६ फरवरी को उत्तरप्रदेश में प्रथम चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दिन नेहरु-गाँधी परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा ने जिस तरह सक्रिय राजनीति में आने के संकेत दिए उससे कांग्रेसी नीति-नियंताओं की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक ही था। कांग्रेस के गढ़ रायबरेली के अंतर्गत सुरक्षित सीट सलोन में कांग्रेस प्रत्याशी शिव बालक पासी के पक्ष में प्रचार करने उतरे राबर्ट वाड्रा ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज़ाहिर कर यह संकेत तो दे ही दिए हैं कि आने वाले समय में वे गाँधी-नेहरु परिवार की विरासत संभालने का माद्दा भी रखते हैं और ताकत भी।
हालांकि प्रियंका ने अपने पति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को सिरे से नकारते हुए मीडिया पर ही इस मुद्दे के राजनीतिकरण का आरोप मढ़ दिया। यदि प्रियंका की बात का विश्वास भी किया जाए तो क्या राबर्ट सचमुच राजनीति में नहीं आयेंगे? कम से कम राबर्ट वाड्रा के नजरिये से देखें तो प्रियंका गलत साबित होती नज़र आती है। हफ्ते भर पहले राबर्ट वाड्रा ने मीडिया के माध्यम से फिर बयान दिया कि यदि जनता उन्हें नेता के रूप में स्वीकार करना चाहे तो वे सक्रिय राजनीति में ज़रूर आयेंगे।
परिदृश्य साफ़ है- प्रियंका जहां अपने भाई राहुल के राजनीतिक सपनों की खातिर अपने राजनीतिक जीवन को तिलांजलि देने को आतुर हैं तो उन्हीं के पति राबर्ट की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जमकर हिलोरें मार रही है। यानी आने वाला समय कांग्रेस के शीर्ष परिवार के लिए सत्ता संघर्ष का सबब भी बन सकता है। दरअसल यह पहला मौका नहीं है जब राबर्ट वाड्रा ने राजनीति में आने की अपनी मंशा का सार्वजनिक इज़हार किया हो। दो वर्ष पूर्व उन्होंने यह कहकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी थीं कि वे भारत के किसी भी क्षेत्र से चुनाव जीत सकते हैं। हालांकि तब उनकी बात को इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया था क्योंकि वे हमेशा अपनी पत्नी प्रियंका की चाय दिखते नज़र आते थे लेकिन इस बार चुनाव प्रचार से लेकर मोटरसाइकिल रैली तक में उन्होंने अपने स्वतंत्र वजूद को साबित कर राजनीतिज्ञ बनने की ओर अग्रसर होने पर सार्वजनिक रूप से मुहर लगा दी| राबर्ट ने मीडिया के सामने यह भी कहा कि अभी राहुल का वक़्त है तो आने वाला वक़्त प्रियंका का होगा| इससे तो यही साबित होता है कि वाड्रा अपनी पत्नी के नाम और गाँधी-नेहरु परिवार की राजनीतिक विरासत की एतिहासिक महत्ता को भुनाना चाहते हैं|
इतिहास के आईने से देखा जाए तो नेहरु परिवार से इतर राजनीति में आने की मंशा रखने वाले वाड्रा पहले व्यक्ति नहीं हैं| इंदिरा गाँधी के पति स्व. फ़िरोज़ गाँधी ने भी नेहरु परिवार की कर्म-स्थली इलाहाबाद से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की थी| मगर वाड्रा और फ़िरोज़ गाँधी की राजनीतिक मंशा में ज़मीन-आसमान का अंतर है, था और हमेशा रहेगा। वाड्रा जहां राजनीति की चमकीली राहों पर चलने में स्वयं को मुफीद पाते हैं वहीं फ़िरोज़ गाँधी ने राजनीति में खुद को हमेशा नेहरु परिवार से इतर प्रासंगिक रखा। फ़िरोज़ पहले स्वतंत्र सेनानी थे, बाद में कांग्रेस