बंधु, मामला कश्मीर का हो और आप इस या उस पार खड़े न हो, तो आपकी पहचान क्या है ? आजादी के बाद इकसठ साल में बतौर देश के नागरिक यह तमगा सीने पर कोई भी ठोंक सकता है। क्योंकि जैसे ही आप कश्मीर के मुश्किलात के साथ खडे होंगे आपको मुस्लिम लीग का ठहरा दिया जायेगा या आंतकवादियों का हिमायती या अलगाववादियों की कतार में खड़ा कर दिया जायेगा । और अगर आप कश्मीरियों का विरोध करेंगे, कश्मीरियों की आजादी के शब्द को पाकिस्तान से जोड़ेंगे तो देशभक्ति का राग आपके अंदर बजने लगेगा। जम्मू के लोग अपने आंसुओं में आपकी संवेदनाओं को देखेंगे।
आप कहेगें राजनीतिक दलो ने तो बंटाधार किया ही है,इसका समाधान है क्या । मुझे लगता है यह समझना होगा कि जब राज्य मीडिया पर रोक लगाने की स्थिति में आ जाये और विरोध के स्वर दबा कर खुद जोर से बोलकर उसे सच बताने की जुर्रत करने लगे तब देश में लोकतंत्र हाशिये पर ढकेला जाने लगा है, यह तो मानना ही होगा । मुझे तो लगता है कि कश्मीर पर कुछ कहने से पहले देश के नागरिको को कश्मीर जाना भी चाहिए। यहां आप यह सोच कर नाराज न होइए कि पंडितो की हालत देखने के लिये जम्मू जाने की बात क्यों नहीं की जा रही है। यकीनन पंडितों की हालत बद् से बदतर है । खासकर अगर उनके राहत शिविरों में कोई भी चला जाये तो न्यूनतम जरुरतों से कैसे हर वक्त उन लोगो को दो- चार होना पड़ता है जिनके ठाठ 1987 से पहले धाटी में रहते हुये थे, देखकर अपनी आंखे शर्म से झुक जायेगी।
लेकिन घाटी में जब हर क्षण आप सेना की बंदूक के निशाने पर हों और शाम ढलते ही सडक पर वर्दी में कोई भी आपको बोले “जनाब रुक जाईये और आपकी जान पर बन आये।” उस पर आप मुस्लिम हो तो आपके कपड़ों के अंदर जिस्म टटोलकर सेना सुकून पाये तो आप क्या कहेगे। अगर गाडी का नंबर दिल्ली या किसी दूसरे राज्य का है तब तो ठीक और अगर कश्मीर का है तो हर शाम ढलते ही आप सफर करके देख लीजिए। आप कश्मीर में आजादी के नारे को छोडिये..यह बताइये कि देश में कही भी अगर ऐसे हालात हैं तो आजादी होनी चाहिये इसकी मांग कोई करेगा या नहीं।
आप कह सकते है, यह व्याख्या तो सीमापार से की जाती है । लेकिन मेरा मानना है कि कश्मीर भारत का अंखड हिस्सा है इससे इंकार जब कोई नहीं कर रहा तो सीमा पार के उकसावे में हम क्यों फंस जाते हैं । उसकी भाषा तो छोडिये वहां का राजनीतिक तानाशाही मिजाज, सामाजिक टकराव, आर्थिक दिवालियापन, क्या इससे कश्मीरी वाकिफ नहीं है ।
मुझे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके में भी जाने का मौका मिला है । मेरे साथ कश्मीर के रिपोर्टर अशरफ भी थे। यकीन किजिये जब उन्हे यह पता चला कि अशरफ कश्मीर से हैं तो पीओके के अधिकतर परिवार वाले यही जानना चाहते थे कि अशरफ ने शादी की है या नहीं । या फिर किसी तरह उनकी लड़की से निकाह करके पीओके से लडकी हिन्दुस्तान ले जाये ताकि लडकी की जिन्दगी बन जाये । पीओके के कश्मीरियों का बस चले तो वह एलओसी पार कर इसपार आ जाये । कश्मीर जिस तरह जन्नत है, वही पीओके में जंगल-पहाड़ नंगे हो चुके है । पेड़-दर-पेड़ काटने की रफ्तार कितनी तेज है, इसका अंदाजा पीओके से इस्लामाबाद आते ट्रकों की आवाजाही से समझा जा सकता है, जिसमें हर तीसरे ट्रक पर शहतीर यानी कटे हुये पेड़ होते है । पीओके में रहने वालो का मानना है कि पाकिस्तान को तो डर लगता है कि कभी पोओके भी उनके हाथ से ना निकल जाये इसलिये पीओके की समूची खनिज संपदा को ही पाकिस्तान खंगाल रहा है । पीओके में कोई उघोग नही है। काम के नाम पर पेड़ काटना और खादान से माल निकालना भर काम है। यानी अपनी ही जमीन पर गड्डा करके जीने को पीओके के कश्मीरी मजबूर है। ऐसा नही है कि आजादी का नारा लगाने वाले कश्मीरी इस हकीकत को नहीं जानते । या फिर अलगाववादी नहीं जानते। सभी जानते-समझते है । मुशर्रफ के दौर में याद कीजिये जब भारत पाकिस्तान की शांति वार्त्ता के वक्त पहली बार अलगाववादी पाकिस्तान गये थे । कश्मीर के अलगाववादियो को पीओके की संसद में तकरीर का भी मौका मिला था । जो यासिन मलिक 1989 में बंदूक लेकर कश्मीर की आजादी का नारा लगाते हुये मुज्जफराबाद गये थे, उसी यासिन मलिक ने पीओके की संसद के भीतर आजादी के नाम पर पाकिस्तान पर धोखा देने का आरोप भी लगाया और फैज के उस गीत..हम देखेगे..जब ताज उछाले जायेगे…को भी सुना दिया ।
सवाल यह नहीं है कि आजादी का नारा लग रहा तो राजनीति क्या करेगी और हम आप सीधे यह सवाल करने लगे कि फिर समाधान क्या है । इस मिजाज को समझिये की यह देश सांप्रदायिक नहीं है । चाहे राजनीति कितना भी सांप्रदायिकता का पाठ कश्मीर और जम्मू के आसरे पढाये देश हिन्दू- मुसलमान के आसरे नहीं बंट सकता है । हां, समूचे समाज को अगर देश चलाने वाले असुरक्षित करें और धर्म के आसरे सुरक्षा की बात करने लगेंगे तब धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की परिभाषा भी कश्मीर और जम्मू के जरिए लिखने की कोशिश भी होगी । हमारे सामने हर मुद्दे को सुरक्षा के खतरे से जोड़ कर देखने का जो आईना बनाया जा रहा है, उसे तोड़ना हमीं-आपको है । मान लिजिये देश को सांप्रदायिकता की आग में झोकने की कोशिश आजादी के वक्त भी हुई थी, लेकिन गांधी की हत्या ने जतला दिया कि देश सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता । गांधी को किसी मुसलमान ने नहीं, हिन्दू ने मारा था । इसकी व्याख्या हिन्दू के जरिए नहीं गांधी के जरिए कीजिए रास्ता दिखने लगेगा।