पिछले दो हजार साल में भारत ने चीनियों को इतनी विद्याएँं, इतना धर्म, इतना दर्शन और इतना आचार-विचार सिखाया है कि अब हम उनसे कुछ सीखना चाहें तो इसमें हमारे आत्म-सम्मान को ठेस लगने का कोई प्रश्न नहीं उठता। पिछले तीन हफ्ते मैं चीन में रहा तो पहले 8-9 दिन तो भाषणों और संगाष्ठियों में ही बीत गए। उनमें भी घूमने-फिरने और लोगों को देखने-बरतने का मौका मिला। लेकिन शेष 10-12 दिन तो चीन के एक कोेने से दूसरे कोने में घूमते ही रहे। चीन की अपूर्व आर्थिक समृद्धि और प्रचंड सैन्य-शक्ति का रहस्य क्या है, यह प्रश्न पहले ही दिन से मेरे दिमाग में कौंधता रहा।
सबसे पहली बात तो मुझे समय की पाबंदी ही समझ में आई। आठ बजे याने ’’लगभग 8 बजे’’ नहीं। 8 बजे में 5 मिनिट भी नहीं और 8 बजकर 5 मिनिट भी नहीं। उसका मतलब है, 7 बजकर 60 मिनिट ! कुछेक सेकंड इधर-उधर हो सकते हैं। दो-चार मिनिट का फर्क नहीं पड़ सकता। रोज सुबह बिल्कुल ठीक समय पर मेरे मेजबान मुझे लेने आ जाते थे। 12 साल पहले जब पहली बार मैं चीन आया था तो मुझे इस बात का पता चल गया था। मैं एक दिन भी लेट नहीं हुआ। रेलें, बसें और हवाई जहाज हमारी तरह 12.20 या 2.30 या 8.40 या 9.50 आदि पर भी रवाना होते हैं लेकिन उनका समय ऐसा भी होता है – 12.19 या 2.13 या 8.38 या 9.40 यूरोप में भी रवानगी के समय इस तरह के होते हैं। मैंने सोचा जरा चेक किया जाए कि पाबंदी किस हद तक है। पेइचिंग से जंग जऊ की रेल 1.28 पर रवाना होनी थी। हम 1.10 पर अपने डिब्बे में पहुँचे। मेरा चीनी साथी पसीने में तर-बतर था। वह प्लेटफार्म पर सामान घसीटते हुए मुझसे कह रहा था कि आज ट्रेन तो मिलने से रही। मैं घड़ी पर टकटकी लगाए रहा। वह ट्रेन ठीक 1.28 पर चल पड़ी। डेढ़ बजे तक याने दो मिनिट में वह स्टेशन से बाहर हो गई। जंग जऊ भी वह अपने समयानुसार ठीक 7.50 पर पहुंची। चीन में मेरे जितने भी निजी और सार्वजनिक कार्यक्रम हुए, वे बिल्कुल ठीक समय पर शुरू हुए। शाओ लिन के विश्व प्रसिद्ध बौद्ध विहार में कुंग-फू देखने गए तो एक बजे के बाद घड़ी का कांटा जैसे ही तीसवें मिनिट पर पहुंचा, सभागार के द्वार बंद कर दिए गए। मुझे चीनी साथियों ने बताया कि लोग सुबह बसों में बैठकर जब अपने दफ्तर जाते हैं, उस समय यदि ट्रफिक जेम हो जाए तो वे लोग बसों से कूद-कूदकर दूसरे रास्ते पर दौड़ते हुए जाते हैं और दफ्तर के लिए टैक्सी पकड़ते हैं। समय की पाबंदी के कारण ही चीन में बड़े-बड़े भवन, पुल और सड़कें कुछ ही माह में बनकर तैयार हो जाते हैं। जहां भी निर्माण-कार्य चल रहा हो, वहां कार्य संपन्न होने की तिथि भी लिखी रहती है याने फलां तारीख तक यह भवन या पुल बन जाएगा। अक्सर उस सुनिश्चित तिथि के पहले ही वह निर्माण-कार्य संपन्न हो जाता है। यदि विलंब हो जाए तो निर्माणकर्मी संस्था को जुर्माना भरना पड़ता है। क्या हम इस तरह के नियम भारत में बना सकते हैं ?
चीनी लोगों में अनुशासन भी गजब का है। कल-कारखानों, दफ्तरों, खेतों, संगठनों आदि में हड़ताल, कामचोरी, लेटलतीफी, लापरवाही आदि को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जाता। इसीलिए जो कम्पनियां आज से सिर्फ 20 साल पहले 10 हजार डाॅलर की पूंजी से शुरू र्हुइं, उनकी सम्पत्ति आज कई अरब डालर की हो गई है। 15 कर्मचारियों से बढ़कर 25000 हो गए हैं। पेइचिंग में विश्व-प्रसिद्ध कंपनी लेनोवो के उच्चाधिकारियों से भेंट हुई। उन्होंने आई बी एम जैसी कुछ विश्व-प्रसिद्ध अमेरिकी कंपनियां खरीद ली हैं और कुछ खरीदनेवाले हैं। लेनोवो कंपनी के उस हिस्से में हम घूमे, जिसमें कंप्यूटर बनते हैं। सैकड़ों लोग कंप्यूटर के पुर्जे फिट कर रहे थे। उनमें से किसी को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि वह हमारी तरफ आंखें उठाकर भी देखे। ऐसा इसलिए होता है कि हर कर्मचारी को शाम तक कुछ निश्चित संख्या में कम्प्यूटर तैयार करके देने होते हैं। अगर नहीं देंगे तो तनखा कटेगी। कोई भी कर्मचारी हमें आपस में बात करते हुआ या इधर-उधर घूमता हुआ नहीं दिखा। यी वू नामक जगत्प्रसिद्ध उद्योग नगर में जब हम एक मौजा-फैक्टरी देखने गए तो वहां भी यही दृश्य दिखा। हजारों लोग मधुमक्खियों की तरह दत्तचित्त होकर अपना काम करते हैं। अनेक चीनी कंपनियों ने अमेरिकी कंपनियों को मात कर दिया है। वे यूरोपीय, जापानी और अमेरिकी ब्रांडों का माल अपने यहां तैयार करती हैं। यह नकली माल असली माल से भी ज्यादा चकाचक होता है। और उसकी कीमत एक बटे सौ भी नहीं होती है। सेमसोनाइट का जो सूटकेस 10 हजार रु. में मिलता है, वही चीन में 500 रु. में मिल जाता है, मो ब्लाॅं का जो पेन 80 हजार रु. में मिलता है, वही चीन का बना 150 रु. में मिल जाता है। जो घड़ी एक लाख की मिलती है, चीनी उसे 200 में बेचते हैं। मैंने एक कारखानेदार से हांगजाऊ में पूछा कि इसका रहस्य क्या है तो बोला, हमारी ध्यान शक्ति और दिमागी अनुशासन ! पहले हम उस चीज को बहुत ध्यान से देखते हैं, उसका पुर्जा-पुर्जा उधेड़ डालते हैं और फिर बिल्कुल वैसी ही बनाकर तैयार कर देते हैं। हमारे कर्मचारियों को लगातार प्रशिक्षित करते रहते हैं। उनके सामने ऊंची चुनौतियां रखते जाते हैं और लक्ष्य प्राप्त करनेवाले कर्मचारियों को पुरस्कृत करते जाते हैं। कर्मचारियों के रोज के काम पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। हम ऐसा न समझ लेें कि कर्मचारियों को बहुत ज्यादा तनखा मिलती है। निचले और मध्यम दर्जे के कर्मचारियों को 25 युआन से 80 युआन प्रतिदिन तक की तनखा मिलती है याने सवा सौ रुपए से 400 रु. रोज तक ! छोटे कस्बों और गांवों में 20-25 रु. से 50-60 रु. रोज पर भी अक्सर लोग दिन भर काम करते हैं। शिंच्यांग (सिंक्यांग) प्रांत के उरुमची और तुरफान जैसे शहरों के ढाबों, होटलों और खेतों में ऐसे लोग भी दिखे। चीन में जितनी आर्थिक विषमता है, उतनी भारत में नहीं है लेकिन चीनी समाज में मुझे उसी अनुपात में असंतोष या जलन या उपद्रव दिखाई नहीं पड़ा। लोग अपने-अपने काम में शांतिपूर्वक लगे हुए दिखे। इसका कारण यह भी हो सकता है कि चीन में अब भी कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ काफी मजबूत है। आर्थिक उदारता तो पूरी है लेकिन राजनीतिक उठा-पटक को खुलकर खेलने का मौका अब भी नहीं है। चीनी संसद में नौ पार्टियां हैं लेकिन वे नाम-मात्रा की हैं। मजदूरों और कर्मचारियों को भड़कानेवालों को सख्त सजा मिलती है। पेइचिंग के प्रसिद्ध लोक-बाजार शू-श्वे बाजार की हजारों गुमटियों को तोड़कर एक भवन में बसा दिया गया और अभी शंघाई के ऐसे ही प्रसिद्ध बाजार को एक जुलाई को तोड़ दिया गया है लेकिन किसी ने चंू तक नहीं किया।
चीन में साफ-सफाई भी देखने लायक है। भवनों, सड़कों, बाजारों, बसों, रेलों और जहाजों में कहीं भी कचरा दिखाई नहीं पड़ता। अपनी चीजों को चमकाकर रखना मानो चीनियों का स्वभाव ही बन गया है। छोटे-छोटे दुकानदार भी अपने फलों और सब्जियों को धोकर जमाते हैं। मैं लगभग दर्जन भर होटलों में ठहरा हूं लेकिन किसी भी होटल का बाथरूम गंदा या बदबूदार नहीं मिला। पर्यटन-स्थलों पर अक्सर कचरा और गंदगी दिखाई पड़ती है लेकिन चीन में ऐसा नहीं है। इसका कारण शायद यह है कि बचपन से ही बच्चों को कूड़ेदान का महत्व समझा दिया जाता है। सफाई कर्मचारियों का काम सुबह-सुबह खत्म नहीं हो जाता। उन्हें दिन में दो-तीन बार पूरी सफाई करनी पड़ती है और दिन भर निगरानी रखनी पड़ती है कि उनके क्षेत्रा में कोई गंदगी न हो जाए। जरा-सी ंिचंदी भी कहीं गिरी हो या कागज का टुकड़ा भी गिरा हो या फर्श पर गंदे जूते का जरा-सा भी दाग लगा हो तो सफाई कर्मचारी तुरंत सक्रिय हो जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि पूरा चीन ही नंदनवन है। गांवों और कस्बों में मैंने अपवाद भी देखे हैं लेकिन मोटे तौर पर चीनी सरकार और जनता सफाई के बारे में काफी सजग है। एक जमाने में स्वयं माओ त्से तुंग ने जबर्दस्त सफाई अभियान चलाया था।
चीन का शाकाहारी भोजन शायद दुनिया का सर्वश्रेष्ठ भोजन है। मैं अपने चीनी मेजबानों से बोलता था कि यदि आप लोग शाकाहारी हो जाएं तो आप लोग सवा-सवा सौ साल तो जिएंगे ही, सदा स्वस्थ भी रहेंगे। चीनी शाकाहारी भोजन में हरी सब्जियों का विशेष स्थान है। मैंने दर्जनों प्रकार की पत्तेवाली हरी सब्जियां और फलियां स्वयं खाई हैं। दर्जनों तरह के मशरूम और दर्जनों तरह के कंदमूल चीनी लोग प्रतिदिन खाते हैं। उनके खाने की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे उसे अधपका रखते हैं। उसे पूरी तरह नहीं उबालते याने किसी भी सब्जे के मूल गुण नष्ट नहीं होने देते। वे बहुत कम मसालों का प्रयोग करते हैं। कुछ सामिष और निरामिष पकवानों में जमकर मिर्ची डालते हैं लेकिन वह पिसी हुई लाल मिर्च नहीं होती, साबुत लाल मिर्च या तली हुई मिर्च होती है। कच्चे करेले खानेवाली जाति शायद दुनिया में सिर्फ चीनियों की ही है। चीनी लोग उबला हुआ चावल प्रतिदिन खाते हैं लेकिन भाप से पकाए हुए चावल, गेहूं, चने और सोया के आटे के जितने व्यंजन मैंने चीन में खाए, उतने दुनिया के किसी देश में नहीं खाए। वे हमारी इडली से भी अधिक स्वादिष्ट और सुपाच्य होते हैें। मैंने किसी चीनी को ठंडा पानी पीते हुए नहीं