दंगा हुआ मुजफ्फरनगर में। लोगों के घर जले और दिल भी। लेकिन दंगों पर सद्भावना दिखानेवाली कांग्रेस सरकार ने क्या किया? उसने बड़ी चालाकी से दंगों की इसी आग में कोयला भी जला लिया और राख का ढेर भी फूंककर हवा में उड़ा दिया। आप सोच रहे होंगे कैसे तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कोयले की आग में जल रही केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने सीएजी की उस रिपोर्ट को हवा कर दिया है जिसमें एक बार फिर यही बात कही गई है कि खनन कंपनियां देश को लूट रही है। लेकिन तब जब सीएजी ने यह बात कही थी तब शुरू हुआ हंगामा अब तक जारी है लेकिन अब सीएजी वही बात कह रही है तो किसी को कान देने की फुर्सत नहीं है। न मीडिया को, और न ही विपक्ष को। सब मुजफ्फरनगर की आग में हाथ सेंक रहे हैं।
2002 से 2012 के बीच की इस रिपोर्ट में हालांकि सीएजी ने विपक्षी दल भाजपा की एनडीए सरकार पर भी अंगुली उठाई है लेकिन कांग्रेस को भी इतनी फुर्सत कहां कि वह भाजपा को आइना दिखा सके। इस बीच भाजपा भी भूल ही गई है कि सीबीआई की फाइलें भी गायब हैं और गायब फाइलें मिल रही हैं उसमें से पन्ने के पन्ने गायब हैं।
कोलगेट कांड में राजनीतिक दलों की यह उदासी शायद इसलिए कि मुजफ्फरनगर कांड के कोलाहल के बीच आई सीएजी की रिपोर्ट पर किसी ने कान देने की जरूरत ही नहीं समझी। इसलिए इस रिपोर्ट की कही न कोई ठीक से खबर आई और न ही विपक्षी दलों ने मुद्दे के रूप में उठाया। राजनीतिक रूप से देखें तो विपक्ष के लिए यह एक शानदार और महत्वपूर्ण मौका था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को कोलगेट मामले में फटकार लगा रहा था और जनता के जेहन में कोलगेट की बात अभी भी बनी हुई है।
कभी छत्तीसगढ़, ओडिशा, कर्नाटक, झारखंड तो कभी उत्तर प्रदेश में काले सोने के काले धंधे का दाग किसी न किसी प्रदेश पर जरूर लगता है। मीडिया में शोर मचता है, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, पर होता कुछ नहीं। सैकड़ों करोड़ों रुपये के घपले की सत्यता परखने के लिए जांच बैठा दी जाती है। जांच की रिपोर्ट कब आती है, क्या कार्रवाई होती है, यह सब मीडिया के सुर्खियों में नहीं आ पाता है। कभी जांच पड़ताल में कोई मृत निकलता है तो फाइल गायब मिलती है। जानने वाले तो यह भी जानते हैं विभागीय जांच पड़ताल के दौरान घपले की फाइलों को दबा दी जाती है या उसमें हेर फेर कर हिसाब किताब सुधार लिया जाता है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, कोयले की लूट खसोट में हर दल शामिल रहा है। कैग की ताजा रिपोर्ट 2002 से 2012 तक की अवधि पर आधारित है। इस समय अवधि में केंद्र में एनडीए और यूपीए दोनों की सरकार रही। मतलब साफ है, कोयले की लूट में हर प्रमुख दल शामिल रहा। लिहाजा, कौन सा दल किसका गिरबान पकड़े, आसान स्थिति नहीं है। गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के जल संसाधन मंत्री जब लाइमस्टोन के अवैध खनन मामले में भीतर गए तो उनके साथ कांग्रेस के पूर्व सांसद भी थे।
जानकार लोग कहते हैं कि सत्ता के गलियारे में कोल परियोजनाओं से जुड़े माफियाओं का नेटवर्क इतना मजबूत है कि उनकी मनमर्जी चलती रहती है। जंगल क्षेत्रों में कोल खनन के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की भी हरी झंडी जरूरी है। कैग के नये रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खनन कार्य वन संरक्षण कानून के मुताबिक नहीं हो रहा है। कोल माफियाओं का नेटवर्क इतना प्रभावशाली है कि वे सत्ता के संरक्षण में ही ऐसे कानूनों को अपनी मनमर्जी के आगे बेवस बना देते हैं। केंद्र और प्रदेश सरकार इनके प्रभाव में होते हैं। किसी भी कंपनी को कोल खनन प्रदेश सरकार सहमति के बगैर नहीं मिलते हैं। लिहाजा, लूट के खेल में प्रदेश सरकारों की भूमिका को भी बाखूबी समझी जा सकती है। दामन में दांग होने के कारण ही कई बार केंद्र के निर्णय पर प्रदेश सरकार चुपचाप रहती है। 52 निजी कंपनियों के पट्टे बिना गिरानी रिपोर्ट के ही बढ़ा दिए गए। न कहीं खबर चली और नहीं ही कोई शोर-शराबा हुआ। आमतौर पर यह देखा गया है कि ऐसे निर्णय उसी दौरान लिए जाते हैं जब देश की जनता व मीडिया का ध्यान दूसरी खबरों में डूबा रहता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के दंगे में न केवल इंसानियत जली बल्कि उसके शोर-शराबे की आड़ में प्रकृति संसाधानों की लूट खसोड़ पर आधारित एक बड़ी रिपोर्ट गुम हो गई।