आजादी एक जन्म के समान हैं। जब तक हम पूर्ण स्वतंत्र नहीं हैं तब तक हम दास हैं।- महात्मा गांधी
भारत को दासता के बंधन से मुक्त कराने के लिए रणवाकुरों ने अपना सब कुछ न्यौछावर भारतमाता की खातिर किया। वैसे भी बंधन किसी को भी अच्छा नहीं लगता हैं। यह हमेशा परतंत्रता का एहसास किसी न किसी रूप में दिलाता ही रहता है। भारत सहिष्णुता वालों का देश हैं। इसीलिए जिसने जब तक चाह तब तक राज किया। भारत को स्वतंत्र होने का पहला सपना मंगल पाण्डे ने देखा फिर ये आग पूरे भारत में कालांतर में सुलग गई जिसमें चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, मोहम्मद अशफाक, राजगुरू, वीर सावरकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू सहित अनगिनत चेहरों ने अंग्रेजों के जेल की कठोर यातना भारत को स्वतंत्र कराने की आशा में सही। चूंकि हमें स्वतंत्रता आधी रात को मिली जब अधिकांश लोग सो रहे थे ओर जो जाग भी रहे थे तो उस समय अधिकांश गांवों में अंधेरा ही था तो कुछ स्पष्ट भी नहीं दिख रहा था। यह तो मात्र संकेतिक उदाहरण हैं। हकीकत में स्वतंत्रता का मूल्य हम आज तक नहीं समझ पाए। आज स्वतंत्रता का अर्थ कहीं न कहीं हमने केवल और केवल मनमानी ही समझा? स्वतंत्रता के पश्चात् भी सभी राजनीतिज्ञ भारतीय जनता की पूर्ण स्वछदता के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि अभी 10 वर्ष तक भारत में कड़ा अनुशासन ही रहे। बुद्धिजीवियों ने मिल आनन-फानन में संविधान का भी निर्माण किया जो उस काल, परिस्थिति के हिसाब से सौ टका था। लेकिन बदलती परिस्थिति में कालांतर में इसमें 100 से भी अधिक संशोधन हमने अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार किये। बाबा भीमराव अंबेडकर ने बिलकुल स्पष्ट कहा था कि आरक्षण केवल 10 वर्ष तक के लिए रहे निःसंदेह इस बाबत् उनकी अपनी उच्च कोटि की सोच ही थी, कहीं आरक्षण की ये वैशाखी कालांतर में समाज में वैमनस्यता पैदा न कर दें। लेकिन आज हमारे तथाकथित नेता वोट की खातिर देश को न केवल अस्थिर कर रहे हैं बल्कि जातियों में और भी खांप पैदा कर रहे हैं।
स्वतंत्रता के बाद आज तक हकीकत में देखा जाए तो कुछ भी नहीं बदला हैं अगर बदला है तो केवल चेहरे एवं मोहरे। इन शासकों का रवैया जनता के प्रति अधिकांशतः दमनकारी ही रहा है फिर बात चाहे महंगाई, लूट, भ्रष्टाचार को ले होने वाले शांतिपूर्वक सत्याग्रह या अनशन की ही क्यों न हो, मिलती है तो केवल पुलिस की लाठी और गोली?
