नकल असल जैसा, वैसा होने का एक और जहां भ्रम पैदा करता है वहीं दूसरी ओर अनुकरण न केवल गुलामी पैदा करता है बल्कि अपने असल होने के अस्तित्व केा भी नकारता है। इस तरह की जद्दोज़हद किसी को भी मंजिल पर न पहुंचा केवल भटकाव को ही पैदा करती है। नकल अन्धत्व को बढ़ाता है वहीं अनुकरण गुलामी को, नकल से चोला तो बदला जा सकता है आत्मा को नहीं, वही गुलामी केवल शासक के रूप में ही नहीं होती यह मानसिक ज्यादा होती है नकल हम पश्चिमी देशों की एवं उसकी सभ्यता की कर वैसा ही होने की अनुभूति प्राप्त कर रहे हैं वहीं अनुकरण बिना परखे किसी के भी कहने पर अन्धाधुन्ध कर रहे फिर चाहे कहने या बताने वाला सेलीब्रिेटी हो या पसंदीदा खिलाडी की दोनों ही स्थितियां केवल और केवल व्यापारिक एवं आर्थिक हितों से सधी हुई हैं।
आज वर्तमान में भी हमारे इर्द-गिर्द कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है पहला असल-नकल के बीच नक्कालों की भरमार वैसे भी अर्थशास्त्र का भी सिद्धांत कुछ ऐसा ही कहता है कि नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हेै आज हर प्रोडक्ट की नकल बाजार में उपलब्ध हैं। फिर बात चाहे उपकरणों, खाद्य पदार्थों की हो या अन्य उपयोग में लाये जाने वाले प्रोडक्ट की हो।
जब घटना घट जाती है तब ही त्राहि-त्राहि मचती है तब ही सरकारों की भी कुंभकर्णीय निद्रा टूटती है वह भी कुछ समय के लिए फिर ढाक के तीन पात। यदि हम अपनी याद्दाश्त पर जोर डाले तो पाते है कि 2002 में कोल्ड ड्रिग्स में तय मापदण्ड से अधिक मात्रा में पेस्टी साइट्स पाए गए थे, हो सकता है दिनों में हम मेगी काण्ड को भी भूल जाएं। आज मिलावट और नकलीपन किसमें नही है। हकीकत तो यह है कि इसका एक समान्तर बाजार न केवल फल-फूल रहा बल्कि पूर्ण रूप से स्थापित भी हो गया है। दूध, घी, मावा, मिठाई, तेल डिब्बा बंद, बोतल बंद खाद्य एवं पेय पदार्थों में घातक रसायनों का प्रयोग बढ़े धड़ल्ले से प्रचलन में हैं। कहने को तो केन्द्र एवं राज्यों की शुद्धता की जांच बाबत् अलग-अलग स्तर पर जांच एजेन्सियां हैं।
हाल ही में मैगी में स्वास्थ्य की दृष्टि से पाये जाने वाले हानिकारक तत्वों की वजह से मैगी के दस हजार करोड़ के धन्धे में लेड एवं मोनोसोडियम ग्लूटामेट की अवांछित सुनामी ने मैगी उद्योग को हिलाकर रख दिया है।
स्विटजरलैण्ड निवासी जूलियस मिशेल जान्स मैगी के नाम पर मैगी प्रोडक्ट का नाम पड़ा जिसे भारत में 1983 में नेस्ले इंडिया लिमिटेड ने मैगी एवं नूडल्स के रूप में लांच किया। सन् 2008 में ब्रिटेन की विज्ञापन मानक अर्थोरिटी ने मैगी के विज्ञापन पर रोक महज इसलिए लगा दी थी कि यह विज्ञापन में ऐसा दावा करती थी कि इसके खाने से मांस-पेशिया और हड्डियां मजबूत होती है। भारत में मैगी ‘‘दो मिनट’’ स्वाद भी सेहत भी पर काल 2014 में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के खाद्य अधिकारी द्वारा लिये गये नमूनों का लेब में फैल हो जाने के परिणाम स्वरूप मैगी कम्पनी को नोटिस देने के रूप में आया 22 जुलाई को नेस्ले की अपील पर 7 अप्रैल 15 को पुनः नमूने कोलकत्ता की राष्ट्रीय प्रयोग शाला को भेजा गया, नतीजे अपरिवर्तित रहे अर्थात् फेल रहे। 