कॉरपोरेट के लिये रेड कारपेट बिछाने वाले मनमोहन सिंह कॉरपोरेट के हितों को साधने वाले मंत्रियों पर निशाना भी साध सकते हैं, इसे मंत्रिमंडल विस्तार से पहले किसी मंत्री या कॉरपोरेट घराने ने सोचा नहीं होगा। लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर जो लकीर मनमोहन सिंह ने खींची, उसमें अगर एक तरफ निशाने पर कॉरपोरेट घरानों के लिये काम करने वाले मंत्रियों को लिया तो अब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच में उन कॉरपोरेट घरानों को घेरने की तैयारी हो रही है, जिन्हें भरोसा है कि सरकार से करीबी ने अगर उन्हें मुनाफे का लाइसेंसधारक बनाया है तो उनपर कोई कार्रवाई हो नहीं सकती। पहले बात मंत्रियों की। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवडा को अंबानी के बच्चे गैस वाले अंकल के नाम से जानते हैं । और 2006 में जब मणिशंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाया गया तो उनकी पीठ पर उन्हीं मुकेश अंबानी का हाथ था, जिनपर काग्रेस के करीबी होने का तमगा कांग्रेसियो ने ही लगा रखा था। इसलिये मुरली देवडा बतौर मंत्री भी अक्सर यह कहते रहे कि उनके लिये मुकेश अंबानी कितने अहम हैं। और तो और 2008 में जब अमेरिका में गैस की किमत 3.70 डॉलर थी, तब भी रिलायंस भारत में गैस की कीमत 4.20 डॉलर लगा रहा था और मुरली देवडा न सिर्फ राष्ट्रीय घरोहर को कौड़ियों के मोल मुकेश अंबानी को बेच रहे थे बल्कि उनके साथ आंध्रप्रदेश के त्रिमूला मंदिर में पूजा अर्चना करने से भी नहीं कतरा रहे थे।
यानी देश के सामने सीधे संकेत थे कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट घरानों को भरपूर लाभ पहुंचाकर विकास की लकीर खींचना ही विकसित देश होने की तरफ कदम बढ़ाना है। और मुरली देवडा के पीछे जब मुकेश अंबानी खड़े हों तो फिर उन्हे हटा कौन सकता है। यानी कांग्रेस की राजनीति को भी डगमगाने से कॉरपोरेट पूंजी से जोड़ा गया। इसीलिये जब तेल के साथ गैस की कीमत तय करने का हक भी निजी हाथो में सौपा गया तो पहली खुशी मुरली देवडा ने ही व्यक्त की। वही पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने राष्ट्रीय एयरलाइन्स को खोखला बना कर जिस सलीके से निजी एयरलाइन्स का साम्राज्य खड़ा किया और पहले जेट एयरवेज के नरेश गोयल फिर किंगफिशर के विजय माल्या को लाडला बनाया उससे भी देश के सामने यही सवाल खड़ा हुआ कि मनमोहन की थ्योरी तले निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाने की सोच को ही प्रफुल्ल पटेल अंजाम देने में लगे हैं। इसलिये प्रफुल्ल पटेल ने जब विजय माल्या को सिविल एविएशन पर संसदीय समिति की स्टेडिंग कमेटी का स्थायी सदस्य बनवा दिया तो भी सवाल उठा क्या अब कॉरपोरेट ही देश के लिये नीतियो को भी बनायेंगे। यानी मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल और कारपोरेट मिलकर सरकार है और यही देश चला रहे हैं। और नागरिक उड्डयन मंत्रालय से तो कभी प्रफुल्ल पटेल को हटाया नहीं जा सकता। लेकिन पहली बार इन सब को मनमोहन सिंह ने अपनी छवि के खिलाफ माना। इसलिये 17 जनवरी को जब उन्होंने राष्ट्पति से मुलाकात कर मंत्रिमंडल विस्तार की जानकारी दी तो नये मंत्रियो के साथ ही मंत्रालयो में परिवर्तन की सूची भी सौप दी और चंद घंटों में ही राष्ट्रपति भवन से वह सूची दस जनपथ के लिये लीक हो गयी। इसलिये अगले ही दिन सोनिया गांधी के साथ प्रधानमंत्री की चर्चा मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर जो भी हुई मगर कॉरपोरेट घरानो के सवाल पर एक सहमति जरुर बनी कि मंत्रियो के कॉरपोरेट घरानो के साथ समझौते-सहयोग या दोस्ती को अब बर्दाश्त नहीं करना चाहिये। सवाल यह भी उठा कि कोई भी मंत्री संगठन के लिये काम करने वाले नेता से बड़ा न हो और संगठन से जुड़े नेता को यह ना लगे कोई मंत्री किसी कारपोरेट घराने के आसरे अपने आप में सत्ता हो जाये।
