आतंक की राजधानी

मुंबई को अब तक हम देश की आर्थिक राजधानी कहते रहे हैं। कुछ लोग इसे ग्लैमर की राजधानी भी मानते हैं। गालिब के दिल बहलाने वाले ख़याल की तरह इस शहर को हम आगे भी भले ही यही उपमाएं देते रहें। मगर हकीकत यह नहीं है। आतंकवाद ने देश की इस आर्थिक राजधानी के ग्लैमर को लील लिया है। और बीते कुछेक सालों के इतिहास पर नजर डालें तो, सबसे बड़ी हकीकत यही है कि मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। मगर, यह शहर बार बार अपने पर लगते आतंक के इस तमगे को हर बार हटाकर फिर से अचानक अपने असली अस्तित्व में आ जाता है।

लोग इसे इस शहर की तासीर कहते हैं। लेकिन अपना मानना है कि सब कुछ अपना भीतर समेट लेने का साहस रखनेवाला समुद्र अपनी शरण में आनेवालों को भी अपना यही स्वभाव बांट देता है। अरब सागर की पछाड़ मारती लाखों लहरों को रोज सहन करने वाला मुंबई भी इसीलिए सब कुछ सहन कर लेता है। सुख के सावन से लेकर दुख के दावानल तक और नश्वरता की निशानियों से लेकर अमर हो जाने के अवशेषों तक, समुद्र सबको अपने आप में सहेज कर भी वह धरती के किनारों पर हिलोरें लेता हुआ जस का तस जिंदा रहता है। युगों-युगों से ऐसा ही होता रहा है। आप और हम लोग नहीं रहेंगे, तब भी ऐसा ही रहेगा, अगले प्रलय तक। इसलिए, समुद्र जैसे साहस वाले शहर मुंबई की जिंदगी फिर पटरी पर भले ही आ जाती हों, मगर हकीकत यही है कि इस शहर के दिल की दीवारें दरक गई हैं। बम धमाकों, आतंकी हमलों और ऐसे ही बाकी हादसों ने इसको भीतर से मरोड़ कर रख दिया है।

 

बहुत पहले से जहां-जहां, जब-जब, जो-जो होता रहा है, उसकी बात बाद में। सबसे पहले बात जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर की। एक बार फिर बम। फिर धमाके। धमाकों में फटते इंसान। तार तार होती इंसानियत। और फिर लाशें ही लाशें। परखच्चों में तब्दील होकर आकाश में उड़ते उन लाशों के लोथड़े। और सड़कों पर खून। कुल मिलाकर मुंबई एक बार फिर लहूलुहान। जवेरी बाजार के धनजी स्ट्रीट के नुक्कड़ की दूकानों की दीवारों पर 26 जुलाई 2003 के धमाकों का लहू अब तक लगा हुआ है। हादसे के ये निशान अब तक लोगों को उस धमाके की याद दिलाकर इस शहर को आतंकवाद के निशाने पर होने का अहसास कराते रहे हैं। लेकिन 13 जुलाई 2011 की शाम फिर जवेरी बाजार दहल गया। शाम छह 55 पर उसकी छाती पर एक जोरदार धमाका हुआ। मुंबा देवी मंदिर के पास स्थित पुराने धटना स्थल से सिर्फ 50 कदम की दूरी पर भीड़ भरी खाऊ गली में यह बम फटा। लोगों के परखच्चे उड़ गए। जमीं तो जमीं, दीवारों पर भी खून ही खून। कई घायल हो गए। भागमभाग मच गई। लोग अब जवेरी बाजार के उन पुराने निशानों के बजाय नए पैदा हुए खून के खतरनाक निशानों पर नजर डालने तक से डर रहे हैं। जवेरी बाजार के धमाके के ठीक चार मिनट पहले दादर में छह 51 और उसके बाद तीसरा धमाका शाम सात बजकर पांच मिनट पर ऑपेरा हाउस में हुआ। सिर्फ 14 मिनट में ही रोजमर्रा की तरह चलती मुंबई की जिंदगी का चेहरा अचानक और एकदम ही उलट गया। कई मौके पर ही मारे गए, तो बहुत सारे जिंदा और अधजिंदा लोग बदहवास भागते फिर रहे थे। जिन लोगों ने उस मंजर को देखा है, वे उसे सपने की तरह याद करके अब भी अवाक हो रहे हैं।

 

यह मुंबई में आतंकवाद के ताजा अंतर्राष्ट्रीय अवशेष है। मगर सिलसिला पूरे 18 साल पुराना है। 12 मार्च, 1993…। यह वह तारीख है, जब यह शहर, पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के निशाने पर आया। इस तारीख को मुंबई में 13 जगहों पर बम धमाके हुए। एक के बाद एक करके हुए इन धमाकों में 257 लोग मारे गए। सैकड़ों घायल हुए। और इस तथ्य पर विश्वास कर लीजिए कि 18 साल बाद भी उन विस्फोटों के शिकार अपने शरीर में फंसे कांच के टुकड़े निकलवा रहे हैं। कुछ लोग अब भी अस्पतालों में इलाज करवा रहे हैं। सरकार ने इन धमाकों में 253 के मरने और 713 लोगों के घायल होने की बात कही थी। मगर 18 साल बाद आज तक लोग इन आंकड़ों पर भरोसा करने को तैयार नहीं है। वे कई लोग जो इतने सालों बाद भी अब तक घर नहीं लौटे हैं। वे ना तो मरनेवालों की सरकारी सूची में दर्ज हैं और ना ही घायलों में कहीं उनका नाम। जिनके परिजनों ने अपने रिश्तेदारों की 18 बरसियां भी मना ली हैं, उन लाचार लोगों के पास इन सरकारी आंकड़ों पर अविश्वास करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। यह मुंबई पर पहला आतंकवादी हमला था। जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साजिश करके बहुत ही गहन तरीके से अंजाम दिया गया था। एक पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत मुंबई को निशाना बनाया गया। और उसके बाद अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद हर बार मुंबई को अलग अलग तरीकों से मारता रहा। कभी बसों में बम फोड़कर, कभी लोकल ट्रेनों में लाशें बिछाकर, और कभी बाजारों में बम फोड़कर तो कभी भीड़ भरे रेल्वे स्टेशनों में घुसकर खुलेआम गोलियां बरसाकर यह आतंकवाद इस शहर को डराता रहा।

 

सिलसिलेवार अगर हिसाब लगाया जाए, तो मार्च 1993 के चार साल बाद अगस्त 1997 में मुंबई में जुम्मा मस्जिद के पास बम फटे। जनवरी 1998 में मालाड़, उसके एक महीने बाद फरवरी 1998 में विरार, फिर दिसंबर 2002 में 2 तारीख को घाटकोपर जा रही बस में और 6 तारीख को मुंबई सेंट्रल रेल्वे स्टेशन पर बम फटे। सन 2003 में सबसे ज्यादा चार धमाके इस शहर ने झेले। 27 जनवरी को विले पार्ले, 13 मार्च को मुलुंड, 14 अप्रेल को बांद्रा और 19 जुलाई को घाटकोपर में धमाके हुए। फिर 25 अगस्त 2003 को गेटवे ऑफ इंडिया और जवेरी बाजार में एक साथ विस्ट हुए। और 26 जुलाई 2007 को एक के बाद एक करके कुल सात जगहों पर लोकल ट्रेनों में लाशें बिछीं। उसके बाद तो अक्तूबर 2009 में समंदर के रास्ते से आकर ताज और ओबरॉय होटलों सहित छत्रपति शिवाजी रेल्वे टर्मिनस के साथ साथ सरे आम सड़कों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने देश का जो सबसे बड़ा आतंकी हमला किया, और पूरी दुनिया ने लगातार तीन दिनों तक लाइव देखा। और अब एक बार फिर जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर के ये ताजा बम धमाके। कुल मिलाकर 1993 से शुरू हुआ मुंबई में आतंकवाद फैलाने का यह सिलसिला अनवरत जारी है।

 

