कश्मीर समस्या के कारण को ठीक परिप्रेक्ष्य में पकड़ पाने के लिये भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की कुछ प्रवृत्तियों को समझ लेना जरुरी है । १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उपरान्त देश का मुस्लिम समुदाय मोटे तौर पर अंग्रेजों के पक्ष में खड़ा दिखाई देने लगा था । अंग्रेजी सरकार ने उनको अपने पक्ष में करने के लिये प्रयास भी किये जिसके परिणाम बीसवीं शताब्दी के शुरु में ही दिखाई देने लगे थे । ब्रिटिश संसद ने १८६१ ,१८९२ ,और १९०९ में जो भारतीय परिषद अधिनियम पारित किये उससे यह आभास मिलने लगा था भविष्य में भारत के शासन का स्वरुप कैसा हो सकता है । इन अधिनियमों के अनुसार देश की सत्ता व्यस्क मताधिकार पर आधारित होने वाली थी । इन अधिनियमों में चाहे मताधिकार बहुत ही सीमित लोगों तक महफूद था ,और परिषदों के पास अधिकार भी नगण्य थे लेकिन भावी संविधान की रुपरेखा का प्रारम्भिक आभास तो होने ही लगा था । इस पृष्ठभूमि में अंग्रेज मुसलमानों को यह समझाने में सफल हो गये कि भविष्य के निजाम में सत्ता तो हिन्दुओं के हाथ ही आ सकती है क्योंकि जनसंख्या के लिहाज से उनका बहुमत है । साथ ही यह सिद्धान्त भी प्रचारित किया जाने लगा कि अंग्रेजों ने सत्ता छीनीं तो मुसलमानों से थी अब वापिस भी वह मुसलमानों को ही मिलनी चाहिये । यह थीसिस मुसलमानों के गले उतरने लगा लेकिन फिर भी कहीं बाधा थी तो उसको दूर करने के लिये 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय खोला गया । यह संयोग ही नहीं है कि भविष्य का मुस्लिम नेतृत्व इसी विश्वविद्यालय ने प्रदान किया । इस विश्वविद्यालय के स्थापित हो जाने के दस साल बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई । कोलकाता विश्वविद्यालय की की स्थापना १८५७ में ही हो गई थी और उसके बाद एक दशक के अन्दर तीन चार और विश्वविद्यालय स्थापित कर दिये गये थे । तीन दशकों में इन विश्वविद्यालयों ने अच्छी खासी संख्या में नये शिक्षित पैदा कर दिये थे और अब बिना किसी भय के स्वतंत्रता की अगली लड़ाई का नेतृत्व इस जमात को सौंपा जा सकता था । आजादी की पहली लड़ाई में जो नेतृत्व था वह खालिस देशी था ,इस लिये उस के लड़ने के तरीके ऐसे ख़तरनाक थे कि यदि भाग्य साथ न देता तो १८५७ की आजादी की पहली लड़ाई में ही अंग्रेजों का बोरियां बिस्तर गोल हो जाता । अंग्रेज जानते थे कि आजादी की यह लड़ाई अब थमेगी तो नहीं । इसलिये कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि लड़ाई के नियम खुद निर्धारित कर दिये जायें और इसका नेतृत्व भी उन लोगों को दिया जाये जो ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्धारित लड़ाई के इन नियमों को मानने के लिये तैयार हों । कांग्रेस इसी रणनीति का हिस्सा थी । उसके नेतृत्व से सरकार बहादुर को कोई ख़तरा नहीं हो सकता था क्योंकि वे तो अपनी हर एक सभा ही ब्रिटेन के राजा के गुणगान से करते थे । उधर मुस्लिम नेतृत्व तो था ही अंग्रेज सरकार की देन ।
