माओवाद के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बात गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है और प्रधानमंत्री माओवाद को देश के आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं। सरकार के लिये आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़े खतरे का मतलब देश के बीस से तीस करोड़ लोगों के लिये खींची जाने वाली विकास की लकीर के रास्ते में रुकावट का आना है। जाहिर है ऐसे में सत्तर करोड़ लोगों की न्यूनतम जरुरत तो दूर सत्तर करोड लोग भी सरकार के लिये कोई मायने नहीं रखते इसका अंदाज देश के उन्ही राज्यों के भीतर की तस्वीर को देख समझा जा सकता है, जहां ग्रामीण-आदिवासियों की बहुतायत है। अभी भी गांव विकास के घेरे में आकर शहर नहीं बने है। जहां अभी भी समाज बसता है , उपभोक्ता और बाजार नहीं पहुचा है । इसलिये साफ पानी, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से ज्यादा जरुरी गांव को शहर बनाना, शहर में बाजार लाना और ग्रामीण समाज को खत्म कर बाजार के लिये उपभोक्ताओ की कतार खडी कर देना।
हकीकत में रायपुर,रांची और भुवनेश्वर से आगे छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की अंदरुनी तस्वीर कितनी भयावह है इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि जिस आर्थिक विकास की स्वर्णिम समझ को बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पी चिंदबरम 1991 से 2009 में खींच रहे हैं, उसमें यह तीनो राज्य अव्वल दर्जे के पिछड़े हैं। यहां बाजार पर टिका समाज महज नौ फीसदी है। और सरकार पर टिका है 15 से 20 बीस फीसदी समाज बाकि ना तो बाजार पर टिका है ना ही सरकार पर । यानी सरकार की नीतियां भी ऐसी नहीं है कि वह सत्तर फीसदी लोगों को इसका एहसास कराये की सरकार है जो आपका हित-अहित देखती है ।
यह बात वित्त मंत्री से गृह मंत्री बने चिदबंरम तो कह नहीं सकते लेकिन राहुल गांधी समझ रहे है कि उन्हें असल राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले उस लकीर पर सवालिया निशान उठाना ही होगा जो आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार के माथे पर खींची जा रही है । राहुल बेखौफ हो कर कह सकते हैं कि माओवाद प्रभावित इलाको में सरकार बहुसख्यक आम ग्रामीण तक पहुंचती ही नहीं है । राज्यों की राजधानी में ही या फिर शहरों में ही सरकारी नीतिया भ्रष्ट्राचार तले दम तोड़ देती है या फिर जमीनी सच से दूर नीतियों की ऐसी लकीर खींची जाती है जो गांव में पहुंचते पहुंचते एक नये अर्थ में दिखायी देती है। मसलन झारखंड के खूंटी में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है लेकिन वहां दवाई फैक्टरी को जगह दे दी गयी। बस्तर में पीने का पानी नहीं है लेकिन वहा बोतल बंद पानी की फैक्ट्री खोली जा सकती है। और बालासोर में बारुद और कैमिकल से लोग मर रहे है लेकिन वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र की बात कही जा सकती है।
हालांकि राहुल गांधी राजनीति के मर्म को समझते हैं इसलिये वह केन्द्र सरकार को नहीं राज्यों की सरकारों को इसके लिये घेरते है । लेकिन फिर सवाल शुरु होता है कि जो आंखें राहुल गांधी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास क्यों नहीं है । यह कैसे संभव है कि राहुल की राजनीतिक जमीन उस उपभोक्ता समाज से हटकर होगी, जिसे अथक मेहनत के साथ मनमोहन सिंह ने बनाया है, या फिर राहुल कोई ऐसी राजनीतिक लकीर खिंचना चाहते है, जिसके बाद केन्द्र और हर राज्य में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार हो । और उस स्थिति में राहुल राज हो तो कोई दूसरा राहुल देशाटन कर देश की उथली और पोपली जमीन को बता कर लोगो की भावनाओं से जुड़ कर उस दौर में राहुल को ही मनमोहन सरीखा ना बना दें।
असल में माओवादी प्रभावित रेड कारीडोर का बड़ा सच यही है कि वहा सेना या देश तो छोड़िये राज्यो की पुलिस की तुलना में भी माओवादियो की संख्या एक फीसदी से भी कम है । अगर छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा की पुलिस संख्या दो से ढाई लाख है तो इन क्षेत्रों में हथियारबंद माओवादी ढाई से तीन हजार है। इसलिये सवाल माओवाद को नेस्तानाबूद करने के लिये किसी ठोस रणनीति का नहीं है । रणनीति का सवाल यहां के लोगों से जुड़ा है, जिनकी तादाद के आगे ढाई लाख सुरक्षाकर्मी पंसगा भर है। इन क्षेत्रों में उन ग्रामीण-आदिवासियो की तादाद तीन से चार करोड की है जिनके लिये कोई नीतिया सरकार के पास नहीं है और जो नीतिया सरकार के होने का एहसास कराती है, वह सुरक्षाकर्मियो की बंदूक या डंडा है । उनसे कौन कैसे लड़ सकता है, खासकर जब सवाल विकास की अंधी लकीर खिंचने का हो। इन इलाको में ना तो जवाहर रोजगार योजना पहुंचा। ना इंदिरा आवास योजना ओर ना ही नरेगा। जंगल जीवन है और जीवन जंगल है। ऐसे में अगर जंगल और प्रकृतिक संसधानों पर किसी की नजर हो तो करोड़ों लोगो का क्या होगा यह सवाल आंतरिक सुरक्षा का है।
लेकिन आंतरिक सुरक्षा को लेकर देखने का नजरिया कैसे बदलता है, यह गृह मंत्रालय की ही उस रिपोर्ट से समझा जा सकता है जिसमें विकास को माओवादी रोक रहे है । इसमें दो मत नही कि सरकारी संपत्ति को सबसे ज्यादा सीधा नुकसान माओवादी ने सीदे तौर पर किया है । झारखंड में चतरा से लेकर डालटेनगंज जाने के दो रास्ते है । एक लातेहार हो कर और दूसरा पांकी होकर । अगर पांकी होकर डालटेनगंज जाया जाये तो रास्ते में हर सरकारी इमारत डायनामाइट से उडायी हुई मिलेगी । और वहां किसी भी ग्रामीण आदिवासी से पूछने पर सीधा जबाब भी मिलता है कि यह इमारते माओवादियों ने उड़ायी हैं ।
लेकिन इस इलाके का दूसरा सच भी है । इस रास्ते में प्रकृति पूरी छटा के साथ रहती है। प्राकृतिक संसाधनो की भरमार आपको रास्ते भर मिलेंगे। जंगल गांव रास्ते में मिलेंगे । पलामू को बांटती कोयलकारो नदी आपको यहीं मिलेगी। रास्ते में करीब तीस-चालीस गांव के डेढ-दो लाख ग्रामीणों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही कैसे निर्भर है, इस हकीकत को कोई भी नंगी आंखों से देख सकता है । सरकार की कोई नीति अगर यहा पहुंचती है तो सारे गांव वाले सहम जाते हैं क्योकि हर नीति का मतलब उनकी जिन्दगी के खत्म होने के साथ जुड़ा होता है । सरकार चाहते है नदी पर पुल बन जाये। सरकार चाहती है पलामू के जंगल क्षेत्र को पर्यटन के लिये विकसित किया जाये। सरकार चाहती है यहा के अभ्रख-बाक्साइट को यही के यही सफाय़ी कर दुनिया भर के बाजार में धाक जमा ली जाये क्योकि यहा का अभ्रख दुनिया का सबसे बेहतरीन अभ्रख है । इसके लिये खनन करना चाहती है । छह फैक्ट्रियां लगाना चाहती है। करीब 80 किलोमीटर की इस पट्टी पर एक भी स्कूल, अस्पताल या जंगल गांवों में जिन्दगी चलाने में मदद के लिये सरकार की कोई योजना नहीं पहुंची है ।
