कलावती के गांव में जिन्दगी सस्ती है, राहुल गांधी के पोस्टर से

kalawatiजालका गांव। देश के बारह हजार गांवों में एक। लेकिन पिछले तीन साल में सबसे अलग पहचान बनाने वाला गांव। यह राहुल की कलावती का गांव है। यह उस यवतमाल जिले का गांव है, जहां आजादी के साठ साल बाद भी रेलगाडी नहीं पहुची है। लेकिन किसानों की आत्महत्या ने दुनिया के हर हिस्से से लोगो को यहां पहुंचा दिया। राजनीति का केन्द्र अगर यवतमाल बना तो अंतर्राष्ट्रीय मंच के लिये यवतमाल ऐसी प्रयोगशाला भी बना, जहां विकसित देश और उनके मंच यह टटोलने आये किसी सबसे बडे बाजार में तब्दील होते भारत में यवतमाल सरीखे किसानो के गांव के जिन्दा रहने का राज क्या है या फिर वह कौन सी स्थितियां हैं, जिससे ऐसे गांव आईसीयू में पहुच गये हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक प्रतिनिधिमंडल से लेकर अमेरिकी सीनेट के सदस्यो की टीम और विश्व बैंक से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तक के सदस्य आईसीयू में पहुंचे यवतमाल के किसानो की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को टटोलने यवतमाल पहुंचे। इन अंतर्राष्टीय मंचो के सामाजिक-आर्थिक डॉक्टरों की रिपोर्ट का इंतजार यवतमाल से लेकर दिल्ली तक को है। लेकिन संसद के गलियारे से जैसे ही राहुल गांधी ने कलावती और शशिकला का जिक्र किया ,वैसे ही कलावती के गाव जालका ने यवतमाल के भीतर के एक हजार से ज्यादा गांवो की उस त्रासदी को भी सामने ला दिया, जिसमें प्रयोगशाला के तौर पर हर गांव का इलाज किसानो को गिनीपिग बना कर किया जा रहा है।

 

कलावती के गांव जालका के खेतो में कदम रखते ही आपको चार-साढे चार फीट के गड्डे मिलेगे। मन में सवाल उठेगा कि खेतो के बीच में गड्डो का मतलब। दरअसल, प्रयोगशाला में प्रयोग की इजाजत किसी को भी है तो श्री श्री रविशंकर भी इससे क्यों चूके? वह भी किसानो के अंदर खुदकुशी करने की बैचेनी को शांत करने जालका पहुंचे। वहां खेत के अंदर तालाब। और तालाब के पानी से किसानो के मन शांत करने की थ्योरी को हकीकत में उतारने की सोच कर भक्तो को इसका अनुसरण करने को कहा। जबतक श्री श्री रविशंकर गांव में रहे, तब कर गड्डे चार- साढ़े चार फीट के ही किये जा सके तो बस वह गड्डे बरकरार है। अब तालाब इतना छोटा तो होता नही, इसलिये बरसात हुई तो इन गड्डो में पानी भर गया। जिससे गड्डे भरने में भी मुश्किल और खेती करने में भी परेशानी।

 

खेतो की पगडंडी पार करते करते गांव के रिहायशी इलाको में कदम रखते ही राजनीतिक प्रयोगशाला का अंदेशा मिलने लगता है। दिल्ली से चाहे सवाल राहुल की कलावती को लेकर हो, लेकिन जालका गांव में मामला उलट है। वहा राहुल की कलावती नहीं बल्कि कलावती के राहुल है। राहुल का बडा सा पोस्टर बेहद मासूमियत से कहीं घास – फूस तो कहीं गोबर लीपी दीवार पर किसी भी बच्चे की तरह लहरा- लहरा कर समूचे गांव को रोशन किये हुये है। तीन गुना पांच फीट का सबसे बडा पोस्टर चारों कोनों पर रस्सी से बांधा गया है। ज्यादा तेज हवा चलने पर पोस्टर की कोई रस्सी टूट जाती है तो कलावती को बताने के लिये गांववालों का तांता लग जाता है। और मिनटों में पोस्टर को फिर से टाइट रस्सी से बांध दिया जाता है। राहुल गांधी के कुछ छोटे पोस्टर बरसात में दीवारों से उखड कर पानी में समा गये। लेकिन कलावती के राहुल से गांववालो को ऐसी आस है कि गांव के कुछ दूसरे किसान कटे-फटे-भीगे पोस्टरों को भी अपने कलेजे से लगाये बैठे है कि कोई दिल्ली दृष्टि उन पर पड़े तो उनका भी बेडा पार हो। दरअसल, सुलभ इंटरनेशनल ने राहुल की कलावती को पांच लाख रुपये दिये। जिस पर राज्य के कांग्रेसियो ने ढिढोरा पीटना शुरु किया कि यह रकम तो उन्होंने ही दी है। गांववाले जब स्थानीय कांग्रेसियों के पास पहुचे कि हमें भी रुपये दो तो नेताओ ने कहा नेता रुपये कब से बांटने लगे। गांववालो को भरोसा नहीं हुआ। उन्होने कलावती से पूछा। कलावती ने जबाब दिया यह तो राहुल की महिमा है। मेरे राहुल की महिमा। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने भी कह दिया कि राहुल गांधी कलावती का नाम ना लेते तो उन्हे पैसे कौन देता। यानी पैसे कोई भी बांटे, सबके पीछे राहुल है। अब राहुल तो सबके हो नहीं सकते , वह तो कलावती के राहुल है। लेकिन राहुल के पोस्टर से ही कुछ कल्याण हो जाये इसलिये पोस्टर का कतरा कतरा जालका गांव में समाया हुआ है। जो सबसे बड़ा पोस्टर है, वह कपडे और प्लास्टिक से मिल कर बना है, जिसको बनवाने पर एक पोस्टर की कीमत पच्चतर से सौ रुपये होगी। अगर समूचे गांव में पड़े छोटे बड़े पोस्टर की कीमत परखे तो करीब तीन से पांच हजार रुपये तो होगी ही। यह पोस्टर गांव में जिन दीवारो के आसरे टंगे है, उन दीवार की कीमत कौडियों से कम की है।

 

समूचे जालका गांव में ग्यारह सौ सोलह घर है। जिसमें से महज सौ घर ही ऐसे हैं, जो ईंट और सीमेंट के गारे से बने है। करीब दो सौ घर ऐसे हैं, जिसमें ऊंटों को मिट्टी के गारे से जोड़ कर बनाया गया है। और बाकि आठ सौ से ज्यादा घर बांस-पुआल-खपरैल-मिट्टी-गोबर से बने हुये है। इन कच्चे घरों को बनाने में करीब पांच सौ से हजार रुपये खर्च होते है। इन घरो के टूटने या गिरने के स्थिति में इन घरो में रहने वाले कितने टूट जाते है , इसका एहसास मोरघडे के परिवार को देखकर भी समझा जा सकता है। उसका घर बरसात और हवा के थपडे में टूट गया जिसे बनवाने का खर्चा आता है डेढ सौ रुपये। लेकिन इतना पैसा भी इस परिवार के पास नहीं है। किसी तरह राहुल गांघी के उस पोस्टर को इस परिवार ने जुगाड़ लिया जो कपडे और प्लास्टिक से मिलकर बना है, उसी को जोड़ जोड़ कर दीवार के बदले टांग दिया। कलावती को सुलभ इंटरनेशनल द्रारा पैसे दिये जाने के बाद जब राज्य स्तर के कांग्रेसी नेताओ ने गांव का दौरा करने का प्रोग्राम बनवाया तो एक स्थानीय कांग्रेसी कार्यकर्ता ने मोरघडे के घर से राहुल को पोस्टर उखाड दिया। जब मोरघडे ने विरोघ किया तो कांग्रसी कार्यकर्ता ने समझाया की टाट में पैबंद की तरह राहुल के पोस्टर का इस्तेमाल न करे। लेकिन मोरघडे ने जब कई दूसरी जगहो पर राहुल के लगे पोस्टरो का जिक्र किया तो जिसमें कलावती के घर के बाहर लगे फटे पोस्टर का भी जिक्र आया तो कार्यकर्ता ने समझाया अभी मामला राहुल की कलावती का है ना कि कलावती के राहुल का है। बस समझौता हुआ और दो दिन के लिये मोरघडे के घर को फटी-चिथडी बोरियो से ढका गाया और पोस्टर को एक ऊंचे मचान पर लटका दिया गया। नेता लौट गये तो पोस्टर दोबोरा मोरघडे को लौटा दिया गया।

 

ऐसा भी नही है कि जालका गांव में सिर्फ राहुल के ही पोस्टर है। जबसे राहुल के मुंह से कलावती का नाम निकला है, तभी से गांववालो को लगने लगा है कि दिल्ली से आने वाले नेताओ का पोस्टर घर पर लगाने से ही तकदीर बदल सकती है। संयोग से जालका गांव में तो सिर्फ राहुल गांधी आये लेकिन यवतमाल में हर नेता पहुंचा है। क्योंकि विदर्भ के किसानो का असल कब्रगाह यवतमाल ही बना है। यहां सबसे ज्यादा किसानो ने खुदकुशी की है। पिछले दस साल में समूचे महाराष्ट्र में 48 हजार किसानों ने आत्महत्या की जिसमें सिर्फ यवतमाल के करीब साढे पांच हजार किसान शामिल हैं। यही वजह है कि 2004 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के वक्त सोनिया गांधी ने दौरा किया क्योंकि वाजपेयी सरकार के राज में 16 हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की थी। लेकिन यह उस वक्त किसी किसान ने नहीं सोचा था कि मनमोहन सरकार को चार साल में 17 हजार से ज्यादा किसान महाराष्ट्र में आत्महत्या कर लेंगे। खैर सोनिया के बाद 2006 में मनमोहन सिंह यवतमाल गये। फिर बीजेपी अध्यक्ष ने यवतमाल पहुच कर किसान यात्रा निकाली तो वामपंथियो ने किसान जत्था निकाला। हर राजनीतिक दल का पोस्टर यवतमाल में देखा जा सकता है। नेताओ की बड़ी बड़ी तस्वीर वाले पोस्टर भी इस इलाके में चिपके पडे है लेकिन सबसे मजबूत पोस्टर राहुल गांधी का है इसमें कोइ बहस की गुजाइश नहीं। यवतमाल में करीब 8700 गांव है। जिसमें सिर्फ तेरह स्वास्थय केन्द्र ऐसे है, जहा जाने पर इलाज हो सकता है या कहें दवाई मिल सकती है। यूं हर हर तेरह गांव पर एक स्वास्थ्य केन्द्र सरकारी दस्तावेज में मौजूद है। लेकिन यवतमाल की त्रासदी यह भी है कि किसानों की खुदकुशी के मामले में अधिकतर किसानों को मरने जीने के बीच अस्पताल की चौखट तक उनके साथी ले भी गये लेकिन सिर्फ दस मामले ही ऐसे है जिसमें किसान की जान बच गयी। संयोग से कलावती के पति के खुदकुशी करने के छह महीने पहले अगस्त 2006 में उसके पड़ोसी ने भी खुदकुशी करने की कोशिश की थी, लेकिन शरीर के अंदर जहर जाने से पहले उसे बचा लिया गया। राहुल गांधी कलावती के घर पर आये तो उसकी तकदीर बदल गयी और कलावती के पड़ोसी को मलाल हो कि अगर उसकी जान भी चली जाती और राहुल गांधी उसके घर भी आ जाते और उसके परिवार के दिन भी फिर जाते।