देखा। हां, किसी पिकनिक या बाजारगर्दी पर जाते वक्त वे हाथ में बोतलबंद पानी जरूर रखते हैं लेकिन अगर उन्हें गर्म पानी मिल जाए तो वे उसे भूल जाते हैं। भोजन के समय वे निरंतर चाय या गर्म पानी पीते रहते हैं। एक बार में चार-छह कप गर्म पानी पी जाना उनकी आदत है। चीनियों की चाय में दूध और चीनी नहीं होती। होटल के कमरों में बिजली की केटली पड़ी होती है। गर्मागर्म पानी कप में डालिए और उसमें चाय की पुडि़या या पत्ती डालकर ढक दीजिए। उसी पुडि़या या पत्ती पर गर्म पानी डालते रहिए और पीते जाइए। गर्म पानी का यह प्रचुर सेवन हाजमे के लिए अच्छा है और चर्बी की काटा भी करता है। इसीलिए चीन में तोंदवाले लोग कम दिखाई पड़ते हैं। चीनी चाय असंख्य प्रकार की हैं। अलग-अलग तरह की चाये ंतो हैं ही, उनके अलावा सैकड़ों प्रकार के फूलों, फलों और पत्तों को सुखाकर चीनी लोग अपनी चाय का आनंद लेते हैं। जैसे चाय वैसे ही सोयाबीन के आटे और दूध से चीनी लोग असंख्य पकवान बनाते हैं। वे प्रोटीन के भंडार होते हैं। चीनी लोग मिठाई बहुत कम खाते हैं। भारत जैसी मिठाइयां तो वहां होती ही नहीं। गुलगुले जैसी कुछ मिठाइयां जरूर हैं लेकिन उनमें मीठा बहुत कम होता है। चीनी हम चीनी शायद चीन के कारण ही कहते हैं लेकिन चीन में उसका प्रयोग बहुत कम होता है। अगर चीनियों की तरह भारतीय लोग अपने खान-पान में चीनी की मात्रा कम कर दें ंतो क्या राष्ट्रीय स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो जाएगा।
अपने खाने के साथ चीनियों का अक्सर शराब पीना मुझे आश्चर्यजनक लगता है। शराब का इतना सेवन कभी सोवियत संघ में हुआ करता था लेकिन सारे पश्चिमी जगत में तब भी शराब का चलन इतना ज्यादा न था। इसका कारण शायद यह भी हो कि सोवियत और चीनी व्यवस्थाओं में धर्म का स्थान लगभग नहीं के बराबर है। चीनी लोग हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों की तरह किसी खास धर्म के अनुयायी नहीं हैं। उनके यहां धार्मिक कर्मकांड लगभग नहीं के बराबर है। कन्फूत्से (कन्फ्यूशियस) की परम्परा और बौद्ध नास्तिकता चीनी आचरण की अंतःसलिला हैं। इसीलिए नैतिकता के मामले में चीनी समाज अपनी परंपराओं के अलावा किन्हीं खास मर्यादाओं में बंधा हुआ नहीं हैं। चीनी समाज अपनी अपूर्व आर्थिक प्रगति के बावजूद खतरे के गहरे कगार पर खड़ा दिखाई पड़ता है। उसे पता नहीं, वह किधर जा रहा है। एक बार वह बुद्धं शरणं गच्छामि हुआ, एक बार वह माक्र्सं शरणं गच्छामि हुआ और अब वह कहीं बुशं शरणं गच्छामि न हो जाए। भारत को चीन से यह सबक सीखना होगा कि समृद्धि की चकाचैंध उसे कहीं दिग्भ्रमित न कर दे।
समृद्धि की भेड़-चाल में चीन इस कदर डूब रहा है कि उसने अंग्रेजी के तिनके को जहाज समझकर पकड़ लिया है। हर चीनी नौजवान पर अंग्रेजी सीखने का नशा सवार है। बड़े-बड़े शहरों की सड़कों पर लगे नामपटों पर चीनी के साथ-साथ अंग्रेजी भी लिखी रहती है। यह परिवर्तन पिछले 10-15 वर्षों में ही हुआ है। अंग्रेजी सीखना अपने आप में बड़ा धंधा बन गया हैं। लगता है चीन भी भारत की तरह बौद्धिक दृष्टि से गुलाम देश बनने पर उतारू है लेकिन मुझे एक फर्क जरूर लगा। वह