श्री लालकृष्ण आडवाणी का इस्तीफा मंजूर हो या न हो, रातोंरात उनकी छवि में चार चांद लग गए हैं| पाकिस्तान के कुछ बड़े नेताओं, विद्वानों और पत्रकारों के फोन पिछले एक हफ्ते से लगातार आ रहे हैं| उनका कहना है कि आडवाणी अचानक ही पूरे उपमहाद्वीप के नेता के तौर पर उभर गए हैं| पाकिस्तान के सत्तारूढ़ और विरोधी दल, सभी के नेता उनके बयानों पर न्यौछावर हैं| उनके इस्तीफे पर उनका अफसोस उन्हीं बिंदुओं को छू रहा है, जिन पर आडवाणीभक्तों का पहुंचा हुआ है| पाकिस्तान के एक प्रसिद्घ नेता, जो जुलाई में नाजि़म का चुनाव लड़नेवाले हैं, मुझसे कहने लगे कि वे चुनाव जरूर जीत जाएंगे, क्योंकि आडवाणीजी ने उनकी दावत स्वीकार कर ली थी| आडवाणीजी की इस पाकिस्तान-यात्रा ने रिश्तों के आसमान को दोस्ती के बादलों से पाट दिया है| 1947 से अब तक कई प्रधानमंत्री पाकिस्तान गए लेकिन किसी भारतीय नेता की पाकिस्तान-यात्रा ने वह जलवा पैदा नहीं किया, जो आडवाणी की इस यात्रा ने किया है|
पाकिस्तान के लोग पहली बार आश्वस्त हुए कि भारत पाकिस्तान के टुकड़े नहीं करना चाहता या उस पर कब्जा नहीं करना चाहता| भारत पर यह दुराशय मढ़ने के लिए पाकिस्तानी नेता नेहरू के उस मासूम बयान को भी उद्रधृत करते रहते हैं कि भविष्य में कभी भारत और पाकिस्तान साथ मिलकर रहेंगे| इसके अलावा वे संघ और भाजपा को पाकिस्तान और मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं| इंदिरा गांधी के बाद अगर पाकिस्तान में सबसे अधिक कटुता किसी भारतीय नेता के प्रति रही है तो वह आडवाणीजी के प्रति रही है| उन्होंने ही आगरा शिखर-सम्मेलन बिगाड़ा, यह बात पाकिस्तान के बच्चे-बच्चे की जुबान पर लिखी है| वे ही ”गुजरात के नर-संहारक” नरेंद्र मोदी के संरक्षक हैं और वे ही अखंड भारत के प्रवक्ता और बाबरी मस्जिद के ”ध्वंसकर्ता” हैं| आडवाणी की इस यात्रा ने न केवल इन गलतफहमियों को दूर कर दिया बल्कि पाकिस्तानियों के मर्म को भी छू लिया| जिन्ना उनके मर्म हैं, जैसे गांधी हमारे हैं| आडवाणीजी ने एक पत्थर से दो शिकार किए| एक तो पाकिस्तान का मर्म छुआ और दूसरा उसे ललकारा कि वह जिन्ना के रास्ते से भटक गया| पाकिस्तान के कान उन्होंने जिन्ना के जम्बूर से ही खींचे| यह कूटनीतियों की कूटनीति थी| यह यात्रा इसीलिए प्रधानमंत्रियों की यात्राओं से भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्घ हुई|
आडवाणीजी के कथनों की सैद्घांतिक मीमांसा को यहां फिलहाल न छुआ जाए तो भी उनकी यात्रा से सबसे अधिक खुश किसे होना चाहिए था? प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को ! डॉ. मनमोहनसिंह का काम आडवाणीजी ने जितना आसान किया, उतना किसी ने नहीं किया लेकिन वे चुप हैं| सज्जन हैं, उन्हें नेतागीरी का चस्का नहीं है लेकिन छुटभय्या कांग्रेसियों ने गजब ढा दिया| वे आडवाणीजी पर आड़े-तिरछे प्रहार कर रहे हैं| वे अब जिन्ना और नेहरू को लड़ाने में भिड़ गए हैं| जॉर्ज फर्नांडीस भी मैदान में कूद पड़े हैं| वे ”भारत विभाजन के दोषियों” को अब बख्शने वाले नहीं हैं| यह खेल कांग्रेस को बहुत महंगा पड़ेगा| क्या कांग्रेसी चाहते हैं कि आडवाणी के बहाने वे देश में एक जबर्दस्त पाकिस्तान-विरोधी, इस्लाम-विरोधी और मुसलमान-विरोधी वातावरण खड़ा कर दें? क्या जिन्ना