दुनिया भर में खुद को स्वघोषित बुद्धिजीवी, तथाकथित रूप से प्रगतिशील और उदारवादी समझने वाले और वैसा कहलाने का शौक रखने वाले तमाम इंटेलेक्चुअल्स तथा मीडिया में बैठे धुरंधरों को लगातार एक के बाद एक झटके लगते जा रहे हैं, परन्तु उनकी बेशर्मी कहें या नादानी कहें वे लोग अभी भी अपनी स्वरचित आभासी मधुर दुनिया में न सिर्फ खोए हुए हैं, बल्कि उसी को पूरी दुनिया का प्रतिबिंब मानकर दूसरों को लगातार खारिज किए जा रहे हैं. वास्तव में हुआ यह है कि जिस प्रकार अफीम के नशे में व्यक्ति सारी दुनिया को पागल लेकिन स्वयं को खुदा समझता है, उसी प्रकार भारत सहित दुनिया भर में पसरा हुआ यह “बुद्धिजीवी और मीडियाई वर्ग” भी खुद को जमीन से चार इंच ऊपर समझता रहा है. इन कथित बुद्धिमानों को पता ही नहीं चल रहा है की दुनिया किस तरफ मुड़ चुकी है और ये लोग बिना स्टीयरिंग की गाडी लिए गर्त की दिशा में चले जा रहे हैं. वास्तव में इस “कथित प्रबुद्ध वर्ग” की सोच और मानसिक ढाँचे पर पहला सर्जिकल स्ट्राईक तो भारत की जनता ने 16 मई 2014 को ही कर दिया था, जब मीडियाई मुगलों और बौद्धिक कंगालों को धता बताते हुए दुनिया के सबसे बड़े, उदार और समझदार लोकतंत्र ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुन लिया था. पिछले ढाई वर्ष में मीडिया और बुद्धिजीवियों का यह वर्ग भारत में अब तक सदमे में है. उसकी अवस्था ऐसी हो गई है मानो कोई राह चलते कोई उन्हें तमाचा जड़ गया हो, वे समझ नहीं पा रहे हों कि आखिर यह तमाचा पड़ा तो क्यों पड़ा? नरेंद्र मोदी नामक शख्सियत से लगातार घृणा, असहमति और भेदभाव की इस भावना तथा स्वयं के श्रेष्ठ बुद्धिमान होने के अहंकार एवं झूठे स्वप्नदोष के कारण उनके दिलो-दिमाग में यह बात गहरे तक पैठ गई है कि हम तो कभी गलत हो ही नहीं सकते… तो आखिर नरेंद्र मोदी जीते तो जीते कैसे? नहीं… हम नहीं मानते… ना जी, हम दिल से उन्हें अपना प्रधानमंत्री नहीं मानते. यही सब कुछ अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद हो रहा है.
असल में एक शब्द है “राष्ट्रवाद” अर्थात ऐसी विचारधारा जिसके लिए “राष्ट्र प्रथम” है, बाकी सब कुछ गौण है, पीछे है. भारत के अंग्रेजीदां लोग इसी को “नेशन फर्स्ट” कहते जरूर हैं, लेकिन हिकारत भरी जुबान और खुरदुरे दिल से. बुद्धिजीवियों और मीडिया में बैठे तथाकथित प्रगतिशीलों एवं उदारवादियों के लिए “राष्ट्रवाद” नाम का शब्द या तो मखौल उड़ाने के लिए होता है, अथवा घृणास्पद होता है. क्योंकि ऐसे लोगों की पश्चिमी और कान्वेंटी समझ उन्हें अपने वैचारिक कुँए से बाहर आने ही नहीं देती. ये लोग अपने ही समविचारी गिरोह के लोगों को स्टूडियो और अखबारों के प्रमुख कॉलमों में स्थान देकर एक-दुसरे की बात पर ताली बजाया करते हैं. ऐसा ही इन्होने नरेंद्र मोदी के समय 2002 से लेकर 2014 तक लगातार किया और इसी वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय गिरोह ने डोनाल्ड ट्रंप को लेकर अमेरिका में किया… बीच में इसी “बौद्धिक”(??) वर्ग ने ब्रिटेन के यूरोप से अलग होने के लिए की जाने वाली वोटिंग (अर्थात ब्रेक्जिट) के समय भी अपनी “कालबाह्य सोच” को लगातार विश्व पर थोपे रखा. ब्रिटेन और यूरोप पर मंडराते इस्लामी खतरे को यह मीडियाई वर्ग कतई नहीं समझ सका, क्योंकि इनकी सोच में “राष्ट्रवाद” कहीं आता ही नहीं. परन्तु ब्रिटेन की जनता ने इस बुद्धिजीवी एवं प्रगतिशील गिरोह के मुंह पर लगातार दूसरा तमाचा जड़ दिया और अंततः ब्रिटेन की जनता ने बहुमत से इस्लामी काली छाया और शरणार्थियों के आर्थिक बोझ तले चरमराने की शुरुआत वाले यूरोप से अलग होने का फैसला कर लिया. यह “वैश्विक राष्ट्रवाद” की लहर की दूसरी बड़ी जीत थी और कथित उदारवादियों एवं मीडियाई मुगलों की मुसीबत का दूसरा चरण. हाल ही में अमेरिका में भी राष्ट्रपति के चुनाव संपन्न हुए. लगातार दो बार झटके खा चुके और जनता के मतदान में अपना हाथ-मुँह जला चुके मीडियाई/बुद्धिजीवी वर्ग को फिर से अपनी नकली समझदारी दिखाने का सुनहरा मौका दिखाई दिया. इस वर्ग ने अमेरिका की जमीनी स्थिति, वहां के मतदाताओं के मनोमस्तिष्क तथा वास्तविक समस्याओं को पूरी तरह नज़रंदाज़ करते हुए ओबामा की उत्तराधिकारी के रूप में हिलेरी क्लिंटन को परिणामों से पहले ही “अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति” तक घोषित कर दिया था. इन्हें ऐसा लगता था मानो चुनाव परिणाम केवल औपचारिकता भर हैं. भारत से भी बरखा दत्त समेत कई “पत्तलकार” अमेरिका चुनाव का कवरेज करने वहाँ गए थे. वास्तव में ये लोग निष्पक्ष पत्रकार की हैसियत से “कवरेज” करने नहीं गए थे, अपितु विश्व की तमाम दूसरी मीडियाई शख्सियतों के साथ मिलकर हिलेरी के पक्ष में चुनाव प्रचार करने गए थे. अमेरिका की एक प्रसिद्ध पत्रिका ने तो हिलेरी क्लिंटन के आमुख कवर वाली दस लाख पत्रिकाएँ भी छपवाकर रख ली थीं, ताकि परिणामों के तत्काल बाद उसे मार्केट में उतारा जा सके. लेकिन हा दुर्भाग्य!!! हाय रे फूटी किस्मत!!! दुनिया भर के बुद्धिजीवी और जमाने भर का मीडिया जिस व्यक्ति अर्थात डोनाल्ड ट्रंप को पागल, सनकी, हिटलर, स्त्री-विरोधी, मुस्लिमों का संहारक इत्यादि चित्रित करता रहा उसने बड़े आराम से चुनाव जीतकर इन सभी बुद्धिजीवियों के मुँह पर दो वर्ष के भीतर “तीसरा राष्ट्रवादी तमाचा” जड़ दिया.
पिछले तीन वर्ष के दौरान भारत में जिस तरह से नरेंद्र मोदी के उभार और सीरिया-ईराक में आतंकी मुस्लिम संगठन आईसिस के घृणित कारनामों की वजह से समूचे विश्व में “राष्ट्रवाद” की लहर पैदा हुई है और लगातार बढ़ती जा रही है, उसे समझने में तथाकथित प्रगतिशील तबका पूरी तरह विफल रहा है. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि दुनिया अब इनके पक्षपाती रवैये तथा दोमुंही बातों एवं कथनों से न सिर्फ ऊब चुकी है, बल्कि इन्हें लगभग खारिज भी कर चुकी है. विश्व के अलग-अलग भागों (भारत, ब्रिटेन और अमेरिका) में लगातार तीन-तीन बड़ी मात खाने के बावजूद “राष्ट्रवाद” की अवधारणा को समझने ये लोग नाकाम रहे हैं. यह विषय इन्हें आज भी मजाक उड़ाने अथवा खुद की सड़ी हुई वैचारिक श्रेष्ठता को दर्शाने का अवसर प्रतीत होता है, जबकि विश्व भर में राष्ट्रवाद की लहर ही नहीं, तूफ़ान चल रहा है और इधर यह वर्ग शतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर गड़ाए इस नए वैचारिक आन्दोलन की तरफ अपना पिछवाड़ा किए हुए है. डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने इस वर्ग की चूलें हिला दी हैं. जिस ट्रंप को ये लोग लगातार नस्लवादी, बददिमाग और हिटलर वगैरह कहते रहे, वह आज अमेरिका का राष्ट्रपति है और अगले चार वर्ष (या शायद आठ वर्ष) उन्हीं के साथ बिताना है, चाहे अच्छा लगे या बुरा, यही स्थिति भारत में नरेंद्र मोदी की भी है. संभवतः 2024 तक तो कथित बुद्धिजीवियों और नकली प्रगतिशीलों को नरेंद्र मोदी की सत्ता के साए तले जीना होगा. इन्हें यह चिंता खाए जा रही है कि आखिर हमारे अनुमान बारम्बार गलत क्यों सिद्ध हो रहे हैं? दुनिया राष्ट्रवाद की तरफ क्यों बढ़ रही है? हमारी बातें और “भीषण कुप्रचार” भी जनता को प्रभावित क्यों नहीं कर पा रहा है? यह सोच-सोचकर इन बुद्धिजीवियों के दिमाग का दही बनता जा रहा है. भारत में नरेंद्र मोदी ने नारा दिया था, “अबकी बार मोदी सरकार”. इसी की नकल करते हुए भारतीय समुदाय को लुभाने के लिए ब्रिटेन के चुनावों में भी डेविड कैमरन ने नारा दिया था “अबकी बार, कैमरन सरकार” और वे भी जीते. नरेंद्र मोदी की खिल्ली उड़ाने वाले गिरोह ने इस नारे की भी खिल्ली उडाई, लेकिन अमेरिका के हालिया चुनावों में जब डोनाल्ड ट्रंप के बेटे हिन्दू मंदिरों में आशीर्वाद ग्रहण करने गए और एक छोटी ही सही, लेकिन काफी प्रभावी शक्ति अर्थात भारतीय समुदाय में नरेंद्र मोदी की चमकदार छवि के मद्देनज़र जब डोनाल्ड ट्रंप ने भी “अबकी बार, ट्रंप सरकार” का नारा दिया, उस समय भी इस वैचारिक कंगाल गिरोह ने उनकी भी जमकर खिल्ली उड़ाई, लेकिन जब ट्रंप भी जीत गए तो इनकी बोलती बंद हो गई.
इस समय अमेरिका की जो वित्तीय हालत है उसे देखते हुए ट्रंप की यह जीत बिलकुल उसके मनमाफिक है, यही कुछ नरेंद्र मोदी के समय भी हुआ था, जब भारत की जनता मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की सरकार के भीषण भ्रष्टाचार एवं कुशासन से त्रस्त होकर एक नया ईमानदार एवं स्पष्ट वक्ता नेता खोज रही थी. उसी प्रकार आठ वर्ष के ओबामा प्रशासन के दौरान अमेरिका में बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी, चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था इत्यादि ने अमेरिकी जनता को निराश कर दिया था. इन सारी समस्याओं के अतिरिक्त एक बात और थी जिससे आम अमेरिकी नागरिक चिढ़ा हुआ था, और वह थी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की घटती साख. जिसे हम भारत में “दबंगई” कहते हैं, वही मनोभाव अमेरिकी जनता में वैश्विक स्तर पर भी है की “हम अमेरिकी सर्वश्रेष्ठ हैं, हमसे कोई मुकाबला नहीं कर सकता, हम से कोई लड़ नहीं सकता… इत्यादि”. इस “साख” को ओबामा के शासनकाल में खासी चोट पहुँची थी. चीन ने जिस तरह अमेरिका को दो-तीन बार सम्पूर्ण विश्व के सामने शर्मसार किया और उसकी औकात दिखाई, उससे अमेरिकी “स्वाभिमान” को ठेस लगी, सीरिया में जिस तरह रूस ने अमेरिका की बातों पर कान नहीं दिया, उसने भी अमरीकियों को सोचने पर मजबूर किया, यही बात ट्रंप की जीत में मददगार साबित हुई, क्योंकि ट्रम्प का नारा था “लेट्स बिल्ड न्यू अमेरिका” (अर्थात आओ एक नया अमेरिका का निर्माण करें). जिस तरह से मैक्सिको से शरणार्थियों का बोझ अमेरिका पर बढ़ता जा रहा था और मैक्सिको के लोगों द्वारा अमेरिकी समाज के अन्दर अपराधों को बढ़ावा दिया जा रहा था, उसने सामान्य अमेरिकी को क्रोधित और निराश कर रखा था. ब्रिटेन में “ब्रेग्जिट” का नतीजों ने अमेरिकी जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला. अमेरिकी नागरिकों को यह लगने लगा कि जिस प्रकार यूरोप में इस्लामिक शरणार्थी उनके संसाधनों पर बोझ बनते जा रहे हैं, नौकरियाँ हथिया रहे हैं, अपराध बढ़ा रहे हैं, वैसा ही हमारे यहाँ मैक्सिको के लाखों लोग कर रहे हैं, इन्हें यहाँ से हटाना अथवा दबाना बेहद जरूरी है, वर्ना अमेरिका का भविष्य खतरे में है. इसी बात को डोनाल्ड ट्रंप ने समय पर लपक लिया. जमीनी सच्चाई से दूर जिस कथित बुद्धिजीवी वर्ग ने डोनाल्ड ट्रंप के मुद्दों को “असंवेदनशीलता” और “हिटलरशाही” अथवा “पागलपन” कहते हुए अपने दिन गुज़ारे उन्हें पता ही नहीं था कि अमेरिकी जनता क्या सोच रही है. अमेरिकी समाज अन्दर ही अन्दर कैसा खदबदा रहा है. जिस मार्जिन से डोनाल्ड ट्रंप जीते हैं, वह इस बात को साबित करता है कि ट्रंप अमेरिकी लोगों की नब्ज को अच्छी तरह से पकड़ते हैं, जानते-समझते हैं. जहां तक डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की राजनीति और प्रचार अभियान का सवाल है, यह आराम से कहा जा सकता है कि हिलेरी कभी भी “जमीनी अमेरिका” के साथ नहीं थीं, और इस बात को अमेरिकी जनता ने अच्छी तरह समझ लिया था.
अमेरिकी परिणामों ने ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षणों को गलत साबित कर दिया. 19 में से केवल दो अंतिम सर्वेक्षणों में डोनाल्ड ट्रंप को हिलेरी क्लिंटन से आगे बताया गया था. चुनाव से दो दिनों पहले सभी बड़े चुनाव सर्वेक्षणों पर नजर रखने वाली “रियल क्लियर पॉलिटिक्स” ने हिलेरी की औसत बढ़त को घटाया जरुर था लेकिन कहा था कि अभी भी ट्रंप पर उनकी 1.6 प्रतिशत की बढ़त है. न्यूयॉर्क टाइम्स ने नेट सिल्वर के पोल्स ओनली मॉडल से बताया कि हिलेरी के जीतने की संभावना 67.8 फीसद है. हफिंगटन पोस्ट तो ट्रंप से घृणा करने के मामले इतना आगे निकल गया की उसने हिलेरी की जीत की संभावना 97.9 फीसद बता डाली. भारत से भी बरखा दत्त ट्वीट पर ट्वीट मारे जा रहीं थी की हम एक इतिहास बनता हुआ देखने आए हैं, अमेरिका को पहली महिला राष्ट्रपति मिलने जा रही है आदि-आदि. ज़ाहिर है कि ये लोग अमेरिकी जनता से पूरी तरह कटे हुए थे. हिलेरी की पराजय एवं ट्रंप की विजय का अर्थ है कि अमेरिकी जनमानस में “व्यापक परिवर्तन” आ चुका है. स्वयं को विवेकशील मानने वाले ज्यादातर लोग मानते थे कि अमेरिका के लोग इतने समझदार हैं कि वे एक “अतिवादी” और नस्ली सोच रखने वाले डोनाल्ड ट्रंप को देश का सर्वोच्च पद और सेना का सर्वोच्च कमान नहीं दे सकते, ऐसा ही कुछ इन लोगों ने मई 2014 में भी भारत के बारे में कहा था. इन सब “कथित बुद्धिजीवियों” की सोच और अनुमान गलत साबित हुए हैं.