सारा कामकाज ठीक तरह से चल रहा था कि बीच में महात्मा गान्धी आ गये । उन्होंने कांग्रेस को अंग्रेजों से छीन लिया । कांग्रेस का कायाकल्प होने लगा । कांग्रेस सचमुच भारतीयों की प्रतिनिधि संस्था बनने लगी । अब कांग्रेस को दूसरी बाधा पार करनी थी । उसे मुसलमानों को भी अंग्रेजों से छीनना था । क्योंकि बिना मुसलमानों को साथ लिये वह अपने आप को प्रतिनिधि संस्था नहीं कह सकते थी । इस काम को अंजाम देने के लिये कांग्रेस ने जो रास्ता अपनाया वह सबसे ज्यादा ख़तरनाक था । कांग्रेस ने मुसलमानों को आजादी की लड़ाई में जोड़ने की उतावली में उनका तुष्टीकरण करना आरम्भ कर दिया । उसको आशा थी कि इससे प्रसन्न होकर मुसलमान अंग्रेजों का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ मिल कर आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी निभायेंगे । मुस्लिम तुष्टीकरण में कांग्रेस इतना आगे बढ़ी कि उसने हिन्दोस्तान में ही मुसलमानों को साथ लेकर खिलाफत आन्दोलन छेड़ दिया । कांग्रेस यह मान कर चल रही थी कि ब्रिटेन द्वारा तुर्की के साथ किये जा रहे व्यवहार से मुसलमान नाराज हैं । यदि इस वक्त उन का साथ दे दिया जाये तो वे अंग्रेजों का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ आ खड़े होंगे । लेकिन हिन्दोस्तान के मुसलमानों का नेतृत्व कांग्रेस के साथ तो फिर भी नहीं आया , अलबत्ता वह अफगानिस्तान के अमीर के पास अवश्य चला गया , यह गुजारिश लेकर कि हिन्दोस्तान पर हमला कर दिया जाये ताकि सत्ता फिर मुसलमानों के हाथ में आ जाये । अफगानिस्तान का अमीर उनकी यह इच्छा तो आखिर पूरी नहीं कर सकता था ,लेकिन उसने कुछ लोगों को अपने यहाँ शरण अवश्य दे दी ।
खिलाफत आन्दोलन में मार खा लेने के बाद भी कांग्रेस ने अपनी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति नहीं त्यागी । कांग्रेस ने मुसलमानों के लिये अलग निर्वाचन का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया । इसी से क्रुद्ध होकर बाबा साहेब आम्बेडकर ने गान्धी जी से कहा था कि मुसलमानों को तो आप कोरे चैक पर हस्ताक्षर करके देते हो लेकिन अछूतों को उनका अधिकार भी देने के लिये तैयार नहीं हैं । कांग्रेस मुसलमानों की जितनी खुशामद करती थी , मुसलमान उतना ही उससे दूर भागते थे । इसी खुशामद नीति के कारण मुहम्मद इकबाल सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसतां हमारा गाते गाते पाकिस्तान के नगमें गाने लगे थे । कांग्रेस की यह खुशामदी नीति अन्ततः देश को विभाजन की ओर ले गईं ।
कांग्रेस की इसी मुस्लिम परस्त नीति के परिप्रेक्ष्य में कश्मीर समस्या को समझना होगा । कांग्रेस इसी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के चलते देश को विभाजन के कगार पर ले गई । उसकी इसी नीति के कारण कश्मीर का मामला अटक गया । कश्मीर की जनसंख्या का बहुमत मुसलमान था और राजा हिन्दु था । इतना निश्चित ही था कि महाराजा हरि सिंह किसी भी हालत में पाकिस्तान में शामिल नहीं हो सकते थे । उनके समने दो विकल्प ही खुले थे । प्रथम भारत में शामिल होने का और दूसरे आजाद देश के तौर पर रहने का । भारत में शामिल होने के रास्ते में एक ही बाधा थी । जवाहर लाल नेहरु की शर्त थी कि महाराजा अपनी सत्ता कश्मीरियों के नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को सौंपे । हरि सिंह इसके लिये किसी भी हालत में तैयार नहीं थे । नेहरु की भी इच्छा थी कि जम्मू कश्मीर भारत में शामिल हो । उसका तरीका यही था कि महाराजा हरि सिंह तैयार होते । लेकिन नेहरु की दृष्टि में हरि सिंह की कोई औकात नहीं थी । नेहरु कश्मीर को भारत में शामिल करवाने में शेख अब्दुल्ला की भूमिका महत्वपूर्ण मानते थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शेख कश्मीर के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे । शेख अब्दुल्ला को काबू में रखने का कांग्रेस की नज़र में एक ही तरीका था , कश्मीरी मुसलमानों का तुष्टीकरण । नेहरु की सोच में कश्मीरी मुसलमानों का अर्थ शेख अब्दुल्ला ही थे अत: वे उसी के तुष्टीकरण में लगे थे । यह सचमुच ताज्जुब का विषय है कि कांग्रेस एक बार इस नीति का दुष्परिणाम भारत विभाजन के रुप में देख चुकी थी , लेकिन कश्मीर में वह फिर उसी प्रयोग को दोहराने लगी थी । शेख अब्दुल्ला कांग्रेस की कमज़ोरी को अच्छी तरह पहचान गये थे । अत: उसने अपनी नीति उसी के अनुरुप तैयार की ।
शेख के पास भारत में रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । यदि वे पाकिस्तान में जाते तो वहाँ उनकी कोई औकात न होती । जिन्ना की निगाह में उनकी स्थिति एक अदने नेता से ज्यादा नहीं थी । पाकिस्तान में पंजाबियों , पठानों या बलूचो का बोलबाला था । वहाँ एक कश्मीरी मुसलमान की क्या हैसियत हो सकती थी ? शेख रियासत को पाकिस्तान में तो शामिल करवा नहीं सकते थे , क्योंकि उसके लिये महाराजा हरिसिंह के हस्ताक्षरों की ज़रुरत थी न कि शेख अब्दुल्ला की । कांग्रेस मुसलमानों के तुष्टीकरण से पाकिस्तान के निर्माण को तो रोक नहीं सकी अब वह उसी पद्धति से कश्मीर के मुसलमानों को भारत में रोकना चाहती थी । उसकी मंशा ठीक थी लेकिन तरीका ग़लत था । महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर देने के बाद रियासत का क़ानूनी रुप से भारत में विलय हो गया था , लेकिन कांग्रेस फिर इस बात पर अड़ी थी कि इसकी वैधता शेख अब्दुल्ला की सहमति से ही बनती है । पराकाष्ठा तो तब हो गई जब भारत सरकार १९४७ में पाकिस्तान द्वारा भारत पर ( जम्मू कश्मीर पर) किये गये आक्रमण को सुरक्षा परिषद में ले गई जिसकी कोई ज़रुरत नहीं थी । इतना ही नहीं उसने अपनी शिकायत में रियासत के भारत में विलय की कहानी को भी बिना बजह सुनाना शुरु कर दिया । सुरक्षा परिषद को रियासत के भारत में विलय के प्रश्न पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं था । यहीं पर बस नहीं हुई , नेहरु ने इस शिकायत में रियासत के भारत में विलय के औचित्य को सही ठहराने के लिये शिकायत में यह भी दर्ज किया कि शेख अब्दुल्ला ने भी रियासत के भारत में विलय की माँग की थी , जबकि शेख की इस पूरे मामले में न तो कोई क़ानूनी हैसियत थी और न ही सांविधानिक । पंडित नेहरु कश्मीर में मुसलमानों के तुष्टीकरण में इस हद तक आगे बढ़े कि उन्होंने रियासत के विलय में बिना किसी सांविधानिक हैसियत के शेख अब्दुला को भी एक पार्टी बना दिया । अपनी ओर से पंडित नेहरु चालाक बनने की कोशिश कर रहे थे । उन की रणनीति दुनिया के आगे यह सिद्ध करने की थी कि रियासत की जनता भी भारत के साथ है । अब रियासत की जनता का बहुमत क्योंकि मुसलमान था इसलिये उसके समर्थन के लिये शेख को अपने साथ रखना जरुरी था ।