28 मई को अदालत में मुकद्मा दर्ज हुआ। तत्पश्चात् राज्यों ने अपने राज्य में मैगी की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू कर दिया। इसी के साथ सेना ने भी इस मैगी पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसी के साथ नेपाल, सिंगापुर, ब्रिटेन में भी इसे प्रतिबंधित कर दिया गया।
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफ.एस.एस.ए.आई.) अब कहता हे कि नूडल्स, पास्ता, मेक्रोनी एवं अन्य की भी जांच की जायेगी। यहां कई यक्ष प्रश्न उठ खडे होते है मसलन जवाबदेह कौन, दोषी कौन, क्या यह कुछ समय का ही हल्ला है। क्या अन्य की तरह इसे भी विस्मृत कर दिया जायेगा। ‘‘दो मिनट’’ के स्वादिले जहर से मानव एवं बच्चे सिरदर्द, मोटापा, कैंसर, अस्थमा, रक्तचाप, नर्वस डिस आर्डर, मांसपेशी, किडनी से संबंधित गंभीर बीमारियों से न केवल पीड़ित हो रहे हैं बल्कि उम्र के पहले ही बूढ़े हो काल के गाल में भी समा रहे है।
यूं भले ही हम अपने को आजाद भारत का आजाद नागरिक कह ले लेकिन मानसिक गुलामी आज भी हमारे बीच में है फिर चाहे हम अंग्रेजों की बात माने या भारतीयों में फिल्मी सितारे एवं खिलाड़ियों की हो जिनके कहने मात्र से ही उस प्रोडक्ट को खरीद सेवन करना शुरू कर देते है। यह भी एक तरह की गुलामी ही है इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि कहने वाला भारतीय है या विदेशी। सितारों की भी यह दलील बेकार एवं बेतुकी है कि 18 साल पहले या 2 साल पहले विज्ञान किया था लेकिन अब छोड दिया इतने कहने मात्र से ये भी दोषमुक्त नहीं हो सकते। आखिर इनके पैसों के स्वार्थ के चलते ही बच्चों से लेकर बड़ों को स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव जो पड़ा हैं।
यहां फिर यक्ष प्रश्न उठता है कि केन्द्र एवं राज्य की खाद्य पदार्थों से संबंधित प्रयोगशालाएं एवं अधिकारी क्या कर रहे हैं? क्या किसी हादसे का इंतजार है या महामारी था?
आखिर इन अधिकारियों को तनख्वाह किस बात की सरकार देती हैं? सरकारें भी कम दोषी नहीं हैं इनकी जवाबदेही तो कुछ ज्यादा ही बनती हैं। सरकार को जनता को बताना ही होगा उन्होंने नाकाम एवं नाकारा अफसरों के खिलाफ क्या कार्यवाही की कही ये कम्पनी मालिकों, अधिकारियों एवं मंत्रियों के बीच कोई गठजोड़ तो नहीं हैं। यहां बात केवल मैगी की ही नहीं है बल्कि प्रत्येक खाद्य एवं पेय पदार्थों की सघन जांच नियमित रूप से क्यों नहीं की जाती? कब तक केवल जनता ही हादसों/बीमारियों का शिकार बनती रहेगी?
अब जब बदलाव की बयार केन्द्र एवं राज्यों में बह रही है पारदर्शिता एवं जवाबदेही से ‘‘मेक इन इण्डिया’’ की आंधी चल रही है ऐसे सभी सेवकों (जनता एवं सरकार) को न केवल जवाबदेह होना पड़ेगा बल्कि गलती होने पर सजा के लिए भी तैयार रहना होगा। कहते भी हैं। ‘‘भय बिन होय न प्रीत।’’