विधि आयोग और सरकार के खिलाफ कई प्रसिद्ध मुस्लिम संस्थाओं ने मोर्चे खोल दिए हैं। उनका कहना है कि मुसलमानों पर समान आचार संहिता थोपना इस्लाम का अपमान है, सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान हटाना चाहती है, वह देश में अराजकता फैलाना चाहती है, वह संघ का सांप्रदायिक एजेंडा पूरे देश पर थोपना चाहती है। मैं स्वयं मानता हूं कि निजी और पारिवारिक मामलों में कानून की जितनी दखलंदाजी कम से कम हो, उतना ही अच्छा लेकिन जब विवाद उत्पन्न होते हैं तो उन्हें कानून की शरण में जाना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में कानून आंख मींचकर नहीं बैठ सकता है। उसे हर मामले को इंसाफ के तराजू पर तोलना पड़ता है। देश और काल के मुताबिक फैसले करने पड़ते हैं।
मुस्लिम संस्थाओं का यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि समान आचार संहिता सिर्फ उन पर थोपी जा रही है। विधि आयोग ने जो 16 सवाल जारी किए हैं, वे विवाह, तलाक, संपत्ति के उत्तराधिकार आदि के बारे में हैं और वे हिंदुओं, ईसाइयों और सिखों- सभी से संबंधित हैं। वे सिर्फ सवाल हैं। वे जवाब नहीं हैं। वे विधि आयोग या सरकार की राय नहीं हैं। राय तो आम जनता से मांगी गई है। यही जाहिर करता है कि सरकार अपनी बात किसी पर थोपना नहीं चाहती। यदि देश के ज्यादातर मुसलमान कहेंगे कि उन्हें चार बीवियां रखना और मुंह से तीन बार कहने पर तलाक करना जायज है तो ठीक है। सरकार को क्या पड़ी है कि वह मुसलमानों को कीचड़ से निकाले और गालियां भी खाए। अब तो मुस्लिम बहनें इतनी पढ़ी-लिखी और दमदार हो गई हैं कि वे अपने गुस्ताख खाबिंदो को ठोक-पीटकर सीधा कर देंगी।
पता नहीं, भारत के मुसलमान इतने दब्बू क्यों हैं? अरबों की घिसी-पिटी परंपराओं को वे अपनी छाती पर क्यों लादे रहना चाहते हैं? भारत के मुसलमानों को दुनिया के सारे मुसलमानों का विश्व-गुरु बनना चाहिए। क्या उन्हें पता नहीं है कि पाकिस्तान, मिस्र, मोरक्को, सीरिया, जोर्डन, सूडान और बांग्लादेश जैसे करीब दर्जन भर मुस्लिम राष्ट्रों ने तथाकथित शरीयती कानून को खूंटी पर टांग दिया है? उसकी अव्यवहारिक बातों को नकार दिया है।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने भी उसका डटकर विरोध किया है। कोई भी कानून तब तक मान्य होना चाहिए, जब तक कि वह देश और काल के विरुद्ध नहीं हो, चाहे वह हिंदू कानून हो, इस्लामी कानून हो, ईसाई कानून हो या यहूदी कानून हो। कानून-कानून है, आध्यात्मिक सत्य नहीं। घिसे-पिटे और रद्दी मजहबी कानूनों के खिलाफ खुद मजहबी नेताओं को अगुवाई करनी चाहिए ताकि नई पीढ़ियां इन कानूनों की वजह से मजहब से ही दूर न हो जाएं।