वर्तमान परिस्थितियों पर हम नजर डाले तो पाते हैं कि भारत अनेक समस्याओं के झंझावत में फंसा हुआ है, जिसमें प्रमुख भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद और सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई हैं। विगत् तीन चार महीनों में इन्हीं का कोहरा भारत में छाया हुआ है जिसमें होने वाले अनशन को ले राम-रावण की तरह युद्ध चल रहा है। जिसमें सभी अपनी-अपनी मर्यादा भूल युद्ध में जी जान से जुटे हुए है। गीता में भी कहा गया है जीत ही ध्येय होना चाहिए वैसे भी कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सब जायज होता है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन से केन्द्र सरकार विशेषतः कांग्रेस की छवि को सर्वाधिक क्षति पहुंची हैं। कहने को तो केन्द्र में यू.पी.ए. सरकार है लेकिन भ्रष्टाचार एवं लोकपाल को ले केवल कांग्रेस पार्टी ही निशाने पर है। गृहमंत्री पी.चिदंबरम, अन्ना के अनशन को पहले ही गैर वाजिब और लोकतंत्र को चुनौती देने वाला बता चुके हैं। इसी बीच अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड ने कहा कि हम उम्मीद करते है कि भारत अन्ना के अनशन में लोकतांत्रिक तरीके से निपटेगा। इससे लगता है कि अन्ना का आंदोलन विश्वव्यापी हो गया हैं। अमेरिका अब हमारे घर के छोटे-छोटे झगडों में भी हस्तक्षेप करने लगा हैं। ताक झांक तो पहले से कर ही रहा था। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले भारतीय नेताओं को ‘‘शर्म से डूब मरना चाहिए’’ अब भी विदेशी लोग हमें बतायेंगे क्या करना है और क्या नही करना हैं, लोकतंत्र का असली मतलब क्या हेैं? आखिर कहे भी क्यों न महात्मा गांधी के लोकतांत्रिक तरीकों के कारण ही भारत देश की गद्दी को छोड़ना जो पडा। महात्मा गांधी ने भी अनेकों अफसरों पर अपने अमरण अनशन को ही आखिरी हथियार माना था। गांधी ने ही कहा-‘‘कोई भी मेरी अनुमति के बिना मुझे कष्ट नहीं पहुंचा सकता।’’
निःसंदेह अनशन और सत्याग्रह को लोकप्रिय महात्मा गांधी ने बनाया जिससे अंग्रेजी हुकुमत को भारत छोड़ना पड़ा। आज फिर वही गांधीवादी अनशन भ्रष्टाचारियों को तिलमिला रहा है। जब हमारा संविधान बोलने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है फिर बोलने एवं शांतिपूर्वक अनशन पर स्वतंत्र भारत में आपत्ति क्यों? क्या यह मौलिक अधिकारों का हनन नहीं? अनशन, धरने का अधिकार क्या इस देश में केवल राजनीतिक पार्टियों को ही हैं? यहां एक बात में स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि मैं यहां किसी का पक्ष नहीं ले रही हूं। हां केवल सत्य और सत्य की ही बात कह रही हूं। जिसे किसी को भी अन्यथा नहीं लेना चाहिए। हम सब सोचे अन्ना के शांतिपूर्वक आंदोलन के लिए 22 शर्ते? यदि यह नियम संगत है तो सभी राजनीतिक दलों के भारत बंद, प्रदेश बंद, रेल रोको, दुकानें तोड़ो, गाड़ियां तोड़ो के तहत् आज तक दिल्ली पुलिस ने कितनों के खिलाफ ये नियम लागू किये, मुकद्में चलाए? क्या सारे नियम भारतीय नागरिकों के लिए हैं? नेताओं, जनप्रतिनिधियों के लिए नहीं?
चोरी-चकारी, बलात्कार, हत्या, घोटाले के मुकद्में जब किसी भारतीय नागरिक पर चल रहे होते हैं तब किसी भी संस्था में विशेषतः शासकीय में उसकी नियुक्ति के पहले पुलिस सत्यापन का प्रावधान है। दूसरी ओर नेताओं के विभिन्न शासकीय एवं अर्द्धशासकीय निकायों में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इनमें अध्यक्ष पदों के लिए होने वाले नामिनेशन के पहले पुलिस सत्यापन से छूट क्यों? क्या इनके लिए कोई नियम नहीं? एक देश में दो कानून कैसे? जब शासकीय सेवकों की जांच के चलते उनको प्रमोशन से वंचित रखा जाता है तो जनसेवक के रूप में मंत्री के पदों पर पदोन्नति क्यों? यदि कोई किसी भी प्रकार का चंदा इकटठा करता है तो भारत सरकार ढेरों नियमों का हवाला देती है फिर राजनीतिक संगठन इससे परे क्यों? हो सकता राजनीतिक पार्टियों द्वारा व्यापारियों से लिया गया चन्दा कहीं उन्हें मनमानी कीमतों को बढाने का शुल्क तो नहीं? भारत सरकार को जनता को जवाब देना ही चाहिए?