वास्तव में देखा जाए तो हिलेरी क्लिंटन की पराजय एवं ट्रंप की विजय कोई सामान्य घटना नहीं है. कुछ लोग इसे इस दृष्टि से देखेंगे कि 1789 से शुरू हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के 227 वर्ष के इतिहास में पहली बार किसी पार्टी की प्रत्याशी बनी महिला सर्वोच्च पद पर पहुंचने से चूक गई, जबकि अमेरिका ने बराक ओबामा के रुप में एक “अश्वेत” को पहली बार राष्ट्रपति बनाकर इतिहास रचा था. अब उसके सामने एक महिला को निर्वाचित कर इतिहास बनाने का अवसर था. लेकिन अमेरिकी मतदाताओं का बहुमत दूसरी दिशा में ही सोच रहा था. इसीलिए जैसे-जैसे सर्वेक्षण एजेंसियां हिलेरी को आगे बताने लगीं अमेरिकी मतदाताओं का बड़ा वर्ग आक्रामक हो गया. जिस तरह से आरंभ में ही लोगों ने मतदान का रिकॉर्ड तोड़ा उससे साफ था कि अमेरिका नया करवट लेने वाला है, जो कईयों को हैरान कर देगा. मैं जानता हूँ कि पाठकों को यह सब भारत के चुनावों का “री-प्ले” जैसा लग रहा होगा, यहाँ भी यही खेल खेला गया था, लेकिन जैसे-जैसे कथित चुनाव “विश्लेषक”(??) नरेंद्र मोदी को बहुमत से पिछड़ता हुआ दिखाते थे, मोदी के खिलाफ आग उगलते थे, मोदी को बदनाम करने की कोशिश करते थे… भारत का जनमानस उतनी ही तेजी से मोदी के साथ आता जा रहा था. अमेरिका में भी ट्रंप को लेकर जनमानस के बीच भय पैदा करने की कोशिश की गई.
दोनों उम्मीदवारों के बीच हुई तीनों बहस में “विचारकों”(??) द्वारा यह माना गया कि ट्रंप पराजित हो गए हैं. लेकिन यह निष्कर्ष सही नहीं था. भले ही ट्रंप की बातों से थोड़ी अशालीनता की बू आती थी. मसलन, उन्होंने हिलेरी पर निजी हमले तक किए. उनके विदेश मंत्री रहते समय निजी ईमेल का प्रश्न उठाकर कह दिया कि अगर वे राष्ट्रपति बने तो उनकी जगह जेल में होगी. अंततः हिलेरी को रक्षात्मक होना ही पड़ा. ऐसा नहीं था कि हिलेरी खेमे ने ट्रंप के खिलाफ महिला मुद्दों को प्रमुखता देने की कोशिश नहीं की. 40 महिलाएँ खोजकर लाई गईं जिन्होंने ट्रंप के चरित्र पर प्रश्न उठा दिया. इसे उनके खिलाफ मुद्दा बनाया गया. ट्रम्प के महिलाओं के खिलाफ सेक्सी कमेंट्स, महिलाओं से उनके रिश्ते और उनका बर्ताव मुद्दा बन गया था. महिलाओं को लुभाने के लिए हिलेरी का खास अभियान… “वुमन टू वुमन फोन बैंक” जैसे अभियान चलाए गए. अमेरिका में कुल 21 करोड़ 89 लाख 59 हजार मतदाता हैं. इसमें 14 करोड़ 63 लाख 11 हजार लोग रजिस्टर्ड हैं. रजिस्टर्ड मतदाताओं में 69.1 प्रतिशत पुरुष और 72.8 प्रतिशत महिलाएं हैं, यानी महिलाओं की संख्या ज्यादा है. वो किसी का समर्थन कर दें उसका जीतना निश्चित माना जाता है. स्वाभाविक है कि हिलेरी महिलाओं के खिलाफ ट्रंप की टिप्पणियों को अपने पक्ष में भुनाने में सफल नहीं रहीं. किंतु डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में दो बातें प्रमुखता से छा गईं – आतंकवाद के खिलाफ खरी-खरी और स्पष्ट बात करना तथा अमेरिकियों के अंदर “महाशक्ति राष्ट्रवाद” का भाव पैदा करना. उन्होंने अमेरिकियों के दिल में नए सिरे से अमेरिकी राष्ट्रवाद का एक श्रेष्ठता बोध पैदा किया,जिसमें अमेरिका को फिर से दुनिया का ऐसा महान राष्ट्र बनाने का वायदा था जो वास्तविक महाशक्ति होगा, तथा दुनिया के देश जिसकी इज्जत करेंगे और टकराने अथवा विरोध करने की हिम्मत नहीं करेंगे. महाशक्ति की गिरती महिमा के बीच इस “राष्ट्रवादी भावना” ने अमेरिकियों के एक बड़े वर्ग को प्रभावित किया. इस समय जेहादी आतंकवाद ने जिस तरह दुनिया भर में भय पैदा किया हुआ है उससे अमेरिका भी अछूता नहीं है. कड़ी सुरक्षा के बावजूद वहां भी आए दिन कुछ न कुछ छिटपुट घटनाएँ हो ही रही हैं.
