कश्मीर फिर आतंक के कगार पर पहुंचता नजर आ रहा है। कश्मीर की घाटी अब फिर बमों, पत्थरों और बंदूकों से गूंज रही है। यदि सुरक्षा बल हिंसक प्रदर्शनकारियों को काबू करने के लिए ताकत का इस्तेमाल कर रही है तो भीड़ भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है। वह पुलिस और सुरक्षा बल पर सीधे हमले बोल रही है। थानों को लूट रही है। हथियार उड़ा ले जा रही है। आगजनी कर रही है। कर्फ्यू भी कुछ खास काम नहीं कर रहा लेकिन असली प्रश्न यह है कि क्या सुरक्षा बल और भीड़, दोनों सही हैं और क्या ये दोनों यह समझते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं, उससे उनके लक्ष्य की पूर्ति हो जाएगी ?
तात्कालिक दृष्टि से शायद दोनों सही हैं। भीड़ को गुस्सा आया बुरहान वानी की मौत पर तो उसने उसे जाहिर कर दिया और पुलिस ने जवाबी कार्रवाई कर दी। लेकिन क्या कश्मीर के लोगों को पता नहीं कि यदि वे सौ साल तक भी यही करते रहे तो भी वे भारत से अलग नहीं हो पाएंगे। आतंकी हिंसा का मुकाबला करने की ताकत भारत के पास उससे हजार गुना ज्यादा है। नगालैंड और खालिस्तान का हश्र क्या हुआ?
यह ठीक है कि पाकिस्तान उसके पीछे है लेकिन पाकिस्तान अब थक चुका है। उसके अपने सिरदर्द इतने हैं कि वह कश्मीर को अब अपने कंधे पर नहीं ढो सकता। कश्मीरी भी पाकिस्तान की गुलामी नहीं कर सकते। वे यदि सच्ची आजादी चाहते हैं तो सबसे पहले वे आतंक का रास्ता छोड़े। दूसरा, वे अलगाव का नारा लगाना बंद करें। तीसरा, दोनों कश्मीरों को एक करवाएं। चौथा, स्वायत्तता की मांग करें, जैसा कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने लाल किले से कहा था कि स्वायत्तता आकाश तक असीम की जा सकती है।
हमारी सरकार को सिर्फ गोली के सहारे नहीं रहना चाहिए। उसे बोली का सहारा भी लेना चाहिए। वह हुर्रियतवालों से बात करे, पाकिस्तानपरस्तों से संवाद करे, गुस्साए नौजवानों से बात करे और पाकिस्तान की फौज व सरकार से दो-टूक बात करे। कश्मीर से कतराए नहीं। कश्मीर को पहला मुद्दा बनाए। पाकिस्तान का भला इसी में है कि वह आतंक का खुला विरोध करे। आतंक के समर्थन में बोलकर वह अपना पक्ष कमजोर करता है।