पेड़ काट कर डाल को सींचने से वृक्ष के जीवन की आशा व्यर्थ है। देश में मुस्लिम आबादी के साथ कुछ ऐसी ही कहानी है। सियासी दांव पर लगे मुस्लिम समाज की बहुसंख्यक लोग शिक्षा और रोजगार में पिछड़ गए हैं। नाकारात्मक माहौल में पल बढ़ कर आपराधिक मामलों में भी पिस रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी का जो प्रतिशत देश में है, उससे ज्यादा प्रतिशत जेल में है। यह गलत भी नहीं है। देश में और देश की जेल में दोनों जगह मुसलमानों का अनुपात कमोबेश बराबर है। जो जेल में हैं उनकी जिन्दगी में जहालत तो आई ही है लेकिन जो बाहर हैं उनके लिए जिन्दगी जहालत से कम नहीं है। देश में मुस्लिम जमात की बेहतरी के लिए किये जानेवाले उपाय भी नाकाफी और चुनावी चुग्गे से ज्यादा नहीं हैं।
कई बार शक के आधार पर पुलिस कार्रवाई और अन्याय के प्रणाली के शिकार मुसलमानों की बड़ी संख्या नाक जेल जाती है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इस बात को लेकर एक सार्वजनिक बयान दिया कि इस तरह शक के आधार पर मुस्लिम समाज के बेगुनाह लोगों की गिरफ्तारी नहीं की जाए। ऐसे पीड़ितों की अन्याय के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई बुलंदी से नहीं उठती है। सिस्टम और परिस्थितियों के कारण उनके मन में द्वेष के बीज अंकुरित हो जाते हैं। सियासी गलियारों में मुसलमानों के हित की वकालत बड़ी चालाकी और लुभावनी तरिके से की जाती है। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ कार्य हुए होते तो आज हालात यह नहीं होते। जबानी जमा खर्च का लाभ बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी तक नहीं पहुंच पाया है। सियासी लाभ के लिए इन पक्ष में दिये जाने वाले बयान सर्व धर्म समभाव की भावना का पोषण भी नहीं करते हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, मुस्लिम समाज में शिक्षा, न्याय व अन्य आंकड़े हकीकत बताते हैं। यह आंकड़े ही कहते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ही मुस्लिमों की उपस्थिति का प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों से कमतर है।
आजादी के साथ ही मुसलमानों की बेहतरी के लिए चिंता जाहिर की गई और यह चिंता आज भी जाहिर की जा रही है, पर कौम की बड़ी आबादी हमारी सामाजिक और न्याय प्रणाली से आहत है। इसकी मूल वजह मुसलमानों के शिक्षा के प्रतिशत में कमी को कहना गलत नहीं होगा। देश में मुसलमानों के अलावा अन्य कई जातियां अल्प संख्य वर्ग शामिल हैं, जिनकी साक्षरता दर पर संतोष नहीं जताया जा सकता है किंतु उनकी माली हालत मुस्लिमों की तुलना में ज्यादा तेज गति से सुधर रही है। सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के बाद भी उन्हें थोड़ा बहुत लाभ मिल जा रहा है।
मुस्लिम जमात के बच्चों की बुनियादी तालिम मदरसों से शुरू होती है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा निगरानी समिति की स्थायी समिति ने मदरसों की बदहाली पर चिंता जाहिर कर चुका है। मदरसों के आधुनिकीकरण के तैयार मॉडल में शिक्षकों को बेहतर वेतन और कंप्यूटरीकरण के लिए वित्तीय वर्ष 2012-2013 में 9905 मदरसों के लिए 182.49 करोड़ की मंजूरी दी गई है। जिसे अमलीजामा पहनाना शेष है। इसलिए फिलहाल इस राहत को दूर के ढोल सुहावने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता है।
बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में मुसलमानों की आबादी करीब 45 प्रतिशत है। इन राज्यों के साक्षरता प्रतिशत में पश्चिम बंगाल और दिल्ली को छोड़कर अन्य राज्यों में मुसलमानों की साक्षरता प्रतिशत असंतोष कारक है। देश के 374 जिलों में से 67 जिले अल्पसंख्यक बहुल है। सन् 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के उल्लेखनीय पक्ष में मुसलमानों को कई योजना में लाभ नहीं मिलने की बात बताई थीं। स्वामीनाथन एस अंकलेसरीया की अध्यक्ष रिपोर्ट में भी मुसलमनों की तरक्की को लेकर चर्चा की गई। मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि को लेकर हुई बहस में मुसलमानों का मूल्यांकन कमतर किया जा रहा था किंतु सच्चर कमेटी और स्वामीनाथन रिपोर्ट के दूसरे पक्ष ने मुसलमान के विकास की गति को असंगत बताया।
