आज जब सत्ता का राष्ट्रवाद, जेएनयू के राष्ट्रविरोधी नारे और मीडिया की सही भूमिका के बीच यह सवाल बड़ा होते चला जा रहा है कि सही कौन और गलत कौन । तब जहन में पांच-साढे पांच बरस पहली तीन घटनायें याद आती हैं। पहली बार 18 सितंबर 2010 को तब के पीएम मनमोहन सिंह के प्रिंसिपल सेकेट्री टीके नायर ने हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक में वरिष्ठ पत्रकारों-संपादकों को कॉकटेल पार्टी दी थी। नवंबर 2010 में राडिया टेप के जरीये पत्रकार दलालों के नाम सामने आये थे। और उसी दौर में जेएनयू के गोदावरी हॉस्टल में शुक्रवार की देर रात पत्रकार प्रांजयगुहा ठाकुरत, साहित्यकार नीलाभ और पुण्य प्रसून वाजपेयी [ लेखक ] को 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लेकर राडिया टेप पर चर्चा के लिये निमंत्रण दिया गया था। उस वक्त जेएनयू स्टाइल के सेमिनार[ हास्टल में खाना खत्म होने के बाद खाने वाली जगह पर ही टेबल कुर्सी जोडकर चर्चा ] से पहले गोदावरी और पेरियार हॉस्टल के बाहर ढाबे में हमारे पहुंचते ही हर मुद्दे से जुड़ा सवाल उठा और हर सवाल यहीं आकर रुकता कि संसदीय चुनावी राजनीति और माओवाद की सोच से इतर दूसरी कोई व्यवस्था हो सकती है या नहीं। और हर सवाल का जबाब यहीं आकर ठहरता कि राजनीतिक व्यवस्था ही जब भ्रष्टाचार को आश्रय दे रही है और जबतक देश में विचारधाराओं के राजनीतिक टकराव से इतर क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ संघर्ष शुरु नहीं होगा तब तक रास्ता निकलेगा नहीं। और रास्ता जो भी या जब भी निकलेगा उसमें छात्रों की भूमिका अहम होगी । खैर, पीएमओ की तरफ से कॉकटेल पार्टी में मुझे भी बुलाया गया था। और हेबिटेट सेंटर में घुसते ही दायीं तरफ सिल्वर ओक में पीएमओ के तमाम डायरेकटरो के साथ पीएम के सलाहकारों की टीम जिस तरह शराब परोस [आफर] रही थी । उस माहौल में किसान-मजदूर से लेकर विकास के मनमोहन मॉडल पर चर्चा भी हो रही थी । और उस वक्त मनमोहन सिंह के डायरेक्टरों की टीम में सबसे युवा डायरेक्टर जो एक वक्त एनडीटीवी में काम कर चुके थे, उनसे हर बातचीत के आखिर में जब वह यह कहते कि, यार अरुंधति स्टाइल मत अपनाओ…पहले तो मुझे खीझ हुई लेकिन बाद में चर्चा के दौर में मुझे यह कहना पड़ा कि शायद मनमोहन सरकार को विचारधारा की राजनीतिक जुगाली पसंद है।
इसीलिये देश के बेसिक सवाल जो इकनॉमी से जुड़े हैं, उसका एक चेहरा वामपंथी सोच तो दूसरा पश्चिमी विकास मॉडल से आगे जाता नहीं है। तो पश्चिमी मॉडल की ही देन है कि सार्वजनिक स्थल पर भी पीएमओ को कॉकटेल पार्टी करने में कोई शर्म नहीं आती। क्योंकि मैंने तब सवाल उठाया कि क्या वाकई भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए इस तरह सार्वजनिक तौर कॉकटेल पार्टी करने की बात सोची भी जा सकती है । और उस वक्त जेएनयू के अनुभव में यह साफ दिखा कि मनमोहन सिंह की इकनॉमी जेएनयू में एक ऐसा प्रतीक थी, जो चाय की कीमत तले प्लास्टिक के कप और कुल्हड के दौर को खत्म करते हुये भी निशाने पर रहती और घोटालो तले देश को बेचे जाने के सवाल को भी खूब उठाती। और सारे सवाल जेएनयू के भीतर हर ढाबे हर नुक्कड पर होते। जिसमें ढाबेवाला भी शामिल होता । खैर आज जेएनयू में माहौल बहुत बदल गया है ऐसा भी नहीं है। हां, बोलने से पहले एक संशय और हर निगाह में एक शक जरुर दिखायी देने लगा है। लेकिन जेएनयू