उस समय के पंडित नेहरु की इंटैलिजैंस ब्यूरो के चीफ बी एन मलिक इस नीति के समर्थन में दो तर्क देते हैं । उनका कहना है कि कश्मीर के मसले को आईसोल्शन में नहीं देखा जाना चाहिये । मसला केवल जम्मू कश्मीर रियासत का नहीं था । यह मसला जूनागढ़ व हैदराबाद रियासत से भी जुड़ा हुआ था । जूनागढ़ का राजा तो बाकायदा क़ानूनी रुप से पाकिस्तान में मिल गया था । लेकिन भारत सरकार ने जनमत का तर्क देकर उसे भारत में शामिल किया । हैदराबाद के राजा ने तो अपनी रियासत को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया था । वहाँ भी भारत सरकार ने जनमत के तर्क से ही उसे हिन्दुस्तान में शामिल किया । इसलिये जम्मू कश्मीर के मामले में सरकार को जनमत का आधार लेना पड़ा और जनमत भारत के पक्ष में जाये इस लिये शेख अब्दुल्ला को खुश रखना जरुरी था । मलिक का कहना है यदि जनमत का आधार न लिया जाता तो सुरक्षा परिषद में जूनागढ़ और हैदराबाद के केस भी खुल सकते थे । मलिक मानते हैं कि जूनागढ़ और हैदराबाद के केस संयुक्त राष्ट्रसंघ में इसलिये हाशिये पर चले गये थे क्योंकि संयुक्त राष्ट्र इस तर्क से सहमत हो गया था कि इन दोनों रियासतों के लोग भारत में विलय के पक्ष में थे अत: वहाँ के शासकों द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र अप्रासंगिक हो गये हैं । मलिक या तो उस समय की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से अनविज्ञ हैं या फिर नेहरु के समर्थन में वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं । जूनागढ़ और हैदराबाद का उस समय साम्यवादी रुस के खिलाफ़ एकजुट हुई अमेरिका ब्रिटेन लाबी के लिये कोई महत्व नहीं था । इसलिये उन्होंने इन शिकायतों पर तब्बजों देना जरुरी था । कश्मीर उनके लिये बहुत ही महत्वपूर्ण था । कश्मीर की सीमा एक साथ रुस और चीन से लगती थी । अमेरिका ब्रिटेन को बहम था कि नेहरु चिन्तन में समाजवादी हैं । अत: उन की सहानुभूति रुस और चीन के साथ रहेगी । उनकी दृष्टि में पाकिस्तान तो कभी कम्युनिस्ट हो नहीं सकता । अत: यह लाबी कश्मीर विवाद को अपने हाथ में लेने की इच्छुक थी । परन्तु यह तभी संभव हो सकता था यदि भारत इस किस्से को संयुक्त राष्ट्र के सम्मुख लेकर जाये । लार्ड माँऊटबेटन इस काम के लिये लम्बे अरसे तक नेहरु के पीछे पड़े रहे और अपने अभियान में सफलता हासिल करने के बाद ही उन्होंने भारत छोड़ा । इस बात की जाँच होना भी जरुरी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजी गई शिकायत किसने ड्राफ्ट की थी ? क्योंकि इसी शिकायत में शेख अब्दुल्ला पहली बार आधिकारिक तौर पर इस पूरे मामले में एक पार्टी बने । इतना ही नहीं भारत सरकार ने शेख अब्दुल्ला को संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का पक्ष रखने के लिये प्रतिनिधि के तौर पर न्यूयार्क भी भेजा ।
एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ और शेख अब्दुल्ला के जाल में फँस जाने के बाद भारत सरकार के पास और विकल्प ही क्या था ? यह प्रश्न मलिक अप्रत्यक्ष रुप से उठाते हैं । मलिक तो यहाँ तक जाते हैं कि नेहरु जल्दी ही शेख की फ़ितरत को जान गये थे लेकिन अब उन के पास कोई चारा नहीं था । मलिक का निष्कर्ष ठीक हो सकता है लेकिन यह सारा जाल नेहरु का खुद का ही बुना हुआ था । शेख ने अपनी रणनीति पर काम करना शुरु कर दिया था ।
१ महाराजा हरि सिंह को रियासत से बाहर निकाला जाये ।
२ रियासत के लिये अलग संविधान बनाया जाये । हिन्दुस्तान का संविधान रियासत पर लागू न किया जाये । ३ रियासत में केन्द्र की दखलन्दाजी केवल तीन मामलों में होगी । अन्य किसी भी मामले में भारत की कोई दखलन्दाजी नहीं होगी ।