कार्यकर्ता बने और अंत में नेहरु परिवार के दामाद किन्तु वाड्रा न तो स्वतंत्र सेनानी हैं और न ही कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में उनकी मेहनत झलकती है। फ़िरोज़ गाँधी ने १९३० में भारत की आजादी के लिए स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदने का साहस दिखाया और कई बार जेल की यात्रा की| १९४२ में वे प्रांतीय सदन से लोकसभा सदस्यता हासिल कर आगे बढ़ते गए| भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में फ़िरोज़ ने नेहरु सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जिसकी वजह से हरिदास मामले में नेहरु सरकार के वित्त मंत्री टी.टी.कृष्णामचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा था| क्या वर्तमान में राबर्ट वाड्रा के पास है ऐसी इच्छाशक्ति कि वे अपनी ही पार्टी की सरकार में हुए भ्रष्टाचार के मुद्दों पर मुखर होकर अपना विरोध जता सकें? बिलकुल नहीं। वाड्रा को राजनीति में आम से कोई लगाव नहीं है, वे हमेशा ख़ास बनकर उनपर राज करना चाहते हैं| वाड्रा की नित बढ़ती राजनीतिक हसरतों के बीच अब गेंद सोनिया के पाले में है कि उनके और राजीव गाँधी के राजनीतिक वारिस अकेले उनके पुत्र राहुल होंगे या पुत्री और दामाद की भी उसमें हिस्सेदारी होगी।
यदि दूरगामी राजनीतिक बदलाव पर नज़र डालें तो इसकी पुरजोर संभावना है कि २०१४ में होने वाले लोकसभा चुनाव में सोनिया गाँधी शायद ही रायबरेली की जनता का प्रतिनिधित्व करें| चूँकि राहुल अमेठी से लोकसभा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो इस सीट पर प्रियंका गाँधी की दावेदारी सबसे मजबूत नज़र आती है| राजनीति की सोच रखने वाले सोच रहे होंगे कि तो फिर वाड्रा का राजनीतिक सफ़र क्या रायबरेली और अमेठी से इतर शुरू हो सकता है? इसका जवाब है- हाँ| वाड्रा को पार्टी रायबरेली-अमेठी से सटे सुल्तानपुर से पार्टी प्रत्याशी बना सकती है जहां संजय सिंह गाँधी-नेहरु परिवार की विरासत संभालने का प्रयत्न कर रहे हैं| यह तथ्य विचारणीय है कि रायबरेली-अमेठी से सटे सुल्तानपुर में लोकसभा का प्रतिनिधित्व को कांग्रेस को मिलता रहा है मगर जब बात विधानसभा की आती है तो इस क्षेत्र की जनता गाँधी-नेहरु परिवार के विश्वस्तों को ही नकार देती है| इस बार प्रियंका और राहुल; दोनों ने सुल्तानपुर की ख़ाक छान मारी है| यदि उनके संयुक्त प्रयासों से इस स्थिति में बदलाव होता है और कांग्रेस यहाँ पुनः मजबूत होती है तो वाड्रा के लिए आने वाले समय में सुल्तानपुर से मुफीद क्षेत्र दूसरा कोई नज़र नहीं आता| कयासों का बाज़ार गर्म है और कांग्रेसी हतप्रभ खड़े तमाशा देख रहे हैं|
खैर यह तो वक़्त ही बताएगा कि वाड्रा राजनीति की उड़ान कितनी दूर तक भर पाते हैं लेकिन यदि उनका राजनीति में पदार्पण गाँधी-नेहरु परिवार के दामाद के रूप में हुआ; जिसका पुख्ता विश्वास सभी को है तो यह परिवारवाद की ओर बढ़ाया गया एक आत्मघाती कदम होगा जिसकी आंच राहुल सहित प्रियंका को भी झुंझला सकने का सामर्थ्य रखती है। वाड्रा निश्चित ही राजनीति में गाँधी-नेहरु परिवार के नाम की बची-खुची इज्जत को तार-तार कर देंगे। वाड्रा की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने गाँधी-नेहरु परिवार के वारिसों के माथे पर शिकन तो ला ही दी है