ये उँची-लंबी, विशालकाय बहुमंज़िला इमारते, सरपट दौड़ती-भागती गाड़ीयाँ, सुंदरता का दुशाला औड़े चकमक सड़के, बेवजह तनाव से जकड़ी जिंदगी, चौपालों से ज़्यादा क्लबों की भर्ती, पान टपरी की बजाए मोबाइल से सनसनाती सभ्यता, धोती-कुर्ते पर शरमाती और जींस पर इठलाती जवानी, मनुष्यता को चिड़ाती व्यवहारशीलता, मेंल-ईमेंल में उलझी हुई दास्तानों और शहरी चाक-चौबंध पर पैबंध लगे पाजामें के लिबास में स्वच्छंदता की ग्रामीण शहनाई भारी हैं |
हर रोज मेरे शहर के भीतर एक नया शहर पैदा हो रहा है, सूर्योदय से अधिक रोशनी शहरों की सड़को पर सुबह-सुबह बिखरी मिल जाती हैं | और सूर्यास्त के बाद शहर अपने लिए एक नया सूर्य विकसित कर चुका होता हैं, जहाँ आधुनिक सभ्यताये अपनी भाषा के आईने में अपना व्याकरण गड़ती हैं | इतनी सारी यांत्रिक गतिविधियाँ संचालित होने के बाद भी, शहर के किसी भी आदमी के पास अपना ऐसा चेहरा भी नहीं जो लोगों के लिए चौराहा भी साबित हो सके |
भैंसों के तबेलों से निकला हुआ किसान, धरती के सौंदर्य का बखूबी बखान कर जाता है, उस धरती पर चारो और फैले लहलहाते खेत, नीले अंबर में मस्ताते काले बादल,नदी का मुहाना, खेतों में गीत गुनगुनाते हलधर किसान, गोधूली से ढकी सांझ, पनघट से हंसी-ठिठोली करती आती बहुए, गौबर से लिपि हुई कुछ झोपड़ीयाँ, कच्चे-पक्के घर, उन घरों के चूल्हे से निकला धुँआ, चौपाल पर चर्चाओं में डूबे बुजुर्ग, अधनंगे खेलते बच्चे-यही है एक गाँव का दृश्य ।
गाँव की वेशभूषा, परिवेश, और जिंदगी के छन-छनाते रोशनदान ज़रूर से यांत्रिक नहीं हैं पर इतना तो ज़रूर है क़ि शहर की आत्मा में विकास की गाठें हैं, लेकिन गाँव की आत्मा कपास की तरह खुली हुई हैं | एक अदद ग्रामीण व्यक्ति शहर में जब भी आएगा तो कुछ लेने नहीं बल्कि बहुत कुछ देकर जाएगा, जबकि शहरी जब भी गाँव की तरफ जाएगा, कुछ ना कुछ लेने के मतलब से ही जाएगा नहीं कुछ तो उनके सुकून के पल और गाँव के परिवेश का सुखंद ज़रूर ले आएगा| आख़िर आंचलिक, शहरी सभ्यता से क्या माँगता है? कुछ नहीं, केवल दृष्टा के भाव से शहर की तरफ आता हैं , केवल घूम कर देख कर फिर अपनी जड़ों की ओर लौट जाता हैं | यही सब कुछ इन इमारतों को रास नहीं आ रहा हैं | सचमुच आज सबकुछ बदल गया पर गाँव नहीं बदला, वही खेतों की मुंडेर, परसराम भैय्या की चाय की दुकान, और धनु काका की पान की टपरी…. इन सब के बीच सपनों की नुमाइश हो जाना, वही खबरों का प्रतिष्ठा पाना, और रोजमर्रा की उहापोह के बीच यकायक गाँव की हर छोटी-सी घटना का चर्चा बन जाना…आज सत्ता या अफ़सरशाही कितनी भी स्मार्टसिटी बना लें, कितनी ही उँचीं इमारते बना लें, पर वो गाँव की मिठासभरी सभ्यता और आत्मिकता से भरपूर बोली नहीं ला पाएगी |
चौपाल से तहसील, तहसील से जनपद, जनपद से अस्पताल, अस्पताल से थाने, थाने से फिर लौट कर चौपाल….. यही दिनचर्या है आंचलिक पत्रकार की ….इन सब के बीच सैकड़ों ख़बरे…. सैकड़ों उम्मीदे, सैकड़ों समझाइशें, हज़ारों दर्द, मार्मिकता, सहृदयता, आपसी प्रेम, फिर कही दिल के किसी कौने में दबी छिपी राजनीति…..
