सांसद बाबू भाई कटारा गिरफ्तार नहीं होते तो शायद कबूतरबाजी का पिटारा बंद ही पड़ा रहता| कटारा के पिटारे से अब रोज नए-नए कबूतर निकल रहे हैं| मानव तस्करी के सारे दाँव-पेच एक के बाद एक उजागर हो रहे हैं| कटारा ही नहीं, उनकी तरह कई अन्य सांसद, टोली बनाकर विदेश जाने वाले नेता, कलाकार, खिलाड़ी और एक हजार से भी ज्यादा ट्रेवल एजेन्ट पिंजरे में बंद हो जाएँगे| कानून की आँख में धूल झोंकनेवालों पर अब जरा ज्यादा सख्ती की जाएगी| कटारा के कारण सांसदों को गहरी शर्मिंदगी भुगतनी पड़ेगी| अभी पैसे लेकर सवाल पूछने वाले सांसदों का गोबर सूखा भी नहीं था कि उनकी इज्जत की दीवाल पर नई कालिख पुत गई है| कोटे के टेलिफोन, रेल और हवाई टिकिट बेचने, सांसद निधि की राशि डकार जाने और संसद में मतदान के लिए रिश्वत खाने के आरोप तो हमारे सांसदों पर पहले ही लग चुके हैं| यह किसी प्रांत-विशेष या दल-विशेष का मामला नहीं है| यह हमारी संपूर्ण राजनीतिक-व्यवस्था का कैंसर है| अब हमारी व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो गई है कि कोई पवित्र् रहना चाहे तो भी नहीं रह सकता| वे ही लोग पवित्र् माने जाते हैं, जो पकड़े नहीं जाते| नेता लोग इस बात का पक्का इंतजाम करते हैं कि वे पकड़े न जाएँ| अपने लिए वे हर जगह छूट का इंतजाम कर लेते हैं| छूट का इंतजाम इंतना लंबा होता है कि उन्हें पकड़ लिया जाए तो भी वे छूट जाते हैं| हत्या, रिश्वत, बलात्कार में रंगे हाथों गिरफ्तार होने के बावजूद आज तक कितने सांसदों ने जेल काटी है, कितनों ने जुर्माना भरा है और कितने राजनीति से बाहर हुए हैं? यदि सांसदों और मंत्र्ियों को ठीक करना है तो उनके समस्त विशेषाधिकार एकदम समाप्त किए जाने चाहिए| देश में ऐसे हजारों-लाखों नागरिक हैं, जो मंत्र्ियों और सांसदों से कहीं अधिक प्रतिष्ठित हैं, अधिक व्यस्त हैं, देश के लिए कहीं अधिक उपयोगी हैं| यदि वे टिकिट के लिए लाइन में लग सकते हैं, अस्पताल में साधारण मरीज की तरह इलाज करवा सकते हैं, हवाई अड्रडों पर सहर्ष सुरक्षा-जाँच करवा सकते हैं, चौराहे की हरी और लाल बत्ती का सम्मान कर सकते हैं, साधारण पासपोर्ट पर विदेश जा सकते हैं तो मंत्रियों और सांसदों में ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे हैं कि वे इन सब कानून-कायदों से ऊपर उठ जाते हैं? उनको दी गई विमुक्तियाँ न केवल कानून के राज की धज्जियाँ उड़ा देती हैं बल्कि लोकतंत्र् को भी मजाक बना देती हैं| यह कैसा लोकतंत्र् है, जिसमें लोक नीचे दब जाए और तंत्र् उसकी छाती पर सवार हो जाए? मंत्री और सांसद तो तंत्र् हैं| तंत्र् को जितना कसकर रखा जाएगा, यंत्र् उतना ही अच्छा चलेगा| तंत्र् ढीला रहा, इसीलिए तो संसद पर हमला हुआ, इसीलिए हमारे इतने जहाजों का अपहरण हुआ| यदि सांसदों पर उसी तरह कड़ी निगरानी रखी जाती, जैसी साधारण नागरिकों पर रखी जाती है तो आतंकवादी क्या संसद के परिसर में घुस सकते थे? जो मंत्री और सांसद अपने लिए विशेषाधिकार की मांग करते हैं, वे लोकतंत्र् को शीर्षासन करवाने पर आमादा हैं| नौकर मालिक बनने के चक्कर में हैं| वे अपनी हैसियत भूल जाते हैं| जो जनता उन्हें चुनकर भेजती है, अपना प्रतिनिधि बनाती है, अपना हरकारा बनाती है, उसी जनता से उनके विशेषाधिकार ज्यादा कैसे हो सकते हैं? यदि ज्यादा हो गए तो वह लोकतंत्र् कहाँ रहा? वह कुलीनतंत्र् बन गया|
पिछले साठ साल में हमारा लोकतंत्र् जाने-अनजाने कुलीनतंत्र् बनता चला गया है| कुलीन बनने की इस उद्दाम वासना ने हमारी राजनीति को पथभ्रष्ट कर दिया है| राजनीति में कौन लोग आ रहे हैं? वे आ रहे हैं, जिनका राजनीति से, जन-सेवा से, देश-सेवा से कुछ लेना-देना नहीं है| नचैयों, दलालों, धन्ना-सेठों, दादा लोगों, तस्करों, डकैतों और हत्यारों के लिए सभी दलों ने अपने दरवाजे खोल रखे हैं| इनके अलावा नेताओं की पत्नियों, बेटे-बेटियों, भाई-भतीजों और रिश्तेदारों ने बड़े-बड़े पदों पर कब्जा कर रखा है| जो नेता ईमानदार हैं, जो सचमुच जनसेवी हैं, जो चापलूसी में निपुण नहीं हैं, पार्टियों में उनकी कोई कदर नहीं हैं| हमारी अनेक प्रांतीय सरकारें और राजनीतिक दल निजी दुकानों की तरह चल रहे हैं| सारे कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई है| सभी दल एक-जैसे हैं| सबकी विचारधारा एक ही है| सबकी नीति और सबका कार्यक्रम भी एक ही है| पैसा बनाओ और धौंस जमाओ| अपने प्रलोभन और अहंकार का पेट भरो| राजनीति से बढि़या कोई धंधा नहीं है| हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए! रंग इतना चोखा कि अगर पकड़े गए तो भी आप सदा सुर्खरू बने रहें|
बाबूभाई कटारा और शेष नेताओं में फर्क सिर्फ इतना है कि कटारा जरा बुद्घू हैं| इसीलिए पकड़े गए| पार्टी में उनका जो स्तर है, अपराध करने में भी वही स्तर है| सीधे फँस गए| तस्करी करने के लिए अपना और अपनी पत्नी का पासपोर्ट इस्तेमाल कर लिया और खुद ही हरकारा बन गए| वह भी सिर्फ 30-40 लाख रु. के लिए| क्या उन्हें पता नहीं कि अनेक नेतागण की यह तो रोज की खुराक है| इसके बिना उन्हें नींद ही नहीं आती| कटारा जैसे लोग तो छोटे-मोटे कछुए और मछली की तरह हैं| जाल में फँस गए| अगर कोई मगरमच्छ होता, अगर कोई भारी-भरकम सांसद होता, सत्तारूढ़ दल का सदस्य होता या मंत्र्ी होता तो वह जाल ही तोड़ देता| उसे देखकर जाल खुद ही सिकुड़ जाता| पैसा लेकर प्रश्न पूछने वाले सांसदों में भी सब दबे-पिसे, गिरे-पड़े लोग थे| इनकी तुलना जरा उन नेताओं से करें, जिनके खिलाफ सारी जनता, सारी संसद और सारे अखबार अपना सिर धुन-धुनकर हताश हो गए| वे दिग्गज हैं| उन्हें कोई नहीं हिला सकता| वे मामूली चीजों में पैसा नहीं खाते| वे अपने चुनाव क्षेत्र् की पाठशाला, पेशाबघर और सड़क में नहीं खाते| वे जहाजों में, तोपों में, पनडुब्बियों में, बंदूकों में, करोड़ों लोगों के खाद्यान्नों-दाल-गेहूँ-आदि में खाते हैं| वे हजारों-लाखों नहीं, करोड़ों-अरबों में खाते हैं| उन्हें कोई छू नहीं सकता, क्योंकि संपूर्ण भारतीय राजनीति एकायामी हो चुकी है| इस तरह के मुद्दों पर सभी दलों के नेता एक हैं| किसे कौन पकड़े? पकड़े जाने वाले और पकड़ने वाले-सभी एक हैं| चोर और कोतवाल में कोई फर्क नहीं है|
अब सवाल यह है कि कोतवाल पर हाथ कौन डाले? अदालत की अपनी मजबूरियाँ हैं| इस कोतवाल पर तो सिर्फ जनता ही अंकुश लगा सकती है| अपने नेताओं पर वह कड़ी नजर रखे| उनके खर्चों और आमदनी पर आँखें गड़ाए रखे| सूचना के अधिकार का सहारा ले| जहाँ भी संदेह पुष्ट हो, सीधी कार्रवाई करे| अहिंसक और प्रचारपूर्ण! प्रचार इसलिए कि नेता को अगर किसी चीज का डर है तो अपनी छवि का है| उसे अपने चेहरे की नहीं, छवि की चिंता है| जनता चाहे तो वह नेताओं के चेहरे और छवि दोनों को सीधा कर सकती है|