एमनेस्टी इंटरनैशनल पश्चिम की एक ऐसी संस्था है जिसका दावा है कि वह दुनिया भर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को सूँघती है और उसके बाद उसका पर्दाफ़ाश करती है ताकि सम्बंधित देश की सरकार पर दबाब बनाया जा सके । इस संस्था ने अनेक देशों में अपनी शाखा और दफ़्तर खोल रखे हैं । पैसे की इसके पास कमी नहीं है । अलबत्ता कहा जा सकता है कि पैसे के ज़ोर पर ही यह अपने कर्मचारियों की सूँघने की ताक़त बनाए रखती है । यह अलग बात है कि इसकी घ्राण शक्ति ज़्यादातर एशिया और अफ़्रीका के देशों में ही प्रखर होती है । यूरोप की ठंड में उसे लकवा मार जाता है । इस एमनेस्टी की एक शाखा हिन्दुस्तान में भी पाई जाती है ।
अब दिग्विजय सिंह की बात । पुराने ज़माने में इनके पूर्वज राजा हुआ करते थे । लेकिन सरदार पटेल ने इन लोगों का राजपाट छीन लिया । रियासतें समाप्त हो गईं । पर विरासत में मिली घ्राण शक्ति तो समाप्त नहीं हुई । उसी के बलबूते दिग्विजय सिंह दस साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहे । उसके बाद दिल्ली आ गए । वर्तमान में सोनिया कांग्रेस में महासचिव हैं । और कहा जाता है विरासत के बल पर ही भारत के प्रधानमंत्री बनने का सपना पालने वाले राहुल गान्धी के दरबार के नवरत्नों में से एक हैं । कोई चीज़ सूँघते हैं तो चिल्लाते हैं । इससे लोगों का ध्यान आकर्षित होता है । यह अलग बात है कि सूंघ कर , जिसको तरबूज़ बताते हैं वह नाशपाती होती है ।
उपर से देखने पर एमनेस्टी और दिग्विजय सिंह में कोई सीधा सम्बंध दिखाई नहीं देता , लेकिन गहराई से देखने पर अजीब साम्य दिखाई देता है । दोनों कश्मीर को लेकर चिंतित हैं । लेकिन दोनों का चिंता प्रकट करने का तरीक़ा अलग अलग है । एमनेस्टी की जड़ें यूरोप में है इसलिए उसका तरीक़ा भी यूरोप की तरह जलेबीदार है । दिग्विजय सिंह ख़ालिस देसी चीज़ है इसलिए उनका तरीक़ा चाँद की ओर मुँह करके थूकने जैसा ही है । यह अलग बात है कि बाद में चेहरा अपना ही ख़राब होता है ।
एमनेस्टी ने पिछले दिनों बेंगलुरु में कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर एक आयोजन किया । एमनेस्टी को जैसी आशा थी , उसी के अनुरूप वहाँ देर तक कश्मीर की आज़ादी को लेकर नारे लगते रहे । उसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कश्मीर को लेकर वहाँ क्या बोला गया होगा । ज़ाहिर है एमनेस्टी की इस भारत विरोधी साज़िश को लेकर देश भर में ग़ुस्सा भड़कता । अब एमनेस्टी वालों ने अपना तर्क दे दिया है । उन का कहना है कि उनके किसी कर्मचारी ने कोई नारा नहीं लगाया । कश्मीर की आज़ादी के नारे तो आम आदमी लगा रहे थे । एमनेस्टी अच्छी तरह जानती है कि उसके मुलाजिमों को मोटी तनखाह नारे लगाने के लिए नहीं बल्कि नारे लगवाने के लिए मिलती है । और यह काम उसके मुलाजिमों ने बख़ूबी अंजाम दे दिया है । कश्मीर में भी सैयद अली शाह गिलानी और उनकी पूरी जमात सुरक्षा बलों पर पत्थर ख़ुद नहीं फेंकती बल्कि पैसे देकर दूसरों के बच्चों से फिंकवाती है । उनके अपने फरजन्द तो विदेशों में आराम की ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं और एमनेस्टी जैसों की झोलियाँ कश्मीर में मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन की रपटों से भरते हैं । एमनेस्टी के कर्मचारियों ने भारत विरोधी नारे नहीं लगाए होंगे । एमनेस्टी के वेतनभोगियों को इसकी जरुरत भी नहीं थी । यह उसके एजेंडा में भी नहीं है । लेकिन एमनेस्टी ऐसे भारत विरोधियों को मंच प्रदान करती है । यह मंच शक्तिशाली भी है और इसके पीछे यूरोप-अमरीका की ताक़त भी है ।
इसलिए ऐसे मंच पर आकर कश्मीर की आज़ादी के नारे लगाने वाले वेखौफ हो जाते हैं । उनको लगता है इस बड़े और अन्तर्राष्ट्रीय मंच का एक रुतबा है । इसकी अपनी ताक़त है । इसलिए इस मंच से कश्मीर की आज़ादी और भारत तेरे टुकड़े होंगे हज़ार के नारे लगाने वालों का सरकार कुछ नहीं बिगाड़ सकती । बेंगलुरु में एमनेस्टी ने यही साज़िश और इसी चाल के अन्तर्गत भारत विरोधियों को ढाल मुहैया करवाई है । सभी जानते हैं कि आज इस प्रकार के ःारत विरोधियों को इसी ढाल की सर्वाधिक आवश्यकता है । यह ढाल श्रीनगर से लेकर बेंगलुरु तक उन्हें एमनेस्टी इंटरनैशनल ही मुहैया करवा सकती है और वह करवा रही है । साल के अन्त में एमनेस्टी एक मोटी रपट प्रकाशित करती है । वह तृतीय विश्व के देशों को डराने के काम आती है । उस रपट से डरी सरकारें सारा साल एमनेस्टी को सफ़ाई देते देते गुज़ार देती हैं । एमनेस्टी का एक दूसरा तर्क भी है कि हिन्दुस्तान में तो उसका कामकाज भारतीय शख़्स ही देखता है । इसलिए बेंगलुरु में कश्मीर को लेकर आयोजन करवाने वाले भारत विरोधी कैसे हो सकते हैं ? एमनेस्टी के गोरे मालिक यह समझते हैं कि इस तर्क से सबकी बोलती बन्द हो जायेगी । लेकिन शायद लंदन में बैठे एमनेस्टी के मालिकों को ज्ञात नहीं है कि जयचन्द उनके लिए तो महानायक हो सकते हैं लेकिन भारतीय अभी भी उसे खलनायक और देशद्रोही ही मानते हैं ।
पंडित जवाहर लाल नेहरु के ही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखने वाली गीता सहगल ने जो एक लम्बे अरसे तक एमनेस्टी इंटरनैशनल से जुड़ी रही हैं , उन्होंने इस संस्था के काले कारनामों का ख़ुलासा किया है । उनके अनुसार यह संस्था इस्लामी आतंकवादी समूहों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग करती है । इतना ही नहीं इस संस्था के वित्तीय स्रोत भी शक के घेरे में रहते हैं । वैचारिक लिहाज़ से भी इस संस्था का दिवाली निकल गया है , जो नाम तो मानवाधिकारों का लेती है लेकिन छदम समर्थन आतंकवादियों का करती है । सहगल के अनुसार यह संस्था ब्रिटेन में जिहादी साहित्य प्रकाशित और प्रसारित करने वाले लोगों को समर्थन देती है । गीता सहगल इस संस्था के अन्दर रही हैं इसलिए इसके गली मुहल्लों को अच्छी तरह जानती हैं । लेकिन सोनिया गान्धी की कांग्रेस में इन जानकारियों की कोई क़ीमत नहीं है । वहाँ के नवरत्नों तो दिग्विजय सिंह हैं जो ज़ाकिर नायक को शान्ति दूत बताते हैं । उनके हिसाब से अपनी जान पर खेल कर भारत के सीमान्त की रक्षा कर रहे सुरक्षा बल नायक नहीं हैं बल्कि वे तो आम कश्मीरियों के मानवाधिकारों का हनन करने वाले खलनायक हैं ।
अपनी पार्टी की रीति नीति के अनुकूल ही कर्नाटक प्रदेश की सोनिया कांग्रेस सरकार तुरन्त एमनेस्टी इंटरनैशनल के बचाव में उतरी । वहाँ के गृहमंत्री ने कहा कि यह संस्था बेंगलुरु में काफ़ी लम्बे अरसे से काम कर रही है । कश्मीर को लेकर इस ने जो कार्यक्रम आयोजित किया था , उसमें कुछ भी तो ग़लत नहीं था । दरअसल कश्मीर की आज़ादी के नारे को लेकर सोनिया कांग्रेस के भीतर उसके पक्ष में एक आम सहमति बनती दिखाई दे रही है । जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में जब कश्मीर की आज़ादी और और भारत के हज़ार टुकड़े करने की इच्छा प्रकट की गई थी तो तुरन्त उनके समर्थन में राहुल गान्धी पहुँच गए थे ।
लेकिन एमनेस्टी के दुर्भाग्य से सरकार ने भयग्रस्त होने की बजाए उससे ही सवाल जबाब शुरु कर दिया । उसको विदेशों से मिल रहे करोड़ों रुपए के स्रोतों के बारे में पूछना शुरु कर दिया । एमनेस्टी के मंच पर कश्मीर की आज़ादी को लेकर गाए बेसुरे गीतों के पीछे छिपे साजिन्दों की तलाश शुरु हो गई । हड़कम्प मचना लाज़िमी था । भारत में पहली बार हुआ था कि किसी ने गोरे मालिकों के इस दुमकटे भेड़िए को पकड़ा था ।
तब अचानक सोनिया कांग्रेस के महासचिव और राहुल गान्धी के नवरत्नों में से एक दिग्विजय सिंह नमूदार हुए । उन्होंने एमनेस्टी इंटरनैशनल के एजेंडा को ही आगे बढ़ाते हुए कश्मीर को लेकर अब तक की बहस को ही एक नया मोड़ देने की कोशिश की । उन्होंने कहा कश्मीर के एक हिस्से पर भारत ने क़ब्ज़ा किया हुआ है और दूसरे हिस्से पर पाकिस्तान ने क़ब्ज़ा किया हुआ है । इसलिए सरकार को वहाँ के लोगों से बात करनी चाहिए । कश्मीर को लेकर हो रही बहस को यह एक बहुत ही शातिराना तरीक़े से नया मोड़ देने की यह राष्ट्रविरोधी कोशिश थी । भारत के अन्दर एक और ग़ुलाम नबी फ़ाई बनने की कोशिश । फ़ाई अमरीका में बैठकर कश्मीर के प्रश्न को पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़तों के हितों के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहा था और यही काम दिग्विजय सिंह ने हिन्दुस्तान में बैठ कर करना शुरु कर दिया । एमनेस्टी से उनके प्रत्यक्ष तार जुड़े हों या न हों लेकिन दोनों एक ही रास्ते पर चलते दिखाई देने लगे । पकड़े जाने पर पलट कर कह दिया , ज़बान फिसल गई । चमड़े की जीभ है । फिसल भी तो सकती है । लेकिन दिग्विजय सिंह बुढ़ापे के चलते फिसलने बहुत लगे हैं । एक बार फिसले तो शादी कर ली और अब दूसरी बार फिसले हैं तो कश्मीर को इंडिया आकूपाईड घोषित कर दिया । जहाँ तक जम्मू कश्मीर के लोगों से बातचीत करने का सवाल है, उससे कौन इंकार कर सकता है । दिग्विजय सिंह जानते हैं कि मोदी सरकार तो अब आई है , पिछले सत्तर साल से कांग्रेस कश्मीरियों के नाम पर बातचीत ही तो करती रही है ।
उसने इसको लेकर लार्ड माऊंटबेटन से बातचीत की , ब्रिटेन सरकार से बातचीत की , अमेरिका से बातचीत की , सुरक्षा परिषद से बातचीत की , पाकिस्तान से बातचीत की , भूमि के नीचे से लेकर ऊपर तक के हर अलगाववादी और आतंकवादी से बातचीत की । उसी बातचीत का नतीजा आज कश्मीर भुगत रहा है । कांग्रेस ने कश्मीरियों से बातचीत करने की बजाए एजेंटों या दलालों से बातचीत का रास्ता अपनाया । फिर चाहे वह शेख़ अब्दुल्ला हो , चाहे ग़ुलाम मोहम्मद बख़्शी हो । चाहे मीर क़ासिम हो या फ़ारूक़/उमर हो । कांग्रेस यही समझती रही और अब भी समझती है कि कुछ एजेंट सारे जम्मू कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । एजेंटों के माध्यम से बातचीत करने का ही नतीजा था कि घाटी में लोगों ने कहना शुरु कर दिया दिल्ली से चला लोकतंत्र पठानकोट तक आकर रुक जाता है । बातचीत जरुर होनी चाहिए लेकिन वह बातचीत जम्मू के लोगों से होनी चाहिए , लद्दाखियों से होनी चाहिए । गुज्जरों से होनी चाहिए , बकरबालों से होनी चाहिए । बल्तियों से होनी चाहिए । दरदों से होनी चाहिए। पहाड़ियों से होनी चाहिए । जनजाति समूहों से होनी चाहिए । गद्दियों से होनी चाहिए । मोनपा से होनी चाहिए ।
शिया समाज से होनी चाहिए , दलित समाज से होनी चाहिए । मीरपुरियों से होनी चाहिए । कश्मीरियों से होनी चाहिए , चाहे वे हिन्दू हों , सिख हों या फिर इस्लाम को मानने वाले हों । लेकिन सरकार इन सभी से तो बातचीत नहीं करती । वह या तो आतंकवादियों से बात करती है या फिर एजेंटों से बात करती है । या फिर गिलानियों, हमदानियों, बुखारियों करमानियों से बात करके मान लेती है कि सारे जम्मू कश्मीर से बात हो गई है । नरेन्द्र मोदी को इस बात का श्रेय जायेगा कि उन्होंने दलालों या एजेंटों को परे हटा कर सीधे सीधे प्रदेश के लोगों से सम्वाद स्थापित किया । उससे घाटी में भी एक नई हवा बहने लगी । यह नई और ताज़ी हवा ही आतंकवादियों को एलर्जी दे रही है और गिलानियों, हमदानियों और करमानियों का नज़ला ज़ुकाम बढ़ा रही है । आज घाटी में जो हो रहा है वह आतंकवादियों की एलर्जी और गिलानियों के नाले ज़ुकाम का दुष्परिणाम है । पाकिस्तान की साज़िश तो किसी से छिपी नहीं है । घाटी को पटडी से उतारने का इन सभी का यह अंतिम प्रयास ही सिद्ध होगा । क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने बहस को जो नई दिशा दे दी है , उसमें जम्मू कश्मीर के लोगों की भूमिका प्रमुख हो जायेगी और एजेंट अप्रासांगिक हो जायेंगे । शायद यही कारण है कि पाकिस्तान को खुल कर सामने आना पड़ा और बुरहान बानी को शहीद घोषित करना पडा । जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से लेकर बरास्ता हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय से होते हुए , बेंगलुरु में एमनेस्टी और पुणे में दिग्विजय सिंह द्वारा की जा रही ये सारी हरकतें इन अंतिम प्रयासों को सफल बनाने की छटपटाहट मात्र कहीं जा सकती हैं ।