मुंबई कभी संगठित अपराध की राजधानी भी हुआ करता था। सरे आम सड़कों पर गोलियां चलती लोगों ने कई कई बार देखी हैं। गैंगवार देखे। बीच बाजार गुंडों को मारते और मरते देखा। कभी कभी इन हादसों में निर्दोष और निरपराध लोगों की जान भी जाते देखा। मगर इन घटनाओं ने इस शहर को इतना कभी नहीं डराया, जितना बम धमाकों ने। ऐसे मामलों में अंतरर्राष्ट्रीय संबंधों को सहेजने की कोशिश में सरकारों के काम करने का अपना एक अलग कूटनीतिक नजरिया होता है। इसलिए वे विस्फोटों मारे गए लोगों के परिजनों के दर्द से ताल्लुक रखने के बजाय कुछ वे सिर्फ कुछ नाम, कुछ तथ्य और कुछ संपर्कों के तार तलाशती रहती हैं। मगर चेहरे इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना आतंकवाद के इस चरित्र को समझना जरूरी है। राजनीति से इतर, गनीमत यह है कि जिस खाकी वर्दी को हमें कोसने की आदत पड़ चुकी है, वह बहुत ही साहसिक तरीके से काम करती दीख रही है, यह हमारे लिए राहत की बात है। खद्दर धारियों के मुकाबले खाकी धारियों की सेवा की सराहना की जानी चाहिए, कि वे आतंकवाद के इस नए चरित्र को सामने लाने के प्रयास कर रहे हैं। लोग भी इसे समझने लगे हैं। तभी तो अस्पताल में घायलों को देखने गए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को लोगों ने अंदर घुसने भी नहीं दिया। बाहर से ही भगा जिया। जबकि इसके उलट वे ही लोग पुलिस वालों के साथ पूरी तरह सहयोग करते देखे जा रहे थे। यह हमारे राजनेताओं की सामाजिक इज्जत की असलियत है। बेइज्जती का यह आलम इसलिए अधिक है, क्योंकि रोज होते हमलों और बार बार होते बम ब्लास्ट में तस्वीर बिल्कुल साफ होने के बावजूद के हमारे राजनेताओं को सीधे सीधे पाकिस्तान का नाम लेने में शर्म आती है। ठीक वैसे ही जैसे, ठेट गांव की बहुत सारी महिलाएं अपनी शर्मीली अदाओं को जाहिर करते हुए अपने पति का नाम लेने के बजाय को ‘उनको’ कह कर इंगित करती है। यह पाकिस्तान जैसे कोई देश नहीं हुआ, हमारे राजनेताओं के पति का नाम हो। सो, वे अकसर इसको पड़ोसी देश कहते हैं। हमारे देश से थोड़ा बाहर जाकर बाकी देशों के नेताओं को हमारे मामलों में भी देखें, तो वे भी हमारे हादसों पर सिर्फ सांत्वना देते हुए संयम बरतने की सलाह देते हैं। लानत उन पर भी है, क्योंकि कोई भी मामले की तह तक जाकर आतंकवाद के खात्मे पर होनेवाले प्रयासों में सहभागी बनने की बात नहीं करता।

 

सालों-साल से अपराध की राजधानी होने के बावजूद मुंबई की सामान्य जिंदगी पर उसका प्रकट असर आमतौर पर कभी नहीं देखा गया। देसी धुन और परदेसी संगीत के किसी रिमिक्स की तर्ज पर हर हादसे के बाद हर बार यह शहर अपनी संगीतमयी रफ्तार में बहता रहता है। कुछ लोग इसे इस शहर के लोगों का जज़्बा कहते हैं। मगर हकीकत यह है कि यह जज़्बा नहीं, जिंदगी को जीने की जरूरत हुआ करती है, जो घर से निकलने के लिए लोगों को मजबूर करती है। काम पर नहीं पहुंचेंगे, तो कमाएंगे कैसे। दफ्तर नहीं जाएंगे, तो नौकरी से निकाल दिए जाएंगे। घर में ही बैठे रहे, तो जिंदगी का एक पूरा दिन बिना कमाई के ही गुजर जाएगा। सो, कृपा करके इन मजबूरियों को जज़्बा कहकर जज़्बे के जीवट को जार-जार मत कीजिए। जज़्बा तो जीवन को जीतने की जिद का नाम हुआ करता है जनाब ! जिंदगी की मजबूरियों को ढोने को जज़्बा नहीं कहते। हर हादसे के तत्काल बाद मजबूरियों के मारे लोग घरों से निकलते तो हैं, दफ्तरों के लिए बाहर आते तो हैं और दूकानें भी सजाते हैं। लेकिन दिल में अपनों के जिंदा रहने की दूआ और चेहरे पर कभी भी कुछ भी घट जाने का अजब आतंक साफ देखा जा सकता है। उसकी वजह यही है कि आतंक अब इस शहर की धमनियों में धंस कर पसलियों तक पसर चुका है। इसीलिए आर्थिक नहीं, अपराध की नहीं और ग्लैमर की भी नहीं, मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। है कि नहीं ?