के बहाने वे नेहरू और गांधी की भूमिकाओं का पुनर्मूल्यांकन करवाएंगे? जाहिर है कि वे यह नहीं चाहेंगे| वे अनजाने ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं| उन्हें खुश होना चाहिए था कि जिसे भारतीय दक्षिणपंथ का लौह-स्तम्भ समझा जा रहा था, वह मोम की तरह पिघल रहा है और उस पर कांग्रेसी रंग चढ़ रहा है| यदि कांग्रेसी आडवाणी की तारीफ में कसीदे काढ़ते तो वे बेहतर राजनीति करते| न केवल राष्ट्रहित संपादित होता बल्कि भाजपा में भी ध्रुवीकरण होता| अब आडवाणी पार्टी अध्यक्ष रहें या न रहें, उनकी हैसियत रातोंरात वैसी ही बन गई हैं, जैसी अटलबिहारी वाजपेयी की है| अटलजी ने आडवाणीजी का समर्थन करके न केवल अपना कद ऊंचा किया है बल्कि भारत और सारे दक्षिण एशिया को जोड़नेवाली राजनीति को मजबूत किया है|
आडवाणीजी ने जो तूफान उठाया है उसकी लहरें बहुत दूर तक जाएंगी| वे अध्यक्ष रहें या न रहें अब भाजपा का पुनर्जन्म अवश्यंभावी हो गया है| यह भावी भारत का शुभशकुन है| यह कितनी मज़ेदार बात है कि भाजपा नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने आडवाणीजी का वैसा समर्थन नहीं किया, जैसा कि राजग के अन्य घटकों ने किया है| नीतीश, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडीस, ममता और चंद्रबाबू आदि ने अपनी राय खुले-आम जाहिर करके यह बता दिया है कि आडवाणी को अगर आप हटाएंगे तो उसके नतीजे भुगतने को तैयार रहिए| इस अर्थ में राजग के घटक कांग्रेस के मुकाबले अधिक सेक्युलर सिद्घ हो रहे हैं|
भाजपा के भारी-भरकम युवा नेताओं की चुप्पी का क्या अर्थ है? पहला, उन्हें भारी-भरकम कहना उनके साथ अन्याय करना है| वे काफी हल्के-फुल्के हैं| वे फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं| वे जानते हैं कि वे तिनके की तरह हैं | पता नहीं, हवा का रुख किधर हो और उन्हें किधर उड़ना पड़े| अत: सबसे भली चुप ! दूसरा, हमारे नेताओं को पढ़ने-लिखने की फुर्सत नहीं होती| उन बेचारों को पता ही नहीं कि स्वाधीनता-संग्राम में गांधी, जिन्ना, नेहरू, सुभाष, सावरकर आदि की असली भूमिका क्या थी और उनके आपसी रिश्ते कैसे थे? यशवंत सिंहा का सतही बयान इसका प्रमाण है| वे नेता अपना मुंह खोलकर खुद को मुसीबत में क्यों डालें? तीसरा, भाजपा में जनाधारवाले नेताओं का अभाव है| दलाधार ही जनाधार है| और दल का आधार संघ और विहिप में है याने संघाधार ही दलाधार है | भाजपा के दूसरे दर्जे के नेताओं को अभी पता नहीं कि संघ की असली राय क्या है| इसीलिए भाजपा अद्रभुत असमंजस में फंस गई है और इसीलिए लालकृष्ण आडवाणी को मनाने के लिए वैसी भीड़ नहीं टूट रही, जैसी सोनिया गांधी के लिए टूटी थी| इससे एक संकेत यह भी लिया जाना चाहिए कि भाजपा को जनाधारित पार्टी बनने की कितनी जरूरत है|
इस प्रकरण में कम्युनिस्टों की भूमिका वैसी हास्यास्पद नहीं है, जैसी कि कांग्रेसियों की बन गई है| वे आडवाणीजी के भूतकाल पर व्यंग्य कर रहे हैं लेकिन उनकी बात को गलत नहीं बता रहे हैं| सबसे संजीदा प्रतिकि्रया समाजवादी पार्टी की है, जिसके नेता मुलायमसिंह यादव आडवाणी के असाम्प्रदायिक और राष्ट्रहितकारी बयानों की सराहना कर रहे हैं तथा नेहरू और जिन्ना की भूमिकाओं के पुनर्मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं|