कैसे हुआ भाजपा का बंटाधार

“जो लोग कल तक संघ की सभा और बैठकों में भौतिक इंतजाम करते थे। स्वंयसेवकों को भोजन कराकर, अपने घर में ठहराकर खुद को धन्य समझते थे । अब वही शीर्ष पर पहुंच गये हैं। भौतिक इंतजाम करना-करवाना पहले सरोकार की राजनीति करने वालो के प्रति श्रद्दा रखने समान था । अब भौतिक इंतजाम करवा पाना राजनीति का मूल मंत्र बन चुका है। पहले संघ की वैचारिक समझ के आसरे जनसंघ और फिर भाजपा की राजनीतिक जमीन बनाने की बात होती रही, अब भाजपा की राजनीतिक जमीन पर ही संघ की जगह नहीं बची है । सरोकार नहीं सुविधा के आसरे राजनीति खरीदी और बेची जा रही है,ऐसे में हम जैसे पुराने स्वसंसेवकों को तो नये मंत्रियो से मुलाकात का भी वक्त नहीं मिल पाता है।”

 

यह वक्तव्य गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री से मुलाकात का इंतजार कर रहे गुरु गोलवरकर के दौर में प्रचारक की हैसियत से जुडे संघ के बुजुर्ग स्वयंसेवक का दर्द है। लेकिन यह दर्द सिर्फ मोहन भाई तक सिमटा हो ऐसा भी नहीं है। भाजपा ही नहीं संघ के भीतर भी जो पीढ़ी और जो सोच वाजपेयी सरकार के दौर में चूकती चली गयी और खामोश रहना उसकी फितरत बन गयी 2009 के जनादेश ने अचानक उन्हें जुबान दे दी है। सौराष्ट्र से लेकर नागपुर तक के बीच एक हजार किलोमीटर की लंबी पट्टी पर जनसंघ या भाजपा से लेकर संघ तक का वर्तमान का कोई ऐसा प्रमुख कार्यकर्त्ता या नेता या फिर स्वयंसेवक नही होगा, जिसने उस इलाके में काम नहीं किया हो।

 

लेकिन इस पूरे इलाके में संघ के स्वयसेवकों और भाजपा के कार्यकर्त्ताओं के भीतर झांकने पर साफ लगता है कि संघ ने जो राजनीतिक जमीन भाजपा के लिये दशकों की मेहनत से बनायी, उसे नेताओ के सत्ता प्रेम में ना सिर्फ गंवाया गया बल्कि संघ के भीतर भी नेता सरीखी एक नयी लीक तैयार हो गयी जो संघर्ष नही सुविधा टटोलने लगी। नागपुर के मनसुख भाई की मानें को भाजपा का मतलब मुद्दों को उठाकर भावनात्मक तौर पर संघ की सामाजिक जमीन पर राजनीतिक लाभ उठाना जरुर है लेकिन भाजपा में मुद्दों में बडे नेता हो गये और नेताओ के सामने संघ के स्वयंसेवक नकारे वोट बैंक भी नही बन पाये ।

 

नागपुर से सटे छिंदवाडा के राजन ने तो देवरस के उस प्रयोग को बेहद करीब से देखा जो जेपी के जरिये 1974 में रचा गया । लेकिन किसी चुनावी राजनीति को पहली और आखिरी बार सुन्दरलाल पटवा के साथ छिंदवाडा में देखा जब कांग्रेस की कभी न हारने वाली सीट पर भाजपा के पटवा कांग्रेस के कमलनाथ की पत्नी अलका कमलनाथ को चुनौती देने पहुंचे थे। पटवा जब छिंदवाडा में उतरे तो उनके पीछे चावल-गेंहू-आलू-प्याज से लदा एक ट्रक भी आया। दो महीने चुनावी मशक्क्त पटवा ने संघ के प्रचारको और सामूहिक सरोकार की राजनीति के जरीये छिदंवाडा में कुछ इस तरह रची कि जो भी पटवा के प्रचार मुख्यालय में पहुंचता, वहां लंगर में खाने का इंतजाम हर किसी के लिये हमेशा रहता। इस दौर में विचारों का आदान-प्रदान होता और सामाजिक संगठन बनाने की संघ की सोच को मूर्त रुप में कैसे लाया जा सकता है, इस पर हर किसी से पटवा चर्चा करने से नहीं चूकते । प्रचार की कमान पूरी तरह संघ के अलग अलग संगठनों ने संभाल रखी थी । राजन के मुताबिक चुनाव प्रचार में करीब ढाई लाख रुपये खर्च हुये, जिसमें लंगर का खाना भी शामिल था। जिसका खर्च सबसे ज्यादा डेढ़ लाख तक का था । लेकिन पटवा की जीत के बावजूद अगले ही चुनाव में छिंदवाडा में टिकट उसी को दिया गया जो कमलनाथ की पूंजी की सत्ता से टकरा सकता था।