अक्सर बड़े शहरों की बड़ी इमारतों के आकर्षण में बँधे लोग, असल जिंदगी के सौपानों से मेंल-मुलाकात करने से दूरी बनाते हैं, उन्हे वही लगता है कि शहरों के सौंदर्य में ही खबरों का संसार हैं | हिन्दी साहित्य सदन के पुरोधा आंचलिक पत्रकार, भाषा के कुंभकार होते हैं, हर एक खबर रूपी कच्ची मिट्टी से समस्याओं के समाधान का पुलिंदा बनाते हैं, वही पुलिंदा मिट्टी के घड़े के मानिंद जनमानस को ठंडक और तृप्ति दे जाता हैं| जब गाँव की अदनी सी समस्या भी सुलझ भर जाए तो जनता उस पत्रकार को, जो खबरों का कुम्हार हैं उसे अपनी पलकों पर बिठा लेती हैं | इस खबरों के कुम्हार का जीवन हमेशा से ही जनसत्ता को चिर आनंद की अनुभूति देना भर ही रह जाता हैं | जब-जब भी जनमानस में किसी समस्या ने विद्रोह किया हैं , या राजनीति-दंडनीति ने विरोधाभास दर्शाया हैं, ये पत्रकार उन सब के खिलाफ अपना मौर्चा खोले जनता के साथ खड़ा मिला हैं | यही पहचान हैं एक क़लमकार की |
गाँव के हर एक शख्स से जब भी मिलोगे, एक नयी उर्जा मिलेगी, प्रेम मिलेगा, कुछ और ना मिल सका तो प्रेरणा ज़रूर मिलेगी | पर इन शहरी कट्टरताओं से जिंदगी भर भी लड़ते- भीड़ते रहे तो खाली हाथ ही लौटोंगे | अफ़सरशाही का भी नरम मिज़ाज और रिश्तों में शहद घुला प्यार, संकीर्णता पर विशालता का पुट ज़रूर पाओगे| खोज के रास्ते से गुज़रोंगे तो एक नया संसार खोज लाओगे, यही सच हैं धरती के आँचल का |
गाँव की तमाम उम्मीदों का पुलिंदा सौंप दिया जाता है एक अदद पत्रकार की झोली में, सच ना लगे तो चलिए गाँव, खुद-ब-खुद देख लीजिए श्रीमान….आप वातानुकूलित कमरों में बैठ कर गाँव का चित्र ज़रूर खीच सकते हैं, पर गाँव ‘जी’ नहीं पाएँगे…आख़िर विभिन्न भाषाओं और बोलियों का बेजोड़ मेंल और उसमें से खबर का छलक जाना ही उस सभ्यता का समूल चित्रण माना जाएगा| आर्थिक और तकनीकी में, यांत्रिकों और यंत्रों में शहर ज़रूर वजनी माना जाएगा, परंतु जब भी हिन्दी के विन्यास और विस्तार का ज़िक्र किया जाएगा, हिन्दी पत्रकारिता की कही बात भी होगी तो आंचलिक परिवेश में पली-बड़ी आंचलिक पत्रकारिता अपना लोहा ज़रूर मनवाएगी |
सत्ता के केंद्रबिंदुओं को भी अंचल की दहाड़ ही हिला कर रख देती हैं, सत्ता मदमस्त हो जाए तो देश की ७० फीसदी आबादी जो गाँवों में रहती है वही अपना आईना भी दिखा जाती हैं| कस्बों से चल कर आई नीति ने सदा से ही शहरी सभ्यताओं का मार्गदर्शन किया हैं , किंतु इन सब से अंजान कुछेक इमारते आज उन्ही मूल्यों को समय का उपहास मानने लगी हैं |
शहर के मोहल्लों और ‘वार्डों‘ में राजनीति ज़रूर हैं पर पत्रकारिता गौण है… संपादको को लगता हैं, गाँव की समस्याओं को सुलझाने में क्या मिलने वाला है, शहर में शान है, शोहरत है, पैसे है, सबकुछ तो है| मान लिया जाए शहरों में व्यापार हैं, शहरों में विज्ञापन का अंबार हैं, शहरों में चाकलेट और बिस्किट ज़रूर हैं पर आज भी गाँव में मिश्री-गुड की मिठास शेष हैं | दिलों में प्यार , वो राम-रहीम का मेंल और असलियत तो प्रधानी के चुनावों में भी देखा जा सकता हैं| शहरों में सबकुछ हैं, पर गाँव में खबरें हैं श्रीमान….
राजपाठ सम वैभवतुल्य शहरी सभ्यताओं ने ग्रामीण पहनावे पर ही रुककर ज़रूरतों के मुताबिक आंकलन की सीमाएँ बना ली, हर रिश्तों को पूंजी के मापदंडों से तौल दिया, समस्याओं को भी जिंदगी का कड़वा घूँट और पतन का मार्गदृष्टा मान लिया, किंतु इस तरह के लिबासी आंकलन को केवल मानव सभ्यता के विकास में समय की भूल माना जाएगा| यंत्र और यांत्रिकी से लबरेज रिश्ते कभी माटी के नैसर्गिक सौंदर्य की पराकाष्ठा हासिल नहीं कर पाएँगे|
भरी दुपहरी में भी कागज-कलम संभालती हुई, छज्जे से रिसति प्रशासनिक इमारतों के बीच, माटी की मिठास भरी धूल और मोहल्लों, वार्डों की समस्याओं को सुलझाती हुई आंचलिक पत्रकारिता का मूल्यांकन वातानुकूलित संयंत्रों सहित बंद कमरों से करने की हिमाकत करती संपादक की डेस्क गच्चा खा ही जाती हैं | गाँव में खबरें थी उसके हत्यारे हम है, आख़िर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की झलक अगर सच्चे अर्थों में नापनी है तो श्रीमान चलो गाँव चले….
आँकड़ों के अनुसार भारत के शहरों में 44 प्रतिशत परिवार 1 कमरे में गुजारा करते हैं और शौचालय की सुविधा सिर्फ 24 प्रतिशत आबादी को उपलब्ध है। 60 प्रतिशत शहरों में रोज निकलने वाले कूड़े को ठिकाने लगाने की व्यवस्था नहीं है तथा यह यों ही गलियों में खुले में सड़ता है। अधिकतर शहरों में बरसात के पानी की भी समुचित निकासी नहीं है। प्रदूषण की समस्या सबसे ज्यादा शहरों में है शहर में प्रदूषण की खबरें भी बहुत छपती हैं और शहर में खबरों का भी प्रदूषण भी बहुत ज़्यादा हैं | और गरीब लोग इसकी चपेट में हैं। हमारे शहरों के अनियंत्रित विकास का कारण, कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं होना है। शहरों में कुछ आबादी को तो नागरिक सुविधाएँ हैं लेकिन बाकी इससे वंचित है। क्योंकि सुविधाएँ उपलब्ध करवाने वाली एजेंसियाँ स्वतः होते विस्तार के साथ सुविधाओं का विस्तार करने में सक्षम नहीं हैं।
देश में जहाँ 1971 में 3126 शहर थे वहीं 1981 में 4029 तथा 1991 में 4689 शहर बन गए। आज यह आँकड़ा 15000 को पार कर चुका है। एक सर्वे के अनुसार देश के लगभग 5000 शहरों में लगभग 1850 में नगर पालिका भी नहीं है। 1971-1991 के बीच 20 सालों में 1563 नए शहर बने तथा 1981-1991 के बीच में शहरी आबादी 36.19 प्रतिशत बढ़ी। जहाँ 1901 में शहरों में 2.5 करोड़ लोग रहते थे वहीं 1951 में यह संख्या 6.2 करोड़ थी। 1971 में यह संख्या बढ़कर 10.91 करोड़ हो गई जबकि 1991 में यह संख्या 21.71 करोड़ तथा आज लगभग 30 करोड़ हो गई है।
