यह पहला मौका है जब सरकार ने किसी बिल को पेश करने से ज्यादा मशक्कत बिल पास न हो इस पर की। और अन्ना टीम को बात बात में पहले ही यह संकेत दे दिया गया कि अगर वाकई लोकपाल के मुद्दे में दम होगा तो आने वाले वक्त में अन्ना टीम का भी राजनीतिकरण होगा और उस वक्त कांग्रेस राजनीतिक तौर पर इस लड़ाई को लड़ लेगी। दरअसल, लोकसभा में लोकपाल के मसौदे को पेश करने से पहले सरकार और कांग्रेस के बीच असल मशक्कत इसके राजनीतिक लाभ को लेकर हुई। तीन स्तर पर समूची बिसात को बिछाया गया। पहले स्तर पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अन्ना टीम को टोटला की वह कहां किस मुद्दे पर कितना झुक सकती है। दूसरे स्तर पर बीजेपी का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की नब्ज को सरकार ने पकड़ा और तीसरे स्तर पर अन्ना के आंदोलन से आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की राजनीति पर पड़ने वाले असर को परखा गया। इसको बेहद महीन तरीके से इस अंजाम तक ले जाया गया जिससे सरकार के हाथ में लोकपाल की डोर भी हो और यह नजर भी ना आये कि अगर लोकपाल अटका हुआ है तो उसकी डोर भी सरकार ने ही थाम रखी है।
यह सिलसिला जिस तरह से बीते पांच दिनो में अंजाम तक पहुंचा वह अपने आप में सियासत का अनूठा पाठ है। क्योंकि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद लगातार अन्ना टीम के संपर्क में यह कहते हुये रहे कि सरकार की मंशा मजबूत लोकपाल बनाने की है,लेकिन अन्ना टीम को ही यह सुझाव देने होंगे कि संसद के भीतर कैसे सहमति बने और सीबीआई सरीखे मुद्दे पर अगर सरकार की राय अलग है तो उसका कोई फार्मूला अन्ना टीम को बताना होगा। 34 मुद्दों को लेकर सलमान खुर्शीद के साथ चली चर्चा में अन्ना टीम के हर तरीके से रास्ता सुझाया और सलमान खुर्शीद यह संकेत भी देते रहे कि रास्ता निकल रहा है। लेकिन चर्चा में ब्रेक एक ऐसे मोड़ पर आया जब सलमान खुर्शीद ने लोकपाल के सवाल को राजनीतिक लाभ-हानि के आइने में देखना और बताना शुरु किया। और महाराष्ट्र कारपोरेशन चुनाव में शरद पवार की सफलता का उदाहऱण देते हुये सलमान खुर्शीद ने कहा कि जब चुनाव में हार जीत पर भ्रष्ट्रचार का मुद्दा या अन्ना आंदोलन महाराष्ट्र में ही असर नहीं डाल पाया तो फिर सरकार अन्ना आंदोलन के सामने क्यों झुके। और अगर लोकपाल को लेकर आंदोलन में इतनी ताकत हो जायेगी तो अन्ना टीम का भी राजनीतिककरण हो जायेगा। तो लड़ाई उसी वक्त लड़ लेंगे। और यह स्थिति तीन दिन पहले ही आयी और उसके 24 घंटे बाद ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अन्ना हजारे को चुनौती दे दी और पांच राज्यों में काग्रेस की चुनावी जीत का मंत्र भी कांग्रेसियो में फूंक दिया। वहीं इसी दौर में कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव की नब्ज को पकड़ा और कांग्रेस के दो कद्दावर नेताओं ने मुलायम को यही समझाया कि अगर मायावती भी सरकार के लोकपाल के खिलाफ है और समाजवादी पार्टी अन्ना के लोकपाल के हक में है तो फिर यूपी चुनाव में मुलायम के हाथ में आयेगा क्या।
यानी एक तरफ कांग्रेस ने अन्ना आंदोलन से बढ़ते बीजेपी के कद के संकट को बताया तो दूसरी तरफ लोकपाल के सवाल पर मायावती का सामने मुलायम को कोई लाभ ना मिलने की स्थिति पैदा की । इसी जोड़-तोड़ में अल्पसंख्यक का दांव मुलायम सिह यादव के सामने रखा गया । यानी यूपी के राजनीतिक समीकरण में मुस्लिम कार्ड को ही अगर लोकपाल से जोड दिया जाये तो लोकपाल का रास्ता भी रुक सकता है और मायावती पर मुलायम का दांव भी भारी पड़ सकता है। जबकि इसी के समानांतर राजनीतिक तौर पर कांग्रेस ने लगातार सरकार को भी इस सच से रुबरु कराया कि जब तक लोकपाल के सवाल को वोट बैंक की सियासत से नहीं जोड़ा गया और जब तक लोकपाल पर कोई भी कदम उठाने के बाद राजनीतिक लाभ कांग्रेस को नहीं मिले तब तक लोकपाल पर मठ्ठा डालना ही होगा। चूंकि राजनीतिक तौर पर लाभ उठाने या वोट बैंक को रिझाने के लिये ही सारे दल लोकपाल का खेल खेल रहे हैं तो ऐसे में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन के साथ ही सरकार को भी चलना होगा । और इसी के बाद उन मुद्दो पर ही मठ्टा डालने की दिशा में अभिषेक मनु सिंघवी स्टैंडिंग कमेटी के जरीये लगे जिसपर अन्ना का अनशन तुड़वाते वक्त संसद में सरकार की ही पहल पर सहमति बनी थी। यानी जिस अन्ना हजारे को लेकर अभी तक सरकार से लेकर सोनिया गांधी का रवैया फुसलाने-बहलाने वाला था, उसी अन्ना से उन्हीं के मुद्दो पर टकराव का रास्ता राजनीतिक बिसात के तौर पर अख्तियार किया गया। जिससे लोकपाल को लेकर आगे यह ना लगे कि टकराव बीजेपी से है।
यानी जब समझौते की स्थिति भी आये तो गैर राजनीतक तौर पर काम कर रहे अन्ना हजारे ही नजर आयें और बीजेपी राजनीतिक संघर्ष का लाभ उठाने के घेरे से बाहर हो जाये । इस बिसात का पहला राउंड लोकपाल पेश करने के साथ ही सरकार के पक्ष में रहा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन सरकार की असल परीक्षा 27 दिसंबर से शुरु होगी। क्योंकि तब संसद के सामानांतर सड़क पर जनसंसद का भी सवाल होगा । और अब सरकार-कांग्रेस के धुरंधर अपनी राजनीतक बिसात पर इसी मशक्कत में लगे है कि कैसे संसद के सामने सड़क के आंदोलन को हवा का झोंका भर बना दिया जाये