हां, सरकारी बाबू है उनके लिये वहीं इमारते थीं, जहा से दफ्तर या बाबूओं के रहने के लिये खड़ी की गयी थी। जिन्हे माओवादियो ने उडा दिया और क्षेत्र के आदिवासी सरकार के आतंकवाद निरोधक कानून के दायरे में आने से बिना डरे बताते है कि उन्होंने इस इमारत की इंटे अपनी झोपडियो में लगा ली है। यहां एक हजार स्कावयर फुट की जमीन पर पक्का घर बनाने की कीमत महज बारह से पन्द्रह हजार है। वहीं इतनी ही जमीन में जो आदिवासी अपना घर बांस और जंगली साजो समान से बनाते है उसमें कुल खर्चा 700-800 रुपये का आता है । क्योंकि जंगल से बांस लेने पर क्षेत्र का बाबू तीन सौ- चार सौ रुपये वसूलता लेता है। बाकी खपरैल में खर्च होता है । तो इस क्षेत्र में अब बाबू की नही माओवादियो की चलती है तो घर का खर्च घट कर आधा हो गया है। वहीं बाबू के लिये पक्का मकान बनाने में जो मजदूरी यहां के ग्रामीण आदिवासियों ने नब्बे के दशक में की, उस वक्त उन्हें दिनभर काम करने के 12 से 15 रुपये मिलते थे, जो अब किसी सरकारी काम को करने में 18 से 20 रुपये तक पहुंचे हैं।
लेकिन आंतरिक सुरक्षा का खतरा इससे आगे का है । क्योंकि छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा में जो खनिज मौजूद है अगर उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजर से जोड़ी जाये तो तीनों राज्यों का वर्तमान बजट और पंचवर्षिय योजना के धन से औसतन दस गुना ज्यादा का है । तो क्या यह माना जाये कि असल में आंतरिक सुरक्षा की चुनौती देशी जमीन की पूंजी की बोली अंतर्रष्ट्रीय बाजार में लगवाने की है । यहा की अर्थव्यवस्था का गणित कितना घालमेल वाला है इसका अंदाज कई स्तरों पर लग सकता है । जैसे माओवादियों से निपटने के लिये सुरक्षा बंदोबस्त पर यहा कश्मीर के बाद सबसे ज्या खर्च किया जा रहा है। हर दिन का सरकारी खर्चा जो सुरक्षा के आधुनिकीकरण से लेकर खाने पीने तक पर होता है वह तीनों राज्यों के माओवाद प्रभावित पैंतालिस जिलों के महिने के बजट पर भारी पडता है। पुलिस, सडक,इमारत,हथियार और सूचनातंत्र पर पांच हजार करोड खर्च सितंबर से दिसंबर तक हो जायेंगे।
इतने धन में चार करोड़ ग्रामीण आदिवासियो का जीवन कई पुश्तो तक ना सिर्फ संभल सकता है बल्कि माओवाद को यही आदिवासी भगा देगे अगर यह माना जाये कि माओवादी यहा कब्जा किये बैठे हैं तो। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चार महिनो के दौरान माओवादियो के खिलाफ जिस निर्णायक लड़ाई का अंदेशा सरकार दे रही है, उस पर कुल खर्चा अगर बीस से पच्चीस हजार करोड़ तक सीधे होगा तो अपरोक्ष तौर पर इस क्षेत्र में सरकार खनन के जरीये पचास लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज को अपने हाथ में भी ले सकती है। जिसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में कितना होगा यह फिलहाल सोचा जा सकता है क्योकि मंदी की गिरफ्त में आये अमेरिकी अर्थशाश्त्रियो की माने तो भारत ही तीसरी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण देश है जो अपने खनिज संसाधनों से एक बार फिर उस बाजार को जगा सकता है जो फिलहाल सोया हुआ है।
चूंकि भारत और अंतरराष्ष्ट्रीय बाजार के बीच खनिज संसाधनो को लेकर करीब बीस गुने का अंतर है । यानी भारत में मजदूरी और खनिज दोनो की कीमत विश्व बाजार की तुलना में बीस गुना कम है । वहीं छत्तीसगढ , झारखंड और उड़ीसा ऐसे राज्य है जहां मजदूरी और खनिज भारत के भीतर ही ना सिरफ सबसे सस्ता है बल्कि महानगरों की तुलना में करीब बीस गुना से ज्यादा यह सस्ता है । ऐसे में विश्व बाजार अगर भारत के जरीये जागता है तो यह देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सबसे बडी वित्तीय जीत हो सकती है जिन्हे आर्थिक सुधार पर गर्व है और बीते दो दशको में देश के भीतर सबसे बडी क्रांति नई अर्थव्यवस्था का आगमन ही है, जिससे मंदी के दौर में भी भारतीय विकास दर समूची दुनिया में श्रेष्ठ है। तो सवाल है इस अर्थव्यवस्था से छत्तीसगढ,झारखंड और उड़ीसा कैसे वंचित रह सकता है, जो इसे रोकेगा वह आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा तो होगा ही।