शहरी संरचनाए ज़रूर भौतिकतावादी और आधुनिक हो गई है पर मानस पर मूल्यों की तिलांजलि भी इन्ही कृत्रिम इमारतों से दी जाती है| अब बात करते हैं गाँव में बसने वाली पत्रकारिता की…. अंचल की सर्द हवाए आज भी सत्ता और सल्तनत के गुमान को कम करने का माद्दा रखती हैं |
शहर में विभाग हैं, कोठियाँ हैं, अफ़सरशाही के ओहदेदार हैं, पर गाँव में आज भी पत्रकार हैं, भले ही मीडिया संस्थान उसे केवल एजेंट या संवाददाता ही मान कर क्यूँ ना इतिश्री कर ले पर वे आज भी ज़िम्मेदार हैं|
भ्रष्टाचार की चरमता, शहरों में दिखने ज़रूर लगी हैं, छोटी-छोटी समस्याओं के लिए शहरीयों को जूझते ज़रूर आपने देखा होगा, किंतु असली जद्दोजहद आज भी गाँव में होती हैं| अड़ना सा राशनकार्ड बनवाना हो,
चाहे लल्लन की दुकान के बाहर लगे सरकारी नल पर पीने के पानी को इकठ्ठा करने लिए लगी कतार और उसमें छोटी सी बात पर होती हाथापाई, यहाँ तक की मुन्ना को मिड डे मिल में कीड़े का दिखना हो, चाहे बडकऊ की बीमार माँ का सरकारी अस्पताल में इलाज बिगड़ जाना ही हो, चाहे अल्लाबेली की बकरी का चोरी चले जाना हो, या सरपंच , सचिव का शौचालय निर्माण में घपला करना ही हो, सब के लिए उम्मीद का दिया आज भी वहाँ पत्रकार ही माना जाता हैं | राजनीति की चाहे कितनी भी बड़ी बिसात हो, सट्टे की सजी हुई दुकानों को बंद करवाने के लिए आज भी गाँव वाले एक पत्रकार से ही उम्मीद करते हैं | आज़ादी के 69 साल बीत गये हों पर गाँव आज भी अपनी रोशनी के लिए उसी दीये पर भरोसा करते हैं|
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि “पंचायत संस्थाएं प्रजातंत्र की नर्सरी हैं। हमारे देश या प्रजातंत्र की विफलता के लिए सबसे पहले दोष नेतृत्व को दिया जाता है। पंचायतों में कार्य करते हुए पंचायत प्रतिनिधियों को स्वतः ही उत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है जिसका उपयोग वे भविष्य में नेतृत्व के उच्च पदों पर कर सकते हैं।”
हमेंशा शहरी लोगों द्वारा एक ताना दिया जाता रहा हैं कि गाँव से शहरों की और आबादी का पलायन हो रहा हैं , काम ना मिलने से लोग गाँव छोड़ रहे हैं , चिंतनीय ज़रूर हैं किंतु आपको मालूम ही होगा क़ि 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में “महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना” के लागू होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था काफी सुदृढ़ हुई है। सबसे ज्यादा फायदा यह हुआ है कि ग्रामीणों का पलायन रुका है। लोगों को घर बैठे काम मिल रहा है और निर्धारित मजदूरी भी। मजदूरों में इस बात की खुशी है कि उन्हें काम के साथ ही सम्मान भी मिला है। कार्यस्थल पर उनकी आधारभूत जरूरतों का भी ध्यान रखा गया है। उन्हें यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि “अब गांव-शहर एक साथ चलेंगे, देश हमारा आगे बढ़ेगा।”
शहरों में पत्रकारिता का कलेवर बहुत कुछ बदला हुआ है| शहरों में पत्रकारिता चाटुकरिता का पूरक बनती नज़र आ रही हैं , किंतु मानवीय मूल्यों के प्रहरी होने की वजह से अंचल में आज भी यह दुर्गंध नहीं पहुँची | आंचलिक पत्रकार आज भी समाज के लिए ही खबरों का सृजन और निष्पादन करते हैं | छोटी से छोटी समस्या ही क्यूँ ना हो जैसे गली में १० दिन से जमादारनी का नहीं आना, सरकारी नल का नहीं चलना, इंतहान के दिनों में बत्ती गुल हो जाना, किसी के खेत पर किसी पड़ोसी के जानवरों का चर जाना, सांस बहू की आपस में नोकझोक हो जाना, या थाने पर रिपोर्ट नहीं लिखा जाना , इन छोटी समस्याओं के लिए भी ग्रामीण व्यक्ति पत्रकार की तरफ ही देखता हैं| शहरों में पत्रकार की तरफ केवल तब ज़्यादा देखा जाने लगा है जब कोई आयोजन हों या कोई प्रेसनोट छपवाना हों , श्रीमान खबरों का अथाह संसार आज भी ग्रामीण अंचलों में भरा हुआ हैं |
भारत एक कृषि प्रधान देश हैं, राजनीति के अधिकांश निर्णय गाँवो से होते है, सरकारे गाँवो से बनती और बिगड़ती है। देश की बहुसंख्यक आबादी को खुशहाल बनने में आंचलिक पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका है किंतु उसी ग्राम प्रधान देश में चन्द लोगो के कारण ग्रामीण पत्रकारिता हाशिए पर जाती जा रही है। अभी तक पत्रकारिता का केंद्र केवल राजनीति के गलियारो की चहलकदमी और अपराध तथा कारोबार के अलावा कही और रहा भी नहीं जिन मुद्दो में आम जनमानस का जुड़ाव संभव हो सके, महानगरो के गलियारो के इर्द-गिर्द घूमती पत्रकारिता जनता की मूल समस्याओं को पीछे छोड़ती जा रही हैं । पत्रकारिता को गाँवो की याद तभी आती है जब कोई बड़ा हादसा होजाए या फिर कोई बड़ी घटना या राजनैताओ का दौरा, वर्ना बड़ा पत्रकार कभी नजर भी नहीं डालता गाँवो की तरफ, ना मीडिया संस्थान गाँवो में बसने वाले आंचलिक पत्रकारों की और ध्यान देते हैं | आज पत्रकारिता का मूल मकसद हैं, मुनाफा कमाना। मुनाफा शहरी लोगों के पेट के बीच से होकर जाता है, आज पत्रकारिता कॉरपोरेट और शहरी लोगों का लीबास बनकर रह गयी है। भारतीय पत्रकारिता में किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं रह गयी। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किसानों की बढ़ती आत्महत्या, गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मीडिया कवरेज नहीं मिल पाने से ग्रामीण लोग पत्रकारिता का लाभ नहीं उठा पाते है। टी.वी. चैनलों और बड़े अखबारों की एक मजबूरी यह भी है कि वे आंचलिक क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं को स्थायी रूप से नियुक्त नहीं कर पाते है। ग्रामीण पत्रकारिता की जो कुछ भी भूमिकाए हम भिन्न-भिन्न समाचार माध्यमों से देख पाते है, उसका श्रेय जिला मुख्यालयों की मेजों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले पत्रकारों को जाता है।
आज की स्थिति विचित्र है । नगर सबसे आगे है, गाँव पिछड़ते ही जा रहे है। नगर सब गतिविधियों के केंद्र हैं । वहाँ शिक्षा के केंद्र हैं, बड़े-बड़े पूंजी के बाजार हैं, सांस्कृतिक केंद्र हैं, मनोरंजन के साधनों की भरमार है । कहीं पाठशाला नहीं है तो कही मास्टर नहीं हैं, कही दोनो हैं तो बच्चों की स्थिति गंभीर हैं | न सड़क है, न पानी-सिचाई की व्यवस्था, न अस्पताल और न ही कोई ठोस भावी योजनाएँ हैं। और जो अन्न पैदा करता है, उसको ही भूखा रहना पड़ता है। जिसके खेतों में कपास पैदा होती हैं, उसके ही तन में वस्त्र नहीं होते है। आज वह कडकडाती सरदी, चिलचिलाती धुप और वर्षा के थपेड़े सहकर अपने कृषि-कर्म में जुटा हुआ है। आख़िर इन सब समस्याओं के लिए कौन आवाज़ उठाएगा , कौन लड़ेगा लगभग 80 करोड़ भारतीयों के लिए जो गाँवों में ही रहते हैं |
डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि “शहरों को गांवों में ले जाकर ही ग्रामीण पलायन पर रोक लगाई जा सकती है।” उनके कथन के पीछे यह तर्कपूर्ण सत्य छिपा है कि वर्तमान में देश के कई गाँवों में शहरों की अपेक्षा 5 प्रतिशत आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। रोजगार और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं की कमी के अलावा गांवों में बिजली, स्वच्छता, आवास, चिकित्सा, सड़क, संचार जैसी अनेक सुविधाएं या तो होती ही नहीं और यदि होती हैं तो बहुत कम। स्कूलों, कॉलेजों तथा प्राथमिक चिकित्सालयों की हालत बहुत खस्ता होती है। गांवों में बिजली पहुंचाने के अनेक प्रयासों के बावजूद नियमित रूप से बिजली उपलब्ध नहीं रहती। इस पर प्रशासनिक महकमें का ध्यान नहीं जाता , बल्कि गाँवों पर नकेल कसने और उस पर सारी सभ्यताओं का ठीकरा फोड़ने से कोई चुकता नही | इसी सन्दर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि “हमारी योजनाओं का केवल 15 प्रतिशत धन ही आम आदमी तक पहुंच पाता है।” देश के किसी गांव में दिल्ली से भेजा गया एक रुपया वहां पहुंचते-पहुंचते 15 पैसा हो जाता है। यह ऐसा क्यों होता है? वह शेष राशि 85 पैसे कहां चले जाते हैं। इसका एक ही जवाब है कि वह राशि भ्रष्टाचार रूपी मशीनरी द्वारा हजम कर ली जाती है। उन्हे खोजना और खोज कर अख़बारों में प्रकाशित करना ही पत्रकारिता की सार्थकता हैं | आज आंचलिक पत्रकारिता का मुख्य ध्येय ही सत्ता से मिली हर लाभ की स्थिति को आम जनता तक पहुँचना हैं |
आजादी के बाद जो ह्रास राजनीति का हुआ, वहीं पत्रकारिता का भी हुआ है। हम गाँव से आएँ ज़रूर हैं लेकिन गाँव को भूलते चले गये। विभिन्न परिवेश, भाषा और बोलियों से सनी आंचलिक पत्रकारिता का बड़ा दंभ हैं हिन्दी पत्रकारिता में, और सत्ता की नाक में नकेल भी आंचलिक पत्रकार ही डाल देते हैं, जब अंचल में कोई हुंकार नहीं हो तब भी आंचलिक पत्रकार समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाते हैं और हर पक्ष को समाज के सामने उजागर कर उसे अंजाम तक पंहुचाते भी हैं । समाज का व्यावहारिक चित्रण खबरों में दिखाने की कला में आंचलिक पत्रकार निपूर्ण होते है उसके बाद भी उपेक्षाओं का शिकार वें आंचलिक पत्रकार ही होते जा रहे हैं|