इराक से लेकर अफगानिस्तान में अमेरिकियों को आतंकवाद की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. इस स्थिति में ट्रंप ने अभी तक के सभी अमेरिकी नेताओं से भिन्न अपना विशेष मत व्यक्त किया. जब वे रिपब्लिकन उम्मीदवार के रुप में जनता के सामने आए, और मुसलमानों के खिलाफ बोलना आरंभ किया तो शुरुआत में लोगों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. आतंकवाद की चर्चा करते हुए अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने की बात की, तो लगा कि कोई फासिस्ट ताकत अमेरिका में उभार ले रही है, जिसे उसकी पार्टी ही अंदरूनी रूप से पराजित कर देगी. तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग वाले लोग ऐसा सोचते रहे, और उधर वो लगातार ऐसे बयान देकर ग्रामीण और रूढ़िवादी अमेरिकी मन में समर्थन पाते रहे. ट्रंप का रिपब्लिकन उम्मीदवार बन जाना ही “बदले हुए अमेरिका” का प्रतीक था. वही बदला हुआ अमेरिका परिणाम के रुप में भी दिखा. यह सामान्य बात नहीं है कि, ट्रंप के आक्रामक राष्ट्रवाद और स्थानीयों को नौकरी में प्राथमिकता के बावजूद अमेरिकी भारतीयों के बड़े समूह ने ट्रंप के पक्ष में मतदान किया है. हालांकि चुनाव परिणाम के पीछे कुछ विश्लेषक आर्थिक मुद्दों को भी महत्वपूर्ण मान रहे हैं. आर्थिक मुद्दे अमेरिकी चुनाव में हमेशा भूमिका निभाते हैं. यहां भी ट्रंप ने अमेरिका के लिए एक नए “आर्थिक राष्ट्रवाद” की उग्र वकालत की. मसलन, उन्होंने महाशक्ति अमेरिका को कमजोर करने के लिए ओबामा सरकार को जिम्मेवार ठहराया. उन्होंने कहा कि जब भारत जैसा देश 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर सकता है, तो फिर अमेरिका क्यों नहीं कर सकता. उन्होंने आईबीएम जैसी कंपनियों को धमकी भी दी, कि उसने अपना काम भारत में ज्यादा स्थानांतरित कर दिया है, इसलिए अगर वो राष्ट्रपति बने तो उस पर भारी कर जुर्माना लगाएंगे. यह बात वहां के बेरोजगार या रोजगार तलाशते युवाओं के लिए आकर्षक साबित हुई. अमेरिका इस समय दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्सा पढ़े-लिखे, उदारवादी और सेक्युलर लोगों का है, तो दूसरा हिस्सा रूढ़िवादी, धार्मिक, श्रम वर्ग और शहर से दूर ग्रामीण क्षेत्रों में कम पढ़े-लिखे लोगों का है. दूसरे हिस्से की तादाद वहां ज्यादा है. रिपब्लिकन पार्टी ने इन्हीं के बीच अपने चुनाव प्रचार के जरिये अमेरिका को दोबारा से एक ‘ग्रेट नेशन’ बनाने का आंदोलन चलाया था और कहा कि दुनिया में ‘अमेरिका फर्स्ट’ होगा. इस आंदोलन का तमाम रूढ़िवादियों, धार्मिकों, श्रम वर्गों और कम पढ़े-लिखे अमेरिकियों ने समर्थन किया था, जिसे तथाकथित उच्च वर्गीय “क्लब छाप” बुद्धिजीवी समझ ही नहीं पाए. ट्रंप का यह चुनाव प्रचार कामयाब रहा और वे जीत की तरफ बढ़े. अमेरिकी लोगों को यह यकीन हो चला था कि वहां नौकरियाँ आएँगी. “बाहरी” (यानी मैक्सिकन) लोगों को निकाला जायेगा, विकास और वैश्विक व्यापार का नया आयाम स्थापित होगा, सड़कें और पुल बनेंगे, स्वास्थ्य सेवा में सुधार होगा, “ओबामा केयर” जैसी खर्चीली योजना को खारिज करके नई स्वास्थ्य बीमा योजना आएगी. ‘ग्रेट नेशन’ बनाने के लिए ये सारे वादे ट्रंप ने किये हैं. अमेरिका को ‘ग्रेट नेशन’ बनाने का ट्रंप का यही सपना अमेरिका के लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि ट्रंप के वायदे बड़े हैं और अब उन्हें पूरा करके दिखाना होगा. यही बात नरेंद्र मोदी पर लागू होती है कि जनता की उम्मीदें बहुत बड़ी हैं और समय कम है. अब तो यह समय ही बतायेगा, कि ये दोनों इसमें कितना सफल होते हैं. लेकिन “राष्ट्रवाद” और “नेशन फर्स्ट” की मनोभावना को दोनों ने पूरे विश्व में एक विशेष स्थान दिलवा दिया है.
थोड़ी देर के लिए कहा जा सकता है कि ट्रंप की विजय ने हमें एक ऐसे अमेरिका का अहसास कराया है, जिससे किंचित भय एवं आशंका पैदा होती है, परन्तु ट्रंप की नीतियों के बारे में कोई भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी होगी. हालांकि उन्होंने अपने पहले भाषण में कहा है कि मैं सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति होउंगा और “सबका साथ सबका विकास” करके हम अपने महान देश को और महान बनाएंगे. किंतु इसके लिए अभी हमें थोड़ा इंतजार करना होगा. ट्रंप ने सबसे पहले यूरोप के साथ अच्छे संबंध रखने की बात की है. उनका मानना है कि रक्षा मामलों में उसे यूरोप का काफी सहयोग जरूरी है, यह काम अमेरिका अकेले नहीं कर सकता. दोनों में काफी मतभेदों के साथ यह एक बड़ा बदलाव है अमेरिका की विदेश नीति में. दूसरी तरफ मध्य-पूर्व (मिडिल इस्ट) के लिए जो अमेरिकी नीति है, उससे मध्य-पूर्व में तनाव बढ़ सकता है, क्योंकि उस नीति के तहत सेना के जरिये ही मसलों को हल करने के बारे में अमेरिका सोच रहा है. मिडिल इस्ट, सऊदी अरब और गल्फ के देश चाहते हैं कि उनके ऊपर से अमेरिकी निर्भरता कम हो, इसे लेकर भी अमेरिका को पुनर्विचार की जरूरत होगी. मेरे ख्याल में अमेरिका का यह सत्ता परिवर्तन अपनी नीतियों में थोड़ी सख्ती रखेगा, जैसा कि जॉर्ज बुश ने किया था. स्वाभाविक है कि दुनिया के लिए अमेरिकी सत्ता का परिवर्तन कुछ नया लेकर जरूर आयेगा, लेकिन उसका स्वरूप क्या होगा, यह देखनेवाली बात होगी.
जहां तक ट्रंप की जीत का भारत के लिए मायने का सवाल है, तो अमेरिका कभी भी भारत को अनदेखा नहीं कर सकता, क्योंकि भारत एक बहुत बड़ा “मध्यमवर्गीय मार्केट” है. भारत में काफी तादाद में अंगरेजी बोलनेवाले, कंप्यूटर का इस्तेमाल करनेवाले लोग हैं और तकनीकी रूप से बहुत सक्षम हैं. भारत में सस्ता श्रम उपलब्ध है, इन सबका फायदा अमेरिका उठाता रहा है और आगे भी उठायेगा क्योंकि जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि अमेरिका एक विशुद्ध व्यापारी देश है, वह भारत को नाराज करने का खतरा मोल नहीं ले सकता. भारत और अमेरिका दोनों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है. दोनों के बीच फिलहाल सौ बिलियन डॉलर का व्यापार है, जो आगामी वर्षों में पांच सौ बिलियन डॉलर होने की संभावना है. अमेरिका के अंदर जितने भी भारतीय हैं, वे सभी बहुत अच्छे काम कर रहे हैं, नौकरियों का सृजन कर रहे हैं और अच्छे-अच्छे पदों पर हैं. अमेरिका के आइटी सेक्टर में भारतीयों का बहुत बड़ा योगदान है. इन सबके चलते अमेरिका कभी भी भारत के साथ संबंधों को खराब नहीं होने देना चाहेगा. हालांकि, ट्रंप यह कह रहे हैं कि आइटी सेक्टर में अमेरिकी लोगों के लिए नौकरियों का सृजन करेंगे, लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि अमेरिका में श्रम महंगा है. इस क्षेत्र में भारत का मुकाबला करना अमेरिका के लिए फिलहाल संभव नहीं लगता. मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन वहीं काम करते हैं, जहां फायदा होता है. अमेरिका में किसी चीज को बनाने में अगर दस डॉलर खर्च आता है, तो उसी चीज को दूसरे देशों में छह-आठ डॉलर में बनाया जा सकता है. डोनाल्ड ट्रंप का “आर्थिक राष्ट्रवाद” इन छोटी-मोटी कठिनाईयों के साथ भी भारत के साथ अच्छा संबंध बनाए रखेगा. ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान आउटसोर्सिंग और बाहरी लोगों की नौकरी के मुद्दे पर काफी जोर देते हुए भारत विरोधी बयान भी दिया था. आईटी सेक्टर की अमरीकी नौकरियों का बड़ा हिस्सा पहले ही भारतीयों के कब्जे में है. भारत का ज्यादातर आईटी निर्यात अमरीका को ही होता है. ऐसे में यदि ट्रंप का बयान सिर्फ चुनावी जुमला ना होकर, किसी नीतिगत कदम में तब्दील हुआ तो इन सेक्टरों की नौकरियों पर असर देखने को मिल सकता है. इन कदमों को उठाने के लिए उन पर स्थानीय कर्मचारी यूनियनों का भी दबाव रहेगा. इन आशंकाओं के चलते एक्सपर्ट्स ट्रंप की तुलना में हिलेरी को भारत के लिए बेहतर मान रहे थे. परन्तु मेरा अनुमान यह है कि डोनाल्ड ट्रंप स्वयं एक सफल व्यापारी रहे हैं, व्यापार उनके खून में है. इसलिए भारत के आईटी पेशेवरों को नाराज करके अथवा अमेरिका में महंगे श्रम को प्राथमिकता देकर वे अमेरिका का नुक्सान नहीं करना चाहेंगे. हाँ, अलबत्ता भारत के फार्मा सेक्टर पर ट्रंप की नीतियों का क्या असर पड़ेगा यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि डेमोक्रेटिक ओबामा की “बदनाम हेल्थकेयर पॉलिसी” के चलते सन फार्मा, ल्यूपिन समेत तमाम भारतीय फार्मा कंपनियों के लिए अमरीकी बाजार में अच्छी संभावनाएं बनी थीं. ट्रंप पहले ही इस पॉलिसी की समीक्षा की बात कह चुके हैं. ऐसे में USFDA से दवाओं को मंजूरी मिलने में समस्या आ सकती है, साथ ही विदेशी फार्मा कंपनियों पर ट्रंप सख्ती बरतते हैं तो राजस्व और फार्मा नौकरियों के मामले में भारत पर इसका बड़ा असर देखने को मिलेगा. हिलेरी क्लिंटन की “इन्वेस्टर-फ्रेंडली इमेज” के चलते दुनियाभर में उनकी जीत के लिए दुआएं की जा रही थीं. लेकिन तमाम अटकलों के बावजूद ट्रंप को अचानक मिली जीत का दुनियाभर के बाजारों पर नकारात्मक असर पड़ा है. वैश्विक अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ इसे दूरगामी समय के लिए इसे ब्रेक्जिट से भी ज्यादा खतरनाक मान रहे हैं. ट्रंप की जीत के संकेत मिलते ही डॉलर में येन और यूरो के मुकाबले गिरावट शुरू हो गई थी, परन्तु यह तात्कालिक भी हो सकता है. अभी हमें डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण, उनके मंत्रिमंडल और नीतियों की घोषणा का इंतज़ार करना चाहिए.
अमेरिका के लिए भारत इसलिए भी बहुत मायने रखता है, क्योंकि चीन को लेकर अमेरिका के काफी मतभेद हैं. पाकिस्तान की नीतियां जैसी हैं, उसके चलते भी अमेरिका को भारत की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि पाकिस्तान इस समय ग्वादर बंदरगाह और व्यापारिक कॉरीडोर के कारण पूरी तरह से चीन के साथ है. मैं समझता हूं कि आनेवाले समय में पाकिस्तान के ऊपर और भी दबाव बढ़ जायेगा कि वह अमेरिका या चीन में से किसी एक को अपना “मालिक” चुने. चूंकि अमेरिका ने ही पाकिस्तान को भीख देकर मजबूत बनाने की कोशिश की है, और अमेरिकी बैसाखियों पर ही पाकिस्तान अब तक जिंदा रहा है. साथ ही पाकिस्तान के सारे हथियार अमेरिका ने ही पाकिस्तान को दिए हुए हैं. अमेरिका की जो लड़ाई सीरिया और ईराक में कट्टरपंथी इस्लाम के साथ है, वह अपनी जगह पर है, लेकिन फिर भी अमेरिका चाहेगा कि दक्षिण एशिया में भारत के सिर पर एक लटकती हुई तलवार के रूप में पाकिस्तान का उपयोग बीच-बीच में किया जाता रहे. अतः अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भी बने, भारत में इस बात को लेकर ना तो दुखी होने की जरूरत है कि ट्रंप आ गये, तो अब क्या होगा… ना ही इतना खुश होने की जरूरत थी कि हिलेरी आ जातीं तो भारत स्वर्ग बन जाता. अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और वह अपनी सैन्य ताकत और उससे उत्पन्न होने वाले “रोज़गार” पर चलता है. दुनिया वाले कुछ भी सोचते रहें, अमरीकी जनता के मन में यह अवधारणा बहुत गहरे तक पैठ किए हुए है, कि पूरी दुनिया में अमेरिका ही अव्वल देश है और दुनिया का कोई भी देश अमेरिका का मुकाबला नहीं कर सकता. अपने फायदे के लिए अमेरिका कुछ भी करेगा, और उसकी यह नीति ट्रम्प के कारण नहीं है, बल्कि चार सौ वर्ष पुरानी है.
डोनाल्ड ट्रंप की जीत से दुनियाभर के शेयर बाजारों में जबर्दस्त उतार-चढ़ाव देखने को मिला है. जो कि एक स्वाभाविक घटनाक्रम है. अब आगे यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि ओबामा और बुश की तुलना में ट्रंप भारत के लिए कितने फायदेमंद साबित होंगे. उनके चुनावी भाषणों और बयानों के विश्लेषण के आधार पर विशेषज्ञ इंडो-यूएस ट्रेड के लिए बड़े झटके की आशंका जता रहे हैं. यदि आईटी क्षेत्र को छोड़ दें तो खासतौर से भारतीय फार्मा, और आईटीएस इंडस्ट्री पर ट्रंप की नीतियों का व्यापक असर हो सकता है. उल्लेखनीय बात यह है कि द्विपक्षीय व्यापार में आयात-निर्यात के मामले में फिलहाल भारत फायदे में है, जिसे ट्रम्प बदलना चाहेंगे. भारत-अमरीका के बीच करीब 4 लाख 29 हजार करोड़ से ज्यादा का द्विपक्षीय व्यापार है। इसमें से भारत करीब 2 लाख 83 हजार करोड़ रुपए का निर्यात, और एक लाख 46 हजार करोड़ रुपए का ही आयात करता है. ज़ाहिर है यह द्विपक्षीय व्यापार हमेशा से भारत के लिए फायदेमंद रहा है, लेकिन रिपब्लिकन नेताओं की “राष्ट्रवादी नीतियों” के अनुसार आयात घटाने पर उनका हमेशा से विशेष फोकस रहा है. तो कुछेक मामलों में ट्रंप की जीत द्विपक्षीय व्यापार में भारत के लिए हानिकारक भी हो सकती है. भारत अमरीका से सोना, एयरक्राफ्ट्स, मशीनरी, इलेक्ट्रिकल, ऑप्टिक्स, मेडिकल इंस्ट्रुमेंट्स आदि आयात करता है. जबकि अमरीका भारत से टेक्सटाइल, ऑर्गेनिक केमिकल, मिनरल फ्यूल, फार्मा प्रोडक्ट्स, मसाले, ट्री नट्स, वेज ऑयल और सॉफ्टवेयर खरीदता है.