यह कि चीन के लोग अंग्रेजी को विदेशी भाषा के रूप में सीख रहे हैं। उसे अपनी मातृभाषा के सिर पर नहीं बिठा रहे। चीनी सरकार और जनता अपना सारा कामकाज चीनी भाषा में ही करती है लेकिन विदेशियों को आकर्षित करने, अपने विदेशी व्यापार को बढ़ाने और पश्चिमी दुनिया में अपनी पैठ जमाने के लिए चीन अंग्रेजी सीख रहा है। मैंने किसी भी चीनी विद्वान को संगोष्ठियों में अंग्रेजी बोलते हुए नहीं सुना। मैंने किन्हीं भी दो चीनियों को आपस में अंग्रेजी में बात करते हुए नहीं देखा।ा पेइचिंग के विश्व-प्रसिद्ध सीसीटीवी पर जब मैं रेकार्डिंग के लिए गया तो उस कार्यक्रम की निदेशक और मेरा इंटरव्यू लेनेवाली दोनों महिलाएं मुझसे धाराप्रवाह अमेरिकन अंग्रेजी में बात कर रही थीं लेकिन वे दोनों भी आपस में एक शब्द भी अंग्रेजी में नहीं बोलीं। स्वदेशी लोगों से विदेशी भाषा में बात करना घोर अपमान है, यह बात हमारा हिंदुस्तान कब समझेगा ? हमारा देश तो इतना निर्लज्ज है कि उसकी संसद में लोग अंग्रेजी बोलते हैं, उसके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्राी और न्यायधीशों को अपना काम-काज अंग्रेजी में करने में कोई शर्म नहीं आती। चीनियों के लिए अंग्रेजी नौकरानी है, भारतीयों के लिए वह महारानी है। भारतीय और पाकिस्तानी छात्रों को डाॅक्टरी पढ़ाने के लिए याने पैसे की फसल काटने के लिए चीनी डाक्टर भारत और पाकिस्तान आकर पहले अंग्रेजी सीखते हैं, हमारे जैसा उच्चारण बना लेते हैं और फिर उन्हें अंग्रेजी में डाक्टरी पढ़ाते हैं लेकिन उनके अपने छात्रों को डाक्टरी ही नहीं, सभी विषयों की उच्चतम शिक्षा चीनी भाषा के माध्यम से देते हेैं। वे जानते हैं कि विदेशी भाषा का माध्यम मूल पढ़ाई की गुणवत्ता घटाता है और छात्रों का दिमागी बोझ बढ़ाता है। स्वभाषा में सर्वाेच्च शिक्षा देकर चीन यदि भारत से कई गुना अधिक समृद्ध और शक्तिशाली बन सकता है तो भारत को अंग्रेजी की गुलामी क्यों करनी चाहिए ?
चीन में मैंने स्त्रिायों को बहुत सक्रिय देखा। दफ्तरों, दुकानों, रेलों, बसों, खेतों आदि में सर्वत्रा औरतों का बोलबाला है। हर जगह युवा कन्याएं और महिलाएं डटी हुई मिलती हैं। उन्हें देखकर लगता है कि चीन में औरतों का अनुपात कहीं आदमियों से डेढ़ा तो नहीं है ? शंघाई और पेइचिंग में कुछ बाजार तो ऐसे हैं, जहां आदमी दुकानदार दिखाई हीं नहीं पड़ते। औरतें इतनी पटु दुकानदार हैं कि वे चतुर से चतुर आदमी को ठग लें। वे इतनी आक्रामक होती हैं कि कंजूस से कंजूस ग्राहक की अंटी ढीली करवा लेती हैं। होटलों और रेस्तरां में तो औरतों का ही राज्य है। उनका बर्ताव अत्यं शिष्ट, मधुर और मर्यादित होता है। उन्हें देखकर लगता है कि आखिरकार वे एशियाई हैं। पश्चिमी महिलाओं के मुकाबले वे अलग दिखाई पड़ती हैं। पुरुषों की तरह चीन की महिलाएं भी अमेरिकी वेश-भूषा ही पहनती हैं। शहरों में जरा ज्यादा ही खुलापन है। इन दिनों गर्मी का मौसम था। इसलिए युवा महिलाओं को न्यूनतम वस्त्रा पहनने का बहाना मिल जाता है। पुरुषों के मुकाबले चीन में महिलाओं का सामथ्र्य लगभग बराबर मालूम पड़ता है लेकिन संगठनों के सर्वाेच्च निर्णायक पदों पर अब भी पुरुषों का ही वर्चस्व है। चीनी समाज पहले साम्यवाद और अब पूंजीवाद की भट्ठी में तपनेे के बावजूद अभी तक पुरुष-प्रधान ही है। मुझे यह आश्चर्य हुआ कि मेरे साथ शंघाई और पेइचिंग विश्वविद्यालय तथा कई शोध-संस्थानों और अकादमियों के आचार्याें का जो संवाद हुआ, उनमें सभी पुरुष थे। एक भी स्त्राी नहीं थी। इसी प्रकार शिंच्यांग (सिंक्यांग) की मस्जिदों में भी मैंने एक भी महिला नहीं देखी। इन छोटे शहरों जैसे उरुमची, तुरफान, लो यांग, जंग जऊ आदि में दुकानों पर भी पुरुषों की भरमार दिखी। भारत की तरह चीन में भी औरतें बहुत सुरक्षित मालूम नहीं पड़तीं। शाम के बाद वे टैक्सियों में अकेली नहीं जातीं। वे बसों और भूमिगत रेलों में चलना पसंद करती हैं। चीन की टैक्सी में एक विचित्रा-सा रिवाज है बल्कि नियम है। रात दस बजे के बाद यदि तीन सवारी हैं और उनमें से एक औरत और दो आदमी हैं तो औरत को अगली सीट पर ड्राइवर के साथ बैठना होता है और आदमियों को पीछे। ड्राइवर के चारों तरफ लोहे का जंगला लगा रहता है। माना जाता है कि अगर औरत साथ की सीट पर है तो ड्राइवर को उससे कोई डर नहीं है याने पुरुष के मुकाबले औरत कम खतरनाक है। चीन में औरतें बस चलाती हैं, कंडक्टरी करती हैं और नाकों पर बैठकर रोड टैक्स वसूल करती हैं। चीन में ऐसे बहुत कम काम हैं, जिन्हें आदमी करते हों और औरतें न करती हों।
भारतीय गं्रथों में लिखे अनेक आप्त-वचनों को चीनियों ने अपने दैनंदिन जीवन में साकार करके दिखाया है। ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।’ यह उक्ति चीनी लोग अपने भोजन, औषधि और व्यायाम द्वारा प्रतिदिन चरितार्थ करते हैं। उनके सामिष भोजने के बारे में अगर कुछ न कहूं तो बेहतर है। वे गधे, घोड़े, बंदर, भालू, सांप, छिपकली आदि सब कुछ खाते हैं लेकिन उनकी औषधियों में जड़ी-बूटियों को अद्वितीय स्थान है। अनेक छोटे कस्बों और गांवों में मुझे लोगों ने बताया कि वे घरेलू इलाज को बहुत महत्व देते हैं। चीन के बड़े-बड़े सुपर बाजारों में भी सैकड़ों जड़ी-बूटियां बिकती हुई दिखाई पड़ती हैं। उन्हें देखकर लगता है कि यह भारतीय आयुर्वेद का ही बेहतर संस्करण है। ज्यादातर बोतलों और पेकेटों पर सारा विवरण चीनी में ही लिखा होता है लेकिन उन्हें देखने पर अंदाज हो जाता है कि ये हमारी औषधियों से मिलती-जुलती हैं। वास्तव में डेढ़-दो हजार साल पहले जो भारतीय भिक्खु सैकड़ों की संख्या में चीन गए, वे अपने साथ भारतीय औषधियां और उनका ज्ञान भी साथ ले गए। चीनी डाक्टर लोग एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर पर बहुत जोर देते हैं। वे आसन और प्राणायाम भी अपने ढंग से करते हैं लेकिन मूलतः ये सब भारतीय पद्धतियां हैं। मैं हजारों चीनियों को रोज सुबह-सुबह दौड़ लगाते, घूमते या वाटिकाओं में व्यायाम करते देखता हॅूं। बड़े शहरों में लाखों लोग साइकिल चलाते हैं। बड़े-बड़े विद्वानों और मेनेजरों के पास कारें नहीं हैं। वे कहते हैं, साइकिल चलाने से सेहत ठीक रहती है, प्रदूषण नहीं होता, खर्च नहीं होता और पार्किंग के सिरदर्द से बचते हैं। अभी-अभी आई समृद्धि के कारण चीन में भी