नेहरु जब एक बार स्वीकार ही कर चुके थे कि कश्मीर का विलय शेख अब्दुल्ला के रहमोकरम पर टिका हुआ है तो वे शेख की सभी माँगें स्वीकार करने लगे । शेख ने पूरी सत्ता साम्यवादी देशों
के ढ़ांचे पर पार्टी केन्द्रित कर दी । सभी सरकारी मामले नैशनल कान्फरेंस के कैडरों के अधीन कर दिये । नैकां के कैडरों के हाथों में ही सरकार की सत्ता केन्द्रित होने लगी । प्रदेश की सरकारी सत्ता भी कश्मीर केन्द्रित होने लगी । जम्मू संभाग और लद्दाख संभाग सत्ता से महरुम हो गया । शेख जो स्वायत्तता कश्मीरियों के लिये माँग रहे थे , व्े उसे जम्मू व लद्दाख को देने के लिये तैयार नहीं थे । जाहिर है इससे जम्मू व लद्दाख के लोगों के मन में आशंकाएं पैदा होतीं । शेख की चालों से जम्मू और लद्दाख के लोगों के मन में एक और भय समाने लगा । यदि जनमत संग्रह हो जाता है तो हो सकता है कि बहुसंख्यक मुसलमान पाकिस्तान में जाने का निर्णय कर लें । फिर जम्मू व लद्दाख के लोगों को भी जबरन पाकिस्तान में जाना पड़ेगा । शेख अब्दुल्ला ने जम्मू संभाग के हिन्दु बहुल ज़िला उधमपुर को तोड़ कर डोडा व किश्तबाड़ दो नये मुस्लिम बहुल ज़िला बना दिये । इससे गैर इस्लामी लोगों के मन में शेख के इरादों को लेकर संशय और गहरा होने लगा ।
स्वभाविक ही जम्मू संभाग में रियासत के भारत में पूर्ण विलय को लेकर आन्दोलन छिड़ गया । प्रजा परिषद के इस जन आन्दोलन की दो प्रकार की प्रतिक्रिया हुई । कांग्रेस और नेहरु को विश्वास था कि वे तुष्टीकरण से शेख अब्दुल्ला और कश्मीरी मुसलमानों को जीत लेंगे । लेकिन उनकी दृष्टि में प्रजा परिषद के आन्दोलन से शेख नाराज हो रहे थे , इसलिये कांग्रेस तुष्टीकरण के रास्ते पर और तेज़ी से दौड़ने लगी । इतना ही नहीं कांग्रेस ने प्रदेश में अपनी शाखा तक स्थापित नहीं की ,क्योंकि इससे भी शेख के नाराज होने का ख़तरा था । प्रजा परिषद के आन्दोलन को कुचलने के लिये शेख अब्दुल्ला बल प्रयोग कर रहा था । सत्याग्रही शहीद हो रहे थे ा लेकिन नेहरु देश भर में प्रजा परिषद के आन्दोलन के खिलाफ़ विष वमन कर रहे थे । शेख अब्दुल्ला पर इस आन्दोलन की प्रतिक्रिया दूसरे प्रकार की थी । उन्हें लगता था यह आन्दोलन उसकी पूरी योजना को अनावृत कर रहा है । अभी तक कांग्रेस और नेहरु उनकी हर माँग आंखें बन्द कर स्वीकार रहे थे लेकिन इस आन्दोलन से , शेख को डर था कि इस गति में बाधा आ सकती है इसलिये वह आन्दोलन को किसी भी कीमत पर कुचलने का प्रयास कर रहे थे । यही कारण था कि आन्दोलन के थोड़े से समय के भीतर ही पन्द्रह सत्याग्रही शहीद हो गये । लेकिन प्रजा परिषद के आन्दोलन और डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदेहास्पद मृत्यु से शेख अब्दुल्ला पूरी तरह बेनकाब हो गये । उन्हें गिरफ्तार करना पड़ा और रियासत के भारत में विलय की गति तेज हुई । प्रजा परिषद का आन्दोलन यदि न हुआ होता तो जम्मू कश्मीर प्रान्त केवल तीन मामलों में ही भारत से सम्बंधित रहता । भारतीय संविधान के अनुच्छेद एक की प्रासांगिकता केवल इतनी ही होती कि भारत के मानचित्र में जम्मू कश्मीर भी दिखाया भर जाता रहता । व्यावहारिक रुप से यह प्रान्त देश के भीतर देश बन जाता । प्रजा परिषद के आन्दोलन का ही परिणाम था कि सरकार को एकीकरण की प्रक्रिया तेज करनी पड़ी ।