के भीतर जो सवाल बदल गये हैं, वह भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से और राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने की कुलबुलाहट का है। वजह भी यही रही कि उस दौर में राडिया टेप में आये पत्रकारों के लेकर खासा गुस्सा भी जेएनयू में छात्रों नजर भी आता था। लेकिन तब भी जेएनयू बहस की गुंजाइश रखता रहा। और बहस के लिये निमंत्रण भी देता रहा। यह अलग सवाल है कि तब राडिया टेप में नाम आये पत्रकार जेएनयू में जाने से कतराते क्यों रहे। और राडिया टेप को लेकर एक तरह की खामोशी यूपीए सरकार के भीतर नजर आती रही। लेकिन तब के हालात को अब यानी साढे पांच बरस बाद परखने की कोशिश करें तो कई सवाल उलझेंगे। मसलन जेएनयू के भीतर राडिया टेप का सवाल नहीं बीजेपी और संघ पररिवार के जरीये समाज को बांटने या हिन्दुत्व का राग अलापने को लेकर जोर पकड़ चुका है। जमीनी मुद्दे गायब है तो छात्र राजनीतिक संगठनो के प्यादे के तौर पर ही अपनी पहल दिखा रहे है या कुछ भी कहते हैं तो वह राजनीतिक दलों की विचारधारा से जुडता नजर आता है। इसी आधार पर मीडिया के बंटने और बांटने के सवाल हैं। यानी राजनीतिक सत्ता का दायरा हो या सत्ता के विरोध की राजनीति के सवाल इससे इतर कोई भूमिका समाज की हो सकती है यह नजर नहीं आता। यानी समाज में जिन मुद्दों पर एका हो सकती है . दलित-मुस्लिम से लेकर किसान-मजदूर और उंची जाती से जुडे नब्बे फीसद देश के जिन सवालों पर एक खड़े हो सकते हैं, उन सवालों को बेहद महीन सियासत से दरकिनार कर दिया गया है। इसलिये सत्ता के सामने इकनॉमी का सवाल नहीं राष्ट्रवाद का सवाल है। मीडिया के सामने राष्ट्रवाद या राष्ट्रद्रोह का सवाल है। छात्रों के सामने जेएनयू या रोहित वेमूला तले वैचारिक मतभेद ही संघर्ष का मुद्दा है। तो क्या सारे हालात जानबूझ कर बनाये जा रहे हैं। या फिर देश के भूलभूत मुद्दे संघर्ष खडा ना कर दें, और जनता एकजुट ना हो जाये इसीलिये असल मुद्दों की जड़ पर ना जाकर वैचारिक तौर पर राजनीतिक दल सतही मुद्दों को विचारधारा से जोड़कर देश में राजनीतिक संघर्ष का क अखाड़ा बना रहे हैं। जहां एक तरफ हिन्दुत्व यानी राइट-सेन्ट्रल नजर आये तो दूसरी तरफ वाम सेन्ट्रल हो। और देश के नागरिक भी राजनीतिक दलों की भूमिका तले खुद को बांट लें। तो क्या इसकी सबसे बड़ी वजह वही चुनावी राजनीति है जो भ्रष्टाचार और आर्थिक कारोबार को साथ लेकर चलती है।
ध्यान दें तो देश में विचारधारा के टकराव पर कभी सत्ता बदली नहीं। 1975 में गुजरात में चिमनभाई की कुर्सी के जाने की वजह भी भ्रष्टाचार का मुद्दा बनना था। और जेपी जिस जमीन पर खड़े होकर देश को बांध रहे थे वह इंदिरा गांधी के दौर का भ्रष्टाचार ही था । और आपातकाल एक हद तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जनसंघर्ष को दबाने की ही चाल थी। यह समझना होगा कि दिल्ली की सत्ता अयोध्या में राम मंदिर की वजह से सभी नहीं बदली । लेकिन बोफोर्स घोटाले यानी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर वीपी सिंह को जनता ने हाथों हाथ लेकर दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार को भी सत्ता से बेदखल कर दिया। बिहार में लालू यादव को भी भ्रष्टाचार की वजह से जनता ने हराया और नीतीश कुमार सत्ता में आये । यूपी में मायावती भी पिछली बार भ्रष्टाचार की वजह से ही चुनाव हारीं। और