व्यवस्था में भी लोकसभा से लेकर राज्यसभा,विधानसभा तथा देश की सभी विधानपरिषदों तक में दलित समाज के सदस्यों हेतु आरक्षण की व्यवस्था की गई है। ज़ाहिर है यह आरक्षण केवल इसलिए नहीं दिया जाता कि इसका लाभ उठाकर सांसद अथवा मंत्री बनने वाला कोई दलित व्यक्ति केवल अपने व अपने परिवार के लोगों को ही आर्थिक व शैक्षिक रूप से मज़बूत करे। और स्वयं को संपन्न करने के नशे में अपने समाज के पिछड़े व अति पिछड़े लोगों की आत्मनिर्भरता के विषय में सोचे भी नहीं। बल्कि यह आरक्षण की व्यवस्था इस मकसद से की गई थी ताकि दलित समाज का कोई प्रतिनिधि ही दलितों की समस्याओं,उनकी ज़रूरतों व उनके दु:ख-तकलीफों को बेहतर समझ सकता है। क्या दलित नेतृत्व ऐसा कर पा रहा है? या दलित आरक्षण देश के चंद क्रीमी लेयर दलित परिवारों के भोग-विलास का एक साधन मात्र बन कर रह गया है?
इत्तेफाक से मेरा संबंध दलित समाज से संबंध रखने वाले विभिन्न नेताओं,विभिन्न दलों के प्रदेशाध्यक्षों,मंत्रियों,सांसदों, विधायकों तथा राज्यपाल स्तर के कई लोगों से रहा है। प्राय: मैंने यही देखा है कि भले ही यह लोग दलित परिवार से संबंध क्यों न रखते हों परंतु इनके चुनाव लडऩे से लेकर इनके विजयी होने तक के सफर में तथा बाद में इनके कुर्सीनशीन होने के दौर में अथवा किसी अन्य बड़े से बड़े पद पर बैठने के बाद भी इनके आसपास दलित समाज से संबंध रखने वाले लोगों की भीड़ नदारद ही दिखाई देती है। कहीं कहीं तो इनके इर्द-गिर्द एक भी दलित नज़र नहीं आता। इनके चुनाव लडऩे से लेकर इनकी राजनीति,सत्ता तथा किसी अन्य महत्वपूर्ण पद संचालन में पूरी की पूरी भूमिका तथाकथित स्वर्ण अथवा उच्च जाति के लोग ही निभाते हैं। आप देश के अधिकांश दलित जनप्रतिनिधियों द्वारा की गई उनकी राजनैतिक अथवा आर्थिक कमाई का विवरण पता करके देख लीजिए। किसी ने अपने बेटे-बेटी या दामाद को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बना दिया है,किसी ने पैट्रोल पंप ले लिया है,कोई गैस एजेंसी लिए बैठा है,किसी ने सरकारी बंगला अपने नाम लीज़ पर ले रखा है तो कोई अपने परिजनों को उच्चाधिकारी बनाने में लगा है। इनका करोड़पति बनना तो मामूली सी बात है। राजनीति के वर्तमान भ्रष्ट एवं स्वार्थपूर्ण दौर में उपरोक्त बातें कोई $खास आपत्तिजनक बातें इसलिए नहीं कही जा सकती क्योंकि यह काम केवल दलित नेतृत्व के लोगों द्वारा ही नहीं किया जा रहा है बल्कि प्रत्येक धर्म अथवा जाति का कोई भी व्यक्ति सत्ता में आने के बाद आमतौर पर करता ही यही है। इसलिए यदि दलित समाज का कोई जनप्रतिनिध ऐसा करता है तो इसमें भी कुछ विशेष अथवा आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता।
परंतु स्वयं को संपन्न करने में व्यस्त कोई जनप्रतिनिधि जब अपने समाज की उपेक्षा करता है,उसकी समस्याओं व कष्टों के निवारण के लिए कुछ विशेष नहीं करता, देश की संसद तथा विधानसभाओं में दलित प्रतिनिधि होने के बावजूद उनकी आवाज़ बनकर खड़ा नहीं होता,यहां तक कि सभी राजनैतिक दलों,सत्ता अथवा विपक्ष के निर्वाचित सभी दलित प्रतिनिधियों को एक स्वर से दलितों के हितों के प्रति एकजुट होते दिखाई नहीं देता,फिर आखिर दलित हितों के मद्देनज़र देश की निर्वाचन व्यवस्था में किए गए आरक्षण का महत्व ही क्या है? क्या यह आरक्षण केवल दलित जनप्रतिनिधियों अथवा दलित समाज के संपन्न लोगों को ही और अधिक मज़बूत बनाने की गरज़ मात्र के उद्देश्य ही दिया गया था या फिर समग्र दलित समाज के सामूहिक उत्थान को मद्देनज़र रखते हुए? हमारे देश में दलित समाज के कुछ गिने-चुने चेहरे हैं जो क्षेत्रीय स्तर पर दलितों के नाम पर राजनीति करते आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश,बिहार तथा महाराष्ट्र जैसे राज्यों से संबंध रखने वाले इन कुछ चुनिंदा दलित नेताओं ने आर्थिक व राजनैतिक मज़बूती के लिहाज़ से अपने-आपको इतना मज़बूत कर लिया है कि इनकी भविष्य की दस पुश्तें इनकी कमाई पर ऐश कर सकती है। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इनकी संपन्नता की छाया यदि इनकी अपनी संपन्नता की मात्र पांच प्रतिशत भी इनके समाज के दूसरे लोगों तक पहुंच गई होती तो आज कम से कम इनके अपने राज्यों का दलित समाज इस तरह दर-दर की ठोकरें खाने तथा ऐसी अपमानजनक स्थिति में रहने को मजबूर न होता।
दूसरा विषय दलित उत्थान से जुड़ा हुआ यह है कि दलितों के नाम पर अलग-अलग विचारधाराओं व विभिन्न राजनैतिक दलों की राजनीति करने वाले लोग आपस में भी इस विषय पर एक राय नहीं रखते। कभी मायावती जैसी तेज़-तर्रार महिला दलित नेता स्वयं को यह बताते हुए नहीं हिचकिचाती कि हमें दलित समाज देवीतुल्य समझता है और वे ही देश की दलितों की एकमात्र उ मीद हैं। राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनैतिक हैसियत को आंके बिना समय-समय पर उनकी नज़रें प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ घूमती रहती हैं। परंतु मायावती के शाही रहन-सहन तथा इनकी ऐशपरस्ती के भी तमाम िकस्से समय-समय पर सुने जाते हैं। विकीलीक्स ने तो एक बार इस बात का भी खुलासा किया था कि मु यमंत्री रहते उनका विशेष विमान केवल उनकी चप्प्ले लेने हेतु मुंबई की उड़ान भरता था। निश्चित रूप से उन्होंने दलितों के स मान के नाम पर नोएडा तथा लखनऊ में हज़ारों एकड़ ज़मीन घेरकर उसपर कहीं गौतम बुद्ध तो कहीं बाबासाहब भीमराव अंबेडकर व अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की अनेक पत्थर की मूर्तियां स्थापित कराईं। कई जि़लों के नाम बदलकर दलित समाज के महापुरुषों के नाम पर रखे। परंतु क्या इन सब कोशिशों से दलित समाज के विकास अथवा उत्थान का कोई वास्ता है? दूसरी ओर देश के दलित नेतृतव का एक और बड़ा चेहरा रामविलास पासवान मायावती की टांग खींचने का कोई अवसर खाली नहीं छोड़ते। उन्हें इस बात का भय सताया रहता है कि कहीं दलित नेतृत्व के नाम पर मायावती राष्ट्रीय दलित नेतृत्व की बाज़ी मार न ले जाएं। इसके अलावा पासवान भी दलितों के नाम स्वयं तथा अपने परिवार को इतना मज़बूत कर चुके हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनका रहन-सहन शाही अंदाज़ा है। परंतु उनके इर्द-गिर्द का उनका अपना समाज आज भी जस का तस है। उनकी पहचान देश के दलित नेता से अधिक सत्तापक्ष में पलटी मारने वाले नेता के रूप में बनी हुई है।
मज़े की बात तो यह है कि क्या दलित तो क्या स्वर्ण अथवा पिछड़ी जाति के नेतागण, क्या कांग्रेस अथवा भाजपा तो क्या बीएसपी,समाजवादी पार्टी अथवा देश का कोई अन्य राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल सभी देश के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का गुणगान करते,उनके आगे नतमस्तक होते तथा उनपर अपना अधिकार जमाते दिखाई देते हैं। दलित नेतृतव तो उनको अपना सगा संबंधी ही समझने लग जाता है। परंतु आज आपको शायद ही किसी निर्वाचित दलित जनप्रतिनिधि का मकान अथवा कार्यालय उसके निर्वाचन क्षेत्र की दलित बस्ती में नज़र आए। आज देश की लोकसभा में लगभग 40 दलित सांसद होने के बावजूद देश में दलितों को उत्पीडऩ तथा उपेक्षा का शिकार सि$र्फ इसलिए होना पड़ रहा है क्योंकि देश का दलित नेतृत्व अपने स्वार्थ में लगा हुआ है तथा दलित हितों पर संगठित होने के बजाए विभिन्न राजनैतिक दलों विचारधारा अथवा पार्टी के दिशा निर्देश हेतु बाध्य है।