हालांकि रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने डोनाल्ड ट्रंप के बारे में बहुत सी अच्छी और सकारात्मक बातें कही हैं, लेकिन पुतिन जिस रूस का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस रूस से “बुनियादी टकराव” अगर किसी के साथ है, तो वह अमेरिका ही है. परस्पर सहृदयता दिखाते हुए ट्रंप ने भी रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की एक मजबूत नेता के रूप में कई बार तारीफ़ की है और ख़ुफ़िया सूत्रों से मिली उन चेतावनियों को उन्होंने नजरंदाज कर दिया, जिसके अनुसार अमेरिका और पश्चिमी देशों में बड़े पैमाने पर होनेवाली साइबर-हैकिंग के पीछे रूस और चीन ही हैं. रूस ने जब यूक्रेन पर हमला किया था, उस समय भी ट्रंप ने खुद को रूस की आलोचना करने से बचा लिया था. अतः इस मामले में भी अब नया मोड़ सामने आ सकता है. इस समय सीरिया और पश्चिम एशिया तथा यूरोप में जैसा संघर्ष चल रहा है उसे देखते हुए यह माना जा सकता है कि रूस और अमेरिका के बीच जो मधुर सम्बन्ध बनते दिखाई दे रहे हैं वे स्थायी नहीं रहेंगे. दूसरी तरफ चीन भी है, जिससे अमेरिकी हितों का सीधा टकराव है. अब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बन गए हैं तो इसका अर्थ यह है कि डोनाल्ड ट्रंप के “आर्थिक राष्ट्रवाद” की नीति के कारण चीन से उनका टकराव जारी रहेगा, बल्कि तेज़ भी हो सकता है. चुनाव प्रचार के दौरान पश्चिमी देशों को उन्होंने आगाह किया था कि अमेरिका नाटो गठबंधन को मदद देना बंद कर सकता है. अपने “राष्ट्रवाद” को परिभाषित करते हुए उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था कि जब बात अमेरिकी सैन्य और आर्थिक हितों से जुड़ी होगी, तो वे अमेरिका का हित सबसे पहले देखेंगे, नाटो या ब्रिटेन का बाद में. इसीलिए ट्रंप के सत्ता में आने से ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे के सामने भी चुनौती पैदा हो गई है, क्योंकि पूर्व में वे सीधे तौर पर उनकी आलोचना कर चुकी हैं. ईरान के साथ की गयी न्यूक्लियर डील की भी ट्रंप कड़ी आलोचना कर चुके हैं, जिसे ब्रिटेन की मदद से अंजाम दिया गया था. इस डील को वे ‘किसी भी देश द्वारा ऐतिहासिक तौर पर अब तक का सबसे खराब समझौता’ करार दे चुके हैं. उन्होंने अमेरिका से वादा किया है कि वे उन सभी खर्चीले विदेशी संबंधों और व्यापारिक समझौतों से अलग हो जायेंगे जो अमेरिकियों के जीवन-यापन को छीन रहे हैं. ऐसे प्रस्तावित वाणिज्यिक रवैये से वे अमेरिका के वैश्विक वर्चस्व को बरकरार रखना चाहते हैं. खैर, फिलहाल शपथ ग्रहण से पहले ट्रंप की विदेश नीति को समझ पाना असंभव है. एक बात जरूर है की वे कम से कम एक बात पर लगातार कायम रहे हैं कि उनका प्रशासन महान होगा, और वे ही चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम हैं, भले ही वे उन्हें अधिक समझते न हों. अमरीकी जनता के इस राष्ट्रवाद ने यहूदियों को भी खासा प्रभावित किया है. जैसा कि सभी जानते हैं, अमेरिका में यहूदी लॉबी बेहद सशक्त है और चुनावी फंडिंग से लेकर मतदान नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है. अमेरिकी यहूदियों ने भी हिलेरी को उनकी इस्लाम समर्थक नीतियों के कारण साफ़-साफ़ नापसंद किया. इसके अलावा हिलेरी क्लिंटन ने अमेरिका के “गन कल्चर” (बन्दूक संस्कृति) के खिलाफ बोलकर भी खुद को कमज़ोर किया. अमेरिका के लोग बन्दूक प्रेमी हैं, वहां पर छोटी-बड़ी बंदूकें आसानी से कोई भी खरीद सकता है, हिलेरी ने इसे बंद करने का वादा किया था जो स्थानीय अमरीकी को कतई पसंद नहीं आया, क्योंकि उसे अपनी और अपने घर की सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण लगती है. जबकि डोनाल्ड ट्रम्प ने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने के संकेत पहले ही दे दिए थे. अंततः हिलेरी का “सॉफ्ट अमेरिका” हार गया और ट्रम्प का “मजबूत राष्ट्रवाद” जीत गया.
कहने का तात्पर्य यह है कि विगत तीन वर्षों से दुनिया भर में “राष्ट्रवाद” की भावना जोर पकड़ रही है, जिसे समझने में तथाकथित बुद्धिजीवी नितांत असफल रहे हैं. ISIS के खतरे, इस्लामिक कट्टरपंथ के विस्तार, यूरोप में इस्लामिक शरणार्थियों के प्रति नरम रुख, पाकिस्तान की अनदेखी करना, दुनिया भर में बेरोजगारी और गरीबी की संख्या में वृद्धि के कारण दुनिया भर के लोगों में या भाव मजबूत होता जा रहा है कि “हमें पहले अपने राष्ट्र को मजबूत बनाना है, पहले अपने राष्ट्र का फायदा देखना-सोचना है, पहले अपने देश के युवाओं को नौकरी मिलनी चाहिए, पहले अपने देश की सुरक्षा होनी चाहिए… दुनिया की चिंता हम बाद में करेंगे”. निश्चित रूप से अब आप सोच रहे होंगे कि नरेंद्र मोदी, ब्रेक्जिट और डोनाल्ड ट्रम्प के बाद अब किसका नंबर है, तो मेरा अनुमान है फ्रांस की धुर “दक्षिणपंथी नेता मेरी ली पेन”. जी हाँ!! इन पर निगाह बनाए रखियेगा. जिस तरह से फ़्रांस में लगातार इस्लामी आतंकी मजबूत होते जा रहे हैं, शार्ली हेब्दो अखबार जैसे हमले बढ़ रहे हैं, फ्रांस के कई शहरों में आए दिन स्थानीय लोगों और शरणार्थी मुस्लिमों के बीच दंगे-फसाद हो रहे हैं, उसे देखते हुए फ्रांस की जनता के मन में भी राष्ट्रपति ओलांद की “सॉफ्ट नीतियों” के प्रति नाराजगी बढ़ती जा रही है अतः संभव है कि फ्रांस के आगामी चुनावों में हमें पेरिस में भी एक नया “राष्ट्रवादी नेतृत्व” देखने को मिल जाए. भारत बदल रहा है, दुनिया बदल रही है… राष्ट्रवाद की अवधारणा मजबूत हो रही है. लेकिन “तथाकथित बुद्धिजीवी” और मीडिया के बिके हुए लोग इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं.
खैर… मुर्गा बांग नहीं देगा, तो क्या सवेरा ही नहीं होगा??