केजरीवाल ने भी सियासत पाने के लिये भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया । अन्ना का आंदोलन भी जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। जिससे संसद तक थर्राई। क्योंकि जनलोकपाल के मुद्दे पर जाति-धर्म या वैचारिक आधार पर जनता को बांटा नहीं जा सकता था । लेकिन ध्यान देने वाला सच यह भी है कि सत्ता कभी भ्रष्टाचार से नहीं लडती और ना ही भ्रष्टाचार मुद्दा बने यह चाहती है। मसलन दिल्ली में हीश्री श्री रविशंकर के साथ अगर प्रधानमंत्री मोदी खड़े हुये तो दिल्ली के सीएम केजरीवाल भी खड़े हुये। मोदी ने श्री श्री के जरीये हिन्दुत्व को अपने साथ जोड़ा। तो केजरीवाल को भी लगा कि श्री श्री के साथ होकर वह भीसॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर पर चल सकते हैं। यानी सत्ता में आने के बाद केजरीवाल के लिये भी यह सवाल गौण हो गया कि आखिर देश में किसान मरे या जवान मरे वजह भ्रष्टाचार ही है। और भ्रष्टाचार का सवाल सत्ता से जुड़ा है। तो अब केजरीवाल भी भ्रष्टाचार के मुद्दे से बचना चाहेंगे, क्योंकि चुनावी राजनीति का भ्रष्टाचार हो या चुनावी संसदीय राजनीति का आधार क्रोनी कैपिटलिज्म। भ्रष्टाचार के दायरे को कोई सत्ता राजनीतिक मुद्दा बनने से घबराती है। यानी जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचते है, वह सत्ता केजरीवाल को उसी सिस्टम का हिस्सा बनाने से नहीं चूकती जहां भ्रष्ट संस्थानों के आसरे प्रचार प्रसार।
यह मीडिया को बांट कर अपने मुनाफे में भागेदारी भी हो सकती है और किसी के किसी मीडिया समूह या किस, कारपोरेट को निशाने पर लेकर सत्ता चलाने की सुविधा भी हो सकती है । सत्ता की यह सुविधा समाज को बांटती ही नहीं बल्कि कैसे मुश्किल हालात खड़ा करती है यह यूपी के सत्ताधारी नेता आजम खान के मुस्लिम परस्त बयान के बाद समाज के भीतर मुसलमानों की मुश्किलात से भी समझा जा सकता है। और रोहित वेमुला के जरीये दलित के सवाल उठाने के बाद किसी सामान्य दलित नागरिक के सामने पैदा होने वाली मुश्किल से भी समझा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक मशक्कत पहले राजनीतिक जमीन बनाने की है जिससे देश पारंपरिक राजनीति में ही उलझा रहे तो छात्र राजनीति को वैचारिक संघर्ष से जोडने की तैयारी में वामपंथी है और साथ में कांग्रेस भी है। मसलन 16 मार्च को इलाहबाद यूनिवर्सिटी तो 21 को दिल्ली में छात्र संघर्ष को राजनीतिक जमीन पर उतारने की तैयारी हो रही है। और यह मोदी सरकार के लिये फिट मामला है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला उभारने का मतलब है हर तबके के भीतर की बैचेनी को उभार देना। जो राजनीतिक दलों को मजबूत नहीं करती बल्कि जनता के बीच से विकल्प की राजनीति को पैदा कर देती है। और मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में हर राजनीतिक दल हैं। सवाल सिर्फ ललित मोदी या माल्या भर का नहीं है। सवाल तो कालेधन का भी है। और एनपीए का भी । और 7 हजार से ज्यादा कारोबारियों का भी है। और हर क्षेत्र की रकम और वक्त को को मिला दे तो 2008 से 2015 तक का सच उभरेगा और आंकड़ा 90 लाख करोड़ को पार कर जायेगा । तब सवाल जनता की सहभागिता से पैदा होने वाले विकल्प का होगा और इसे फिलहाल जेएनयू या हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघर्ष के दायरे में देखना भूल होगी।