इस देश में नियमों की कोई भी कमी नहीं हैं, कमी है तो बस इन्हें ईमानदारी से लागू करने की। संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देते न थकने वाले नेताओं को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इस पर जितना हक जनप्रतिनिधियों का है उतना ही हक भारतीय नागरिकों का भी है और इस लोकतंत्र में किसी को भी अपनी मनमानी करने का अधिकार संविधान किसी को भी नहीं देता है।
जिस लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने में चुनाव की प्रक्रिया में ढेरों दोष हो मसलन न्यूनतम वोट का कोई प्रतिबंध नहीं, चोर, उचक्का, डकैत, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी भी चुनाव जेल में बंद रहते लड़ सकता है और वह सीना ठोक कर लोकतंत्र की दुहाई दें? अपने को जनप्रतिनिधि कहंे? तब हकीकत में हमारा और लोकतंत्र का न केवल अपमान होता है बल्कि सिर भी शर्म से नीचे झुक जाता है निःसंदेह लोक सभा, राज सभा, विधानसभाओं में ऐसों की अच्छी भरमार है। यहा प्रश्न उठता है क्या इसके लिए भी भारतीय नागरिक आंदोलन चालाए? आखिर कानूनी सुधारों का दायित्व माननीय क्यों नहीं निभाते? आखिर ये नौबत आती ही क्यों है कि जनता आंदोलन करें?
आज मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों का यह जुमला ही हो गया है कि जनता सुधार की बात करें तो लोकतंत्र का अपमान हकीकत में लोकतंत्र का जितना अपमान हमारे माननीय कर रहे है जनता नहीं करती है। मसलन लोकतंत्र के मंदिर में होने वाला हुड़दंग, शर्मनाक शब्दों का प्रयोग, उठापटक, राजसभा के अध्यक्ष पर कागज फाडकर फेंकना जिसे पूरा देश देखता है। तब क्या लोकतंत्र कलंकित नहीं होता? इसी भारत में चुना जनप्रतिनिधि तिरंगे को जलाता है, तिरंगे को नहीं फहराने दिया जाता, क्या तब लोकतंत्र का अपमान नहीं होता? वोट के बदले नोट, संसद में नोटों की गड्डियों का लहराना, पैसे लेकर प्रश्न पूछना, मंत्रियों पर विभिन्न घोटालों को लेकर जेल और प्रकरण पंजीबद्ध हैं, देश का प्रधानमंत्री कह रहा है मुझे लोकपाल में आने में कोई आपत्ति नहीं तो बाकी के लोगों को क्या हक बनता है अपनी मर्जी चलाने का? जिस देश में भूख, कुपोषण से नागरिकों की मौत हो तब अपमान नहीं होता लोकतंत्र का?
हमारे नेताओं को अब दमन, सामंतशाही, हिटलरशाही, अहम, सरकार और देश मेरी बपोती जैसे भंवर से निकलना ही होगा। जब जनता के प्रतिनिधि होने का दम भरते हो तो जनता की आवाज को भी कैसे नकारेंगे?
हमारे जनप्रतिनिधि इन मुद्दों पर चिंतन करे नहीं तो लोकतंत्र जनता के कारण नहीं नेताओं के कारण खतरे में पड़ेगा।
मैं म.प्र.के आई.पी.एस. डी.आई.जी. राजेश गुप्ता की तारीफ करना चाहूंगी उनके खिलाफ जांच के चलते उनकी पदोन्नति बाधित है, ने उन्हें इस वर्ष मिलने वाले पदक को भी अन्तरआत्मा की आवाज पर लेने से इंकार कर दिया। काश ये सीख, जन सेवक, जनप्रतिनिधि भी लें।