यह तभी संभव है जब कारपोरेट की पीठ पर सवार मंत्रियो के पर कतरे जाये और सरकार का कामकाज काग्रेस की राजनीति से जुड़े। इसलिये मंत्रिमंडल विस्तार में उन मंत्रियो को सीधे आइना दिखाया गया, जिनके संबंध कारपोरेट से जगजाहिर हैं और जो कारपोरेट के साथ अपना नाम जोड़ने में अपना बढ़ा हुआ कद मानते। मगर इस विस्तार के बाद दो सवाल सरकार और काग्रेस के सामने हैं। जिसमें काग्रेस के संगठन को एक धागे में बांधना और उस कारपोरेट पर लगाम लगाना है जो कही शरद पवार तो कही नरेन्द्र मोदी को अपनी बिसात पर मोहरा बनाकर कांग्रेस की राजनीति के साथ शह मात का खेल भी खेलने से नहीं कतराते है। संगठन का कामकाज मंत्री से न जुडे और कोई मंत्री संगठन या राज्यो की राजनीति में सीधी दखल ना रखे। फिलहाल चार मंत्री संगठन में महासचिव है और दो मंत्री मोईली और एंटनी राज्यो के प्रभारी हैं। यानी पार्टी संगठन हो या मंत्रीमंडल उसमें एकरुपता तभी रह सकती है जब सभी एक समान हो या सभी का ट्रीटमेंट एक सरीखा हो। यानी एक व्यक्ति एक पद। और नये पार्टी संगठन की सूची भी अब तैयार है। बस ऐलान होना है। जबकि दूसरी तरफ मनमोहन सिंह अब 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के घेरे में फंसे उन बड़े कॉरपोरेट घरानों को भी बख्शना नहीं चाहते हैं, जिनकी साख चाहे अंतर्राष्ट्रीय तौर पर है। टाटा टेलीसर्विसेस, वोडाफोन-एस्सार,आइडिया से लेकर वीडियोकान हो या रिलांयस टेलीकाम या फिर स्पेक्ट्रम लाइसेंस के लिये बनी नयी कंपनियां। सभी को एक ही दायरे में रखकर अब इसके संकेत देने की कोशिश भी सरकार कर रही है कि सत्ता के करीब कोई कारपोरेट घराना नहीं है और कोई कारपोरेट अपने आप में कोई सत्ता नहीं है। असल में सरकार के लिये अगर बड़ा संकट कारपोरेट हित के लिये मनमोहन सिंह पर भी निशाना साधने वाले कृर्षि मंत्री शरद पवार है तो कांग्रेस के लिये कॉरपोरेट के लिये रेड कारपेट बिछाने वाले गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी हैं। और कॉरपोरेट घरानों ने भी जिस तरह कई मौको पर मोदी को विकास से जोड़ा है और पवार के जरीये मनमोहन सिंह को चेताने का काम किया है उसमें पहली बार मनमोहन-सोनिया दोनो का लगने लगा है कि उनकी बिसात पर कारपोरेट ही ज्यादा बडी सियासत खेल रहा है। और इन परिस्थितियो पर नकेल कसने के लिये ही अगले मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर अभी से कयास भी इसीलिये लगने लगे हैं क्योकि कारपोरेट घरानो से सबसे ज्यादा नजदीकी वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की सर्वव्यापी है और संयोग से बोफोर्स के मसले पर फाइल भी वित्त मंत्रालय के जरीये खुली और कालेधन पर सरकार ने अपने हाथ कैसे बांध रखे है यह भी वित्त मंत्रालय के सीबीडीटी के जरीये ही सामने आया। यानी सरकार या पार्टी का संकट सरकार या पार्टी के भीतर ही है। इसीलिये पहली बार मनमोहन सिंह एक तरफ मनमोहनइक्नामिक्स को सियासत से जोडने के लिये तैयार है तो दूसरी तरह इसी से सियासी निशाना साधने को भी तैयार है। बस इंतजार बजट सत्र के बीतने तक करना होगा।