शिक्षा के इतर अपराधिक मामलों के आंकड़ों पर भी गौर करे तो पाएंगे कि हिंसा में मुसलमानों का दखल ज्यादा है। अपराध का वास्ता न्यायालय और पुलिस से पड़ता ही है। पुलिस कार्रवाई की ज्यादती से न्यायालयों के तथ्य में झोल-झाल स्वाभाविक है और इससे अन्याय संभव है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन संस्था राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एमसीआरबी) और देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार सेकुलर और कम्युनल सरकारों का रवैया मुसलमानों के प्रति एक समान रहा है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक वामपंथी शासन रहा है। पश्चिम बंगाल के जेलों में बंद कैदी आधे मुसलमान है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में थोड़ी राहत मिली है। वहां हर तीसरा और चौथा कैदी मुसलमान है। जम्मू-कश्मीर, पांडुचेरी, सिक्किम के अलावा देश के अन्य जेलों में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। जनगणना रिपोर्ट 2001 के अनुसार मुसलमानों आबादी देश में 13.4 फीसदी थी और दिसम्बर 11 के एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार देश में 21 फीसदी मुसलमान हैं और जेल में भी जो कैदी बंद हैं उनमें 21 फीसदी मुसलमान हैं।
जेल यात्रा के चलते कई मुसलमान परिवार तबाह हो गए। आर्थिक, मानसिक और सामाजिक यातनाओं को झेलने वाले परिवारों की कहानी बड़ी मार्मिक है। किसी भी वारदात के बाद संदेह में बड़ी संख्या में मुसलमानों की गिरफ्तारी हुई। ढेरों मामले हैं जिसमें बेगुनाह मुस्लमान वर्षां जेल में पिसते रहे। मामला झूठ साबित होने पर रिहा हुए। ऐसे हालात की स्थिति वैसे ही हैं जैसे गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है देश की अधिकतर आतंकी वारदातों में जो आरोपी पकड़े जाते हैं, वे ज्यादातर मामलो में मुस्लिम निकले हैं। फिर भी व्यक्ति आतंकी की सजा पूरे कौम को नहीं दी जा सकती है। ऐसे पीड़ितों पर सियासत के दिग्गजों ने अधिकतर सहानुभूति के बोल के ही मरहम लगाया है। परिवार को राहत दिलाए जाने की वकालत अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने की है।
पिछले दिनों मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मुसलमान यदि आज पुलिसिया जुल्म के सामने बेबस नजर आता है तो यह कांग्रेस की भी कमजोरी है। वहीं यह भी सच है कि इस मामले में भाजपा की छवि को भी पाक साफ नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में माकपा नेता ज्योति बसु का मुख्य मंत्रित्व काल के 30 साल के लिए विख्यात है। मुसलमान अन्याय के मामले में पश्चिम बंगल का ग्राम देश में सर्वाधिक ऊंचा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुखतार अब्बास नकवी ने कहा कि राज्यों इस समस्या को मानवीय आधार पर सुलझाना चाहिए।
वहीं मुसलमानों पर पक्षपात पूर्ण कार्रवाई पर पीयूसीएल का आरोप है। सरकारें बदली दल बदला पर मुसलमानों की इस समस्याओं का निराकरण नहीं हुआ। क्योंकि सियात में मुसलमान कौम को मोहरे के रूप इस्तमाल किया जा रह है। गुजरात कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार हिदायत देनी पड़ी थी। राज्य में पोटा और टाडा के तहत 280 लोगों को गिरफ्तार किया, जिसमें 279 मुसलमान थे। इसमें से मात्र डेढ़ प्रतिशत को सजा हुआ पोटा के तहत 1031 लोगों को गिरफ्तारी हुई। जिसमें मात्र 13 को सजा हुई। लेने समय तक जारी पुलिसिया कार्रवाई पर अकुंश नहीं लगाया गया है। देश के अमूमन राज्यों में मुसलमानों की यही दशा है। जाहिर से इस समाज में शिक्षा की लौ जैसे ही तेज होगी, समाज की सोच प्रगतिशील होगी। आने वाली पीढ़ी में हिंसा और अपराध की राह को छोड़ अपने घर परिवार और भविष्य को सुखमय बनाने में व्यस्त होगी। इसी से समाज भी मजबूत होगा। देश भी मजबूत होगा।