गाँवो में खबरों की उत्सुकता देखते ही बनती है और यक़ीनन इंतजार भी रहता है सुबह के अख़बार का |
किंतु मीडिया संस्थानो की उपेक्षाओंं ने ग्रामीण पत्रकारिता के आयाम ही गिराना शुरू कर दिए | ब्रेकिंग और पेज थ्री आधारित पत्रकारिता के लिए गाँवो में कोई मसाला नहीं है , वहा कोई एड नहीं है , ना कोई स्टिंग है , है तो केवल ख़बरे, घटनाए, रिश्वत के कारनामें, राशन की दुकान की भच-भच, तोल में कमी की शिकायत, स्कूल में शिक्षको ने नदारद रहने की बात, ग्राम पंचायत के कारनामें, जन सुनवाई में अधिकारी की अनुपस्थिति, ग्रामसभा से सरपंच- सचिव का गायब रहना, सड़को की बदहाली या बिजली की समस्या, सूखा ग्रस्त ग्राम, अन्य कुछ भी नहीं |
इन सब से मीडिया संस्थान कोई विशेष लाभ की अपेक्षाए नहीं कर सकता, कोई बहुत बड़ा आर्थिक लाभ भी नहीं, अत: मीडिया संस्थानो के लिए भी ग्रामीण पत्रकार “यूज एंड थ्रौ” का साधन बन गये है |
पत्रकारिता के असली मापदंड तो अंचल के संघर्षो से ही पोषित हो पाते है , आंचलिक क्षेत्रो में ,गाँवो में, शहरो की अपेक्षा अधिक समय खबरों को पड़ने पर खर्च किया जाता है , उन्हे ये उत्सुकता रहती है की कौनसी घटना अपने गाँव , राज्य, देश में हो रही है, गाँवो में जनमानस के मानस पटल पर मीडिया का बेहतर चेहरा ही उकेरा हुआ है, में मानता हुं कि उन पाठको के पास तथ्यात्मक विश्लेषण और निष्कर्ष नहीं होता इसीलिए वो मीडिया पर निर्भर भी होता है, पाठको की ललक ने ग्रामीण स्तर पर कई हाकर, एजेंट और पत्रकारों को जन्म दिया, उन्होने आगे के रास्ते तय किए किंतु फिर भी ग्रामीण पत्रकारों की स्थिति यथावत है |
ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण जनमानस में आज भी मीडिया के प्रति गहरी संवेदनाए है, किंतु उसी विश्वास और मानवीयता के साथ छल हो गया और अंचल में पत्रकारिता की पौध को समय से पहले नष्ट करने की तैयारिया की जा रही है | आंचलिक पत्रकारों के कुनबे को खबरों के अस्तित्व और प्रिंट मीडिया के भविष्य को सुरक्षित रखने का काम यदि किसी ने किया है तो वह है ग्रामीण पत्रकार और पाठक | अंचल में रहने वाला पत्रकार में नहीं मानता की बहुत पड़ा-लिखा या प्रशिक्षण प्राप्त किया हुआ या कोई डिग्री धारक पत्रकार होगा , किंतु उसमें तथ्यो को भलीभाती देखने और विश्लेषण करने की क्षमता ज़रूर होती है , खबरों के दृष्टांत की गहराई में डुबकी लगाने की कूबत ज़रूर होती है, किंतु वर्तमान दौर में जिस तरह से पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण दिन-प्रतिदिन होता ही जा रहा है उससे तो ये साफ तौर पर लगने लग गया है आनेवाले समय में आंचलिक क्षेत्रो के पत्रकारों की स्थिति भयावह हो जाएगी |
कोई मीडिया संस्थान ग्रामीण परिवेश में रहने वाले पत्रकारों के प्रशिक्षण और शिक्षण की व्यवस्था नहीं करता, न ही उन पर विशेष ध्यान नहीं देता, क्योकि वह ग्रामीण पत्रकार कोई विशेष आर्थिक लाभ संस्थान को नहीं पहुँचाता |
आख़िर क्या पत्रकारिता केवल आर्थिक लाभ आधारित ही शेष बची हैं? टकसाल की तरफ हिन्दी पत्रकारिता के बड़ते कदमों ने मूल्यो और आदर्शो की होली जलाना शुरू कर दी, किंतु उसमें नुकसान पत्रकारिता की आत्मा “ग्रामीण पत्रकारिता” का ज़्यादा हुआ है |
शहरों में हर एक बीट के लिए अलग-अलग व्यक्ति हैं, अलग- अलग ज़िम्मेदारी हैं, किंतु अंचल में एक ही संवाददाता हर एक बीट का कार्य बखूबी करता हैं, उसे क्राइम लिखना भी आता हैं, प्रशासन की खबरें भी लिखता हैं, शिक्षा और अन्य सभी विषयों को अपनी खबरों में परोसने का माद्दा भी वही आंचलिक पत्रकार रखता है जिन सामंतवादी ताकतों और अफ़सरशाही से आंचलिक पत्रकारों को उपेक्षित कर मीडिया के मेरूरज्जु पर प्रहार अर्पण किया जा रहा हैं, निश्चित तौर पर यह इन बेलगाम तंत्र को और मदमस्त करने की नाकाम कोशिश ही मानी जाएगी, ये हिन्दी पत्रकारिता की रीढ़ आंचलिक पत्रकारिता को तोड़ने का कुत्सित प्रयास हैं | सनातन काल की अवधारणा भी जिन कलपुर्जों के आगे नतमस्तक मानी गई उन्ही कलपुर्जों को सरस्वतीपुत्र कहा जाता रहा हैं | आंचलिक पत्रकारिता नदी की भाँति निश्चल और लोभ रहित मानी जाती रही हैं | एक स्वर्णिम इतिहास की पोषक आंचलिक पत्रकारिता, जिसने समय की गहराई में कई संपादक, पत्रकार , और वाणीपुत्र हिन्दी पत्रकारिता को अर्पण किए हैं | आंचलिक पत्रकारों को हिन्दी पत्रकारिता एक साधारण सा अंग मान कर ही पाने कर्तव्यों से मुक्त हो जाती हैं बल्कि उनकी उपेक्षाए भी लगातार करती रहती हैं, इस स्थिति में कबीरदास का एक दोहा सटीक बैठता हैं-
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अक्सर जिन्हे समाज उपेक्षित मान कर या उपेक्षित कर उसपर आक्षेप लगता हैं, वही एक दिन इतिहास के सृजक बनते हैं| यह इतिहास भी गवाह हैं गहरे पानी पैठ का… सृजक की भूमिका समाज के लिए कुछ निर्माण करने की होती हैं, न कि समाज के अस्तित्व पर कोई घात करने की | पत्रकारिता के ध्वजवाहक आंचलिक पत्रकार भी हिन्दी पत्रकारिता के सृजक माने गये हैं, उनकी भूमिका भी समय के अवनीतल में कुछ मूल्यों का निर्माण करने की हैं| शाब्दिकजामा पहनाने में भले ही आंचलिक पत्रकार थोड़े कम जानकार हो पर भावनात्मक तीर उनकी तरकश में बहुत ही होंगे | मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उसे आम जनता की तरफ रुख करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, मीडिया संस्थानों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, आंचलिक पत्रकारों के ओहदे को सम्मान सहित गौरवान्वित करना होगा, और उनके शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु भी व्यवस्थाएँ करनी होगी| तभी ग्रामीण (आंचलिक) पत्रकारिता सम्मान पाएगी और बच भी पाएगी |
अंचल में खबरों का संसार हैं श्रीमान…. गाँवों में ख़बरे हैं….