कारें खरीदने की होड़ लगी हुई है लेकिन साइकिल-चालन और नित्य व्यायाम ने चीन के स्वास्थ्य को बुलंद कर रखा है। वृद्धों की बढ़ती हुई संख्या से चीन चिंतित है लेकिन वृद्ध यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहें तो वे राष्ट्र के लिए बहुत कल्याणकारी साबित हो सकते हैं। जापान के निकट चीनी इलाके के प्रसिद्ध शहर तालियान के कुछ नेताओं ने मुझसे अनुरोध किया कि अगर मैं भारत से कुछ योगाचार्यों को वहां भिजवा दूं तो वे उन्हें मुंहमांगा पारिश्रमिक देंगे और उनके लाखों शिष्य खड़े कर देंगे। मैंने कहा कि वे आपके मांसाहार और मद्यपान में बाधक बन जाएंगे। इस पर उन्होंने कहा कि वह भी देखा जाएगा। पहले उन्हें आने तो दीजिए। चीनियों ने अपना मूल-मंत्रा इस उक्ति को बना लिया है कि ‘सेहत है तो संसार है।’
चीन की बढ़ती हुई शक्ति और मजबूती का एक प्रमुख कारण उनका प्रचंड राष्ट्रवाद है। वे बुद्ध के अनुयायी हों या माक्र्स के या बुश के, वे सबसे पहले चीन को प्यार करते हैं। चीन की खूबी यह है कि उसकी 98 प्रतिशत जनसंख्या एक ही जाति की है। वह है – हान। भारत की तरह अलग-अलग जातियों, अलग-अलग मजहबों, अलग-अलग भाषाओं के लोग तो चीन में मुश्किल से 2-3 प्रतिशत हैं। चीनियों को अपनी क्षेत्राीय बोलियों, खान-पान और रहन-सहन पर गर्व है तो लेकिन अंततोगत्वा वे सब हान होने के कारण एकता के सूत्रा में बंधे रहते हैं। हान लोग संसार में स्वयं को सबसे अधिक सभ्य समझते हैं। वे चीन को संसार का केंद्र बिंदु मानते हैं। वे चीनी राज्य के बाहर के लोगों को असभ्य और बर्बर मानते रहे हैं। चीन में राज्य की ढाई-तीन हजार साल की अविरल परम्परा है। देशभक्ति और राष्ट्र-रक्षा का भाव चीनियों में इतना प्रबल है कि उसके लिए वे बड़ी से बड़ी कुर्बानी कर सकते हैं। इसी 1 जुलाई को चीनियों ने शंघाई और पेइचिंग से ल्हासा तक रेल चला दी। यह दुनिया के सबसे ऊंचे पठार पर चलनेवाली रेल है। इस पर अरबों रु. खर्च हुआ लेकिन क्योंकि तिब्बत को आत्मसात करना था, इसलिए चीनियों ने असंभव को संभव बना दिया। कश्मीर तो तिब्बत के मुकाबले बहुत अनुकूल स्थान है लेकिन क्या वहां भारत अभी तक रेल पहुंचा पाया ? इतना ही नहीं, चीनी राष्ट्रवाद का दूसरा प्रमाण यह है कि तिब्बत और शिंच्यांग जैसे गैर-हान क्षेत्रों में अब यह कहना आसान नहीं रहा कि किसकी जनसंख्या ज्यादा है ? स्थानीय लोगों की या हानों की ? सरकारी किताबों में शिंच्यांग में 80 लाख उइगर मुसलमान और 70 लाख हान दिखाए गए हैं। अगर यह आंकड़ा सही मान लें तो भी यह क्या कम बड़ी बात है कि चीन की मुख्य भूमि से इतनी बड़ी संख्या में लोग अपना घर-बार छोड़कर अजनबियों के बीच जा बसे ? चीनी राष्ट्रवाद का तीसरा ठोस प्रमाण यह है कि प्रवासी चीनियों ने अपने राष्ट्र-निर्माण के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। जरा तुलना करें भारतीय प्रवासियों और चीनी प्रवासियों की ! चीनी प्रवासियों की शतांश राशि भी भारतीय प्रवासी भारत में निवेश नहीं करते। चीनी चीन में रहें या विदेश में, चीन हमेशा उनके मन में रहता है। क्या हम भारतीय इस तरह का मन बना सकते हैं ?