 

जाहिर है कांग्रेस के तौर तरीको की राजनीति को भाजपा ने अपनाया, लेकिन संघ का साथ छूटता गया । असल में भाजपा ने चुनाव की राजनीति के जो तौर तरीके को अपनाया, उसमें संघ के तरीके फिट बैठ भी नहीं सकते थे । क्योंकि संघ का जोर संगठन के जरिये सामाजिक शुद्दीकरण के उस मिजाज को पकड़ना था, जिससे वोट डालने के साथ वैचारिक भागेदारी का सवाल भी वोटर में समाये। लेकिन भाजपा ने वोटर को सत्ता की मलायी से जोड़ने की राजनीतिक पहल न सिर्फ उम्मीदवारो के चयन को लेकर की बल्कि चुनावी घोषणापत्र से लेकर चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों को लुभाने की ही जोर-आजमाइश की।

 

संघ के स्वयसेवको के मुताबिक चूंकि भाजपा को कोई भी वोटर संघ से इतर देखता नहीं तो सत्ता की मलाई का प्रचार संघ के भीतर भी समाया। यानी यह बात सामाजिक तौर पर बहस का हिस्सा बनी की भाजपा की सत्ता का मतलब संघ के लिये सुविधाओ की पोटली खुलना है। इससे संघ के प्रति आम लोगो का नजरिया भी बदला । सेवक भाव के बहले सुविधा भाव नये स्वयंसेवको में ज्यादा है। पुणे के बुजुर्ग रविन्द्र मानाटे के मुताबिक आरएसएस के आठ दशक के दौर की सामाजिक समझ को वाजपेयी सरकार के दौर में सबसे ज्यादा झटका लगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा के भीतर नेताओ की कतार की तरह संघ के भीतर भी नेताओं की कतार सत्ता से जुडने से नहीं चूकी। ऐसे में वह स्वयंसेवक हाशिये पर चले गये जो एक ऐसी राजनीतिक जमीन लगातार बना रहे थे, जिसका लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा ।

 

भाजपा ने काग्रेस की तर्ज पर जिस तरह की राजकरण व्यवस्था को अपनाते हुये नीतियो को अपनाया, उसका सबसे बडा झटका संघ को ही लगा। नयी आर्थिक नीतियो को लेकर भाजपा जिस तरह कारपोरेट घरानो का हित देखने लगी और विश्व बैक के निर्देशो का लागू कराने में कांग्रेस से कहीं ज्यादा तेजी दिखाने लगी उससे अचानक संघ के वह सभी संगठन भोथरे साबित होने लगे, जिनके भरोसे भाजपा की कभी पहचान बनी। किसान मंच, स्वदेशी जागरण मंच से लेकर आदिवासी कल्याण मंच सरीखे दर्जन भर से ज्यादा आरएसएस के संगठन पहले बेकार हुये और फिर बीमार। राजनीतिक तौर पर भाजपा और संघ के बीच नीतियों को लेकर टकराव इन्हीं संगठनों के जरीये ही उभरा । यानी जनता के बीच यह संवाद कभी नहीं गया कि भाजपा की नीतियो को संघ नहीं मानता। उल्टे स्वदेशी जागरण मंच के दत्तोपंत ठेंगडी ने जब भाजपा की आर्थिक नीतियों पर चोट की या फिर किसान संघ ने कृषि अर्थव्यवस्था को लेकर भाजपा की अनदेखी पर निशाना साधा तो आरएसएस रेफरी की भूमिका में ही आयी। आदिवासी कल्याण संघ ने भी जब आदिवासियो की जमीन और जंगल खत्म करने की बात उठा कर भाजपा पर हमला बोला तो आरएसएस बीच-बचाव की मुद्रा में ही नजर आयी । इससे आरएसएस को लेकर भी उस राजनीतिक जमीन के लोगों में उहापोह की स्थिति बनी, जो संघ के जरीये भाजपा को देखते थे। पुणे के किसानों ने जब एसइजेड को लेकर वैकल्पिक एसइजेड का फार्मूला खुद ही विकसित करने का आवेदन सरकार को दिया तो स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ तक को समझ नहीं आया कि उसकी भूमिका अब क्या होनी चाहिये।

 

स्वयंसेवक रविन्द्र के मुताबिक जो किसान पहले नयी आर्थिक नीतियों से परेशान होकर संघ की छांव में आते थे, नयी परिस्थितियों में वह संघ पर ही कसीदे गढ़ने लगे। नया असर यही है कि महाराष्ट्र में किसान राजनीतिक तौर पर भाजपा के साथ नहीं है और सामाजिक तौर पर आरएसएस को जगह नहीं देते। यहा तक की विदर्भ में शिवसेना की पहल को किसानो ने ज्यादा मान्यता दी है। चुनाव से ऐन पहले जब राजनाथ सिंह ने विदर्भ से किसान यात्रा शुरु की तो उसमें किसान की जगह भाजपा के शहरी कार्यकर्त्ता और किसानो को कर्ज देकर मुनाफा कमाने वाले भाजपायी ज्यादा थे । यवतमाल के नानाजी वैघ की उम्र 73 साल है । विश्व हिन्दू परिषद के गठन के वक्त ही संघ से वास्ता पड़ा लेकिन मंदिर मुद्दे पर जिस तरह का रुख वाजपेयी सरकार ने अपनाया और विहिप के विरोध के बावजूद आरएसएस ने महज रेफरी की भूमिका जिस तरह अपनायी, उससे आजिज आकर वैघ साहब ने संघ से रिटायरमेंट ले लिया । पूछने पर साफ कहने से नहीं चूकते कि संघर्ष सत्ता के लिये नहीं बेहतर समाज के लिये था। लेकिन अब सत्ता और नेता ही केन्द्र में हैं तो उसमें उनका क्या काम। राहुल गांधी यवतमाल के ही जालका गांव में जब कलावती से मिलने पहुचे थे, तो वैघ साहब वहीं मौजूद थे । नानजी वैघ के मुताबिक राहुल की यह राजनीतिक तिकडम हो सकती है कि वह कलावती का नाम लेकर खुद को देश के सुदूर हिस्सों से जोड़ रहे हों। लेकिन इससे सरोकार तो बना। संघ ने तो शुरुआत ही सरोकार से की थी और आठ दशकों से सरोकार की राजनीति को ही महत्व दिया। लेकिन भाजपा की सत्ता की मलाई की चाहत ने सभी नेताओ को कमरे में कैद कर दिया और दिल्ली में खूंटा गाढ़ दिया। वैघ का मानना है कि भाजपा कुछ न भी करे लेकिन उसके नेता लोगो से सरोकार तो बनाते, राजकरण में भाजपा ने सरोकार तो छोडा ही संघ को भी सरोकार की समझ के बदले बैठक और चिंतन से जोड दिया।

 

खास बात यह है कि सौराष्ट्र से नागपुर की पट्टी में जितने सवाल संघ के भीतर भाजपा को लेकर है, उतने ही सवाल भाजपा के कार्यकर्ताओ में संघ को लेकर भी है । नागपुर में संघ का मुख्यालय जरुर है लेकिन यहां भाजपा लोकसभा चुनाव जीत नही पाती है। और तो और जब इमरजेन्सी में सरसंघचालक देवरस नागपुर में बैठकर जेपी के जरीये राष्ट्रीय प्रयोग कर रहे थे तो उसके बाद हुये चुनाव में चाहे जनता पार्टी को दो तिहायी बहुमत मिल गया हो लेकिन नागपुर ही नहीं विदर्भ की सभी ग्यारह सीटों पर कांग्रेस जीत गयी थी। उस वक्त देवरस का इन्टरव्यू नागपुर से प्रकाशित तरुण भारत में छपा था। जिसमें उन्होंने विदर्भ में कांग्रेस की जीत पर यही कहा था कि संघ के सरोकार विदर्भ से नहीं जुड़ पाये हैं तो इसकी बडी वजह दलित राजनीति है। और आंबेडकर की राजनीतिक ट्रेनिंग है। लेकिन भाजपा के भीतर गोविन्दाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से कल्य़ाण सिंह का कद बढ़ना देखा गया और उत्तर प्रदेश में एक वक्त भाजपा की राजनीतिक सफलता को भी कल्याण सिंह से जोड़ा गया लेकिन वही कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद 1993 में जब पहली बार नागपुर आये थे तो संघ मुख्यालय में वह सिर्फ पांच मिनट ही रह पाये थे। इतनी छोटी मुलाकात के पीछे आरएसएस का ब्राह्माणवाद या दलित-पिछडा राजनीति को जगह ना देना भी माना गया। लेकिन संघ को लेकर कार्यकर्त्ताओ में कुलबुलाहट इतनी भर ही नही है कि संघ की राजनीतिक जमीन में भाजपा सत्ता पा नहीं सकती ।

 

बडा संकट यह है कि भाजपा में अपना आस्तितिव बनाने के लिये नेता संघ की चौखट पर माथा टेकता है और संघ में खुद को बड़ा दिखाने के लिये वरिष्ठ संघी भाजपा को राजनीतिक हिदायत देता है । ऐसे में बंटाधार दोनो का हुआ । उमा भारती खुल्लमखुल्ला आडवाणी से गाली गलौच कर संघ मुख्यालय पहुंच कर राम माधव के साथ ही तस्वीर खिंचवाती हैं, और संघ भी उन्हें पुचकार कर सेक्यूलर रेफरी बन जाता है। ऐसे में सत्ता की सहूलियत ने संघ को भी सरोकार से डिगाया और संघ के भीतर भाजपा सरीखा पतन भी हुआ । कभी वाजपेयी-आडवाणी को उम्र की दुहायी देकर रिटायर होने की बात कही गयी। तो जिन्ना मसले पर आडवाणी से इस्तीफा भी मांगा गया और प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने पर हरी झंडी भी दी गयी। यानी रेफरी की ही भूमिका आरएसएस की बढ़ती रही। संघ के भीतर एक तबके ने ठीक उसी तरह राजनीतिक मान्यता ली जैसी मान्यता संघ को खारिज कर पैसे वाले उन समर्थको को मिली , जो एक दशक पहले संघ या भाजपा की बैठको में भौतिक जरुरतो का इंतजाम अपने पैसे से करते थे। यानी पैसे वाले समर्थक चुनावी टिकट पाकर नेता बन गये तो संघ के वरिष्ठ और प्रभावी राजनीतिज्ञ बनने लगे। सत्ता ने किस तरह भाजपा को सिमटाया है, इसका अंदाजा भाजपा के मुख्यमंत्रियो को देखकर भी लगाया जा सकता है । छत्तीसगढ में रमन सिंह और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन्हें कोई पहचानाता नहीं था। लेकिन अब इन दोनो के अलावे दोनो राज्य में कोई और भाजपा नेता का नाम जुबान पर आता नहीं है। कमोवेश यही स्थिति राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया की है और तमिलनाडु में येदुरप्पा की है । यानी दूसरी लाइन किसी नेता ने बनने ही नही दी। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने तो दूसरी-तीसरी किसी लकीर पर नेताओं को नहीं रखा है। जबकि, मुख्यमंत्री बनने से पहले अहमदाबाद या राजकोट के सर्किट हाउस का अदना अधिकारी भी मोदी को ग्राउंड फ्लोर का वीवीआईपी कमरा नहीं देते हुये हड़का देता था। कहा जा सकता है यही संकट भाजपा के केन्दिय नेताओ का भी है। 2004 में हार के बावजूद बाजपेयी ने आडवाणी के लिये रास्ता नहीं खोला था। 2009 में आडवाणी हार के बावजूद किसी दूसरे के लिये रास्ता नहीं खोल रहे हैं। माना जाता है सरसंघचालक मोहन राव भागवत के लिये पिछले एक साल से सुदर्शन जी भी रास्ता नहीं खोल रहे थे । लेकिन भागवत ने रास्ता बना ही लिया । लेकिन राजनीतिक तौर पर सवाल अनसुलझा है कि संघ परिवार में जब अपनों के लिये ही रास्ता नहीं बनाया जाता तो जनता इस परिवार के लिये रास्ता कैसे बनायेगी।