डॉ.शशि तिवारी
यूनीफार्म सिविल कोड अर्थात समान नागरिक संहित अर्थात देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कोड जिसमें शादी तलाक और जमीन जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक सा कानून।
एक देश, एक झण्ड, एक कानून भारतीय मानस का चिंतन रहा है अब देश की सरकार भी इस दिशा में सोच रही है एवं लाॅ कमिशन से इसके तकनीकी पहलुओं के बारे में न केवल राय शुमारी कर रही है बल्कि इसे अपनी रिपोर्ट भी इस बावत प्रस्तुत करने