वोटों के लालच में सोनिया कांग्रेस भी बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में आने की परोक्ष रूप से सुविधा प्रदान करती रही। इसके चलते केवल असम में ही नहीं, बल्कि सारे पूर्वोत्तर भारत में जनसंख्या अनुपात मुसलमानों के पक्ष में बदल रहा है। अब इस स्थिति में बांग्लादेशी मुसलमानों को साथ लेकर असम की राजनीतिक शतरंज की बाजी में अंतिम मोहरा चलने के लिए बदरुद्दीन अवतरित हुए, ताकि सालुद्दीन के 1947 के अधूरे एजेंडे को अब पूरा किया जा सके। पिछले आठ-दस साल से वह अपनी इस राजनीति में कामयाब होते भी दिखाई दिए, लेकिन इन चुनावों में ऐसा लगता है कि असम के लोगों ने बदरुद्दीन की चौसर पर रखे सभी मोहरे ब्रह्मपुत्र में फेंक दिए हैं.
पिछले चार दिन से पूर्वोत्तर भारत में हूं। जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें पूर्वोत्तर का असम भी शामिल है। लेकिन असम के चुनाव और उसके परिणाम का प्रभाव पूर्वोत्तर के शेष सात राज्यों को भी प्रभावित करता है। इसलिए चुनाव असम में हैं, लेकिन उसकी गूंज पूरे पूर्वोत्तर भारत में सुनाई देती है। विधानसभा के लिए मतदान हो चुका है, अब केवल उसके परिणाम की प्रतीक्षा की जा रही है। परिणाम शेष चार राज्यों के साथ उन्नीस मई को ही आएगा। परिणाम क्या आएगा, इसको लेकर हंगामा मचा हुआ है, लेकिन एक बात पर कोई हंगामा नहीं है। अजमल बदरुद्दीन का असम का मुख्यमंत्री बनने का सपना इस चुनाव ने तोड़ दिया है। बदरुद्दीन इत्र फुलेल का धंधा करता है और धीरे-धीरे उसके अनुयायियों ने उसे छोटे-मोटे पीर का दर्जा देना शुरू कर दिया है। इन चुनावों में अनेक स्थानों पर मुसलमान औरतें अपने बच्चों के सिर पर बदरुद्दीन का हाथ रखवा रहीं थीं, ताकि भविष्य में बच्चों पर किसी भूत प्रोत्साहित का साया न पड़े। लेकिन इत्र फुलेल के इस व्यापारी को नजदीक से जानने वाले यह भी कहते हैं कि उन औरतों को पैसे देकर इस भीड़ में शामिल किया जाता है। जो भी हो, इतना सा मानते हैं कि इस चुनाव ने असम पर से बदरुद्दीन का काला साया जरूर हटा दिया है। अब बदरुद्दीन की जन्मपत्री। बदरुद्दीन ने कुछ साल पहले असम में बांग्लादेशी मुसलमानों की एक पार्टी बनाई थी। पूरे पूर्वोत्तर भारत में जिस तरह अवैध घुसपैठ करने वाले मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, उससे आभास होने लगता है कि किसी दिन असम की शासन इन अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के हाथ में भी आ सकता है। यह चिंता केवल असम के लोगों की ही नहीं है, बल्कि उच्चतम न्यायालय और असम उच्च न्यायालय भी व्यक्त कर चुका है। शायद असम की इसी चिंता से संकेत पाकर बदरुद्दीन असम की घाटी में घुसे और उन्होंने बांग्लादेशी मुसलमानों को संगठित कर, आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट नाम से एक दल का गठन किया।
पिछले विधानसभा चुनावों में बदरुद्दीन ने असम विधानसभा में लगभग बीस सीटों पर कब्जा कर लिया था। उसका गणित साफ और सीधा है। यदि विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले, तो वह सौदेबाजी करने की बेहतर स्थिति में आ सकता है और इसी सौदेबाजी के बलबूते मुख्यमंत्री बन सकता है। ध्यान रहे असम में बांग्लादेशी मुसलमानों की इतनी जबरदस्त घुसपैठ हुई कि उसके ग्यारह जिले अब मुस्लिम बहुल बन चुके हैं। यदि बदरुद्दीन मुख्यमंत्री बन जाते हैं, तो असम को मुस्लिम बहुल बनाया जा सकता है। यह सपना मौलवी सैयद सर मोहम्मद सादुल्ला ने देखा था, जो 1947 से पहले लगभग आठ साल असम के मुख्यमंत्री रहे। वह अंग्रेजों के पि_ू थे और उनकी सहायता से 1947 से पहले ही असम को मुस्लिम बहुल बनाकर पाकिस्तान में शामिल करवा देना चाहते थे। इसलिए वह बांग्लादेश (उस समय पूर्वी बंगाल) से मुसलमानों को ला लाकर असम में बसा रहे थे। वह अभी सिलहट को ही मुस्लिम बहुल बना पाए थे कि अंग्रेजों ने साथ छोडऩे का निर्णय कर लिया। लेकिन सादुल्ला को इतना संतोष जरूर हुआ कि वह सिलहट को तो पाकिस्तान में शामिल करवा ही सके।
वोटों के लालच में सोनिया कांग्रेस भी बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में आने की परोक्ष रूप से सुविधा प्रदान करती रही, जिसके चलते केवल असम में ही नहीं, बल्कि सारे पूर्वोत्तर भारत में जनसंख्या अनुपात मुसलमानों के पक्ष में बदल रहा है। अब इस स्थिति में बांग्लादेशी मुसलमानों को साथ लेकर असम की राजनीतिक शतरंज की बाजी में अंतिम मोहरा चलने के लिए बदरुद्दीन अवतरित हुए, ताकि सालुद्दीन के 1947 के अधूरे एजेंडे को अब पूरा किया जा सके। पिछले आठ-दस साल से वह अपनी इस राजनीति में कामयाब होते भी दिखाई दिए, लेकिन इन चुनावों में ऐसा लगता है कि असम के लोगों ने बदरुद्दीन की चौसर पर रखे सभी मोहरे ब्रह्मपुत्र में फेंक दिए हैं, लेकिन यह कैसे हुआ? दरअसल पिछले इतने वर्षों से बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में बसने-बसाने में सहायता करते-करते सोनिया कांग्रेस की छवि भी इस बार मुसलमानों की पार्टी के रूप में ही बन गई।
असम का बरपेटा अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को वैध कागज पत्र दिलवाने का बहुत बड़ा केंद्र बन गया। गुवाहाटी में जुमला प्रसिद्ध है कि जब ढाका में कोई बच्चा पैदा होता है, तभी उसका पंजीकरण बरपेटा में करवा दिया जाता है, ताकि बड़ा होने पर उसको भारत का नागरिक सिद्ध करने के लिए कोई बाधा न आए। इस माहौल में असम में बांग्लादेशी मुसलमानों को दो पार्टियां अपनी हितकारी नजर आ रही थीं। तरुण गोगोई की सोनिया कांग्रेस और बदरुद्दीन की एआई यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट। बांग्लादेशियों के पक्ष में चुनाव परिणाम ले जाने वाले रणनीतिकारों की कोशिश थी कि दोनों पार्टियां आपस में मिलजुल कर चुनाव लड़ें, ताकि असम में राष्ट्रवादी ताकतों को पराजित किया जा सके। राष्ट्रवादी ताकतों के खिलाफ ऐसे प्रयोग पहले भी हो चुके हैं। यदि ये दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं, तो बांग्लादेशी मुसलमानों के वोट विभाजित हो जाएंगे और एक बार फिर असम में राष्ट्रवादी ताकतें मजबूत हो जाएंगी, जिसके चलते सादुल्ला का एजेंडा कभी पूरा नहीं किया जा सकेगा। 1947 में सादुल्ला और ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम परस्त चाल को गोपीनाथ बरदोलाई ने असफल किया था और 2016 में यह कार्य करने का भार भारतीय जनता पार्टी के हिस्से आया था। इसमें असम की जनता तो एकजुट दिखाई दे ही रही थी, विभिन्न जनजातियों के लोग भी इस अभियान में एकजुट होते नजर आ रहे थे, क्योंकि अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों से खतरा केवल असम घाटी के लोगों को ही नहीं है, विभिन्न जनजातियों के आगे भी उनकी पहचान का संकट खड़ा हो गया है। यह असम का सौभाग्य ही कहना चाहिए कि सोनिया कांग्रेस और बदरुद्दीन की पार्टी में सीटों के बंटवारे को लेकर समझौता नहीं हो सका। दोनों को विश्वास था कि बांग्लादेशी मुसलमान एकजुट होकर उसके साथ हैं, इसलिए छोटी हिस्सेदारी दूसरी पार्टी को मिलनी चाहिए। सोनिया कांग्रेस और बदरुद्दीन में से छोटा कौन है, इसका निर्णय नहीं हो सका। सोनिया कांग्रेस बिहार में नीतीश के आगे पश्चिमी बंगाल में सीपीएम के आगे अपने आप को छोटी पार्टी स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई, लेकिन मानसिक रूप से असम के बदरुद्दीन के आगे छोटी पार्टी बनने के लिए तैयार नहीं हुई। इसलिए दोनों अलग-अलग लड़े। उनका अलग-अलग चुनाव लडऩा शायद असम के लिए वरदान बन जाए।
चुनाव परिणामों पर लाखों का सट्टा लगाने वाले अनुमान लगा रहे हैं कि अंतत: बांग्लादेशी मुसलमानों ने सोनिया कांग्रेस पर ही विश्वास किया और वे कतारें बांध कर हाथ की ओर चल पड़े। लेकिन उनकी कतारों को हाथ लहराते देख कर असमिया लोगों को पूरा विश्वास हो गया कि कांग्रेस ने अंतत: बांग्लादेशी अवैध मुसलमानों को लेकर ही असम में राजनीति करने का मन बना लिया है, जिसके चलते असमिया और जनजाति के लोग राष्ट्रवादी ताकतों के साथ खड़े हो गए।
-डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री