नरेंद्र मोदी बहुत भाग्यशाली हैं। अफगानिस्तान में जो स्थायी महत्व के कार्य भारत ने किए हैं, उनकी पूर्णाहुति कब हुई, जब मोदी प्रधानमंत्री बने। ये काम शुरु और पूरे तो किए अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहनसिंह सरकार ने लेकिन इनका श्रेय मिल रहा है, नरेंद्र मोदी को। इन कार्यों की मूल योजना बनाने वाले अफगान प्रेमियों के अलावा जो तकनीकी विशेषज्ञ थे, वे अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अब से 40-50 साल पहले जो सपना हमने देखा था, वह अब साकार हुआ है। इंदिराजी के नाम पर काबुल में एक अस्पताल तो पहले से चल रहा था लेकिन विशाल संसद भवन, 220 किमी की जरंज-दिलाराम सड़क, हेरात का सलमा बांध और पुले-खुमरी से काबुल तक की बिजली लाइन ऐसे काम हैं, जिन्हें बेजोड़ कहा जा सकता है।
इनकी टक्कर के काम दुनिया के किसी भी देश ने अफगानिस्तान में नहीं किए हैं। पिछले डेढ़-दो दशक में भारत से ज्यादा पैसा सिर्फ जापान ने अफगानिस्तान में खर्च किया है लेकिन आज भारत की जो लोकप्रियता अफगानिस्तान में है, किसी देश की नहीं है। भारत ने अभी तक 12 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किए हैं और अपने कई लोगों की कुर्बानी भी दी है।
जाहिर है कि भारत के इस बढ़ते हुए प्रभाव से पाकिस्तान खुश नहीं होगा। पाकिस्तान अपने इस पड़ौसी देश को अपना पांचवां प्रांत समझता है। उसने लाखों अफगान-शरणार्थियों को शरण भी दी है और उनके कारण कई तकलीफें भी भुगती हैं लेकिन यह भी सत्य है कि उसने अफगान-राजनीति में जबर्दस्त दखलंदाजी भी की है। तालिबान उसी की वजह से अब तक दनदना रहे हैं। इसी का नतीजा है कि आज लगभग पूरा अफगानिस्तान, पाकिस्तान-विरोधी हो गया है।
राष्ट्रपति अशरफ गनी को अपनी नीति बदलनी पड़ी है। वे अब भारत के पास ज़रा ज्यादा खिसकने लगे हैं। इस नई नीति के लिए अंतरराष्ट्रीय वातावरण भी अनुकूल है। अब यदि भारत, अफगानिस्तान और ईरान का त्रिभुज उभरे तो अमेरिका को भी कोई आपत्ति नहीं होगी बल्कि वह उसका समर्थक रहेगा। यहां हमारे उत्साही प्रधानमंत्री को जरा सावधानी से काम लेना होगा। वे पल में तोला और पल में माशा हो जाते हैं। यदि वे इस त्रिभुज को पाकिस्तान-विरोधी शक्ल देने की कोशिश करेंगे तो वे अफगानों को परेशानी में डाल देंगे। जरंज-दिलाराम सड़क और चाबहार के कारण अफगानिस्तान पर पाकिस्तान की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई है लेकिन आज भी यदि अफगान जन-जीवन और राजनीति में जितनी गहरी भूमिका पाकिस्तान की है, किसी देश की नहीं है। भारत को यदि दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में कोई गहरी और सार्थक भूमिका निभानी है तो इस त्रिभुज को चतुर्भुज बनाने की कोशिश कभी छोड़नी नहीं चाहिए। चतुर्भुज याने ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत!