लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाने के फायदे अनगिनत हैं लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? विधि आयोग राजी है, चुनाव आयोग राजी है लेकिन नेता लोग राजी हों, यह सबसे ज्यादा जरुरी है। नेताओं के प्राण तो बस दो ही चीज़ों में अटके रहते हैं। नोट और वोट में! वोट के लिए नोट जुटाओ और वोट मिल जाने पर नोट पटाओ। जब तक सारे नेता एक राय न हों, संविधान में संशोधन कैसे होगा?
यदि संविधान में संशोधन हो जाए और अमेरिका की तरह भारत में भी ऐसा प्रावधान हो जाए कि हर लोकसभा और हर विधानसभा अपने पांच साल पूरे करेगी तो देश की राजनीति में जबर्दस्त स्थिरता आ जाएगी। लोकसभा और विधानसभाएं पांच साल तक चलेंगी, इसका मतलब यह नहीं है कि केंद्र और राज्यों की सरकारें भी पांच साल तक चलेंगी। उन्हें बीच में कभी भी बदला जा सकता है। सरकारें भंग होंगी, लोकसभा और विधानसभाएं नहीं। एक सरकार जाएगी तो उसकी जगह दूसरी सरकार आएगी।
नेताओं को बहुत आराम हो जाएगा। हर चार-छह माह में उन्हें नोट और वोट के लिए भीख-मांगने नहीं निकलना पड़ेगा। उन्हें अपने सरकारी दायित्वों को पूरा करने का समय मिलेगा। लोगों को भी चुनाव बाजी से चैन मिलेगा। अखबार और चैनल भी तू-तू–मैं-मैं पत्रकारिता से बच सकेंगे। वे गंभीर समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकेंगे।
यदि संविधान में अभी संशोधन हो जाए और 2019 में वह लागू हो जाए तो कुछ राज्यों को आपत्ति हो सकती है। ये वे राज्य हैं, जिनके चुनाव इस साल हुए हैं या जिनके अगले दो-ढाई वर्षों में होने वाले हैं। उन राज्यों को धैर्य रखना होगा। उनका नुकसान बस एक बार होना है। ऐसा नुकसान तो ऐसे भी हो सकता है कि ये विधानसभाएं अधबीच में ही भंग कर दी जाएं, जिसका संवैधानिक अधिकार आज भी केंद्र को है। सारे दल और सारे राज्य मिलकर सर्वसम्मति इस नई व्यवस्था को स्वीकार करें तो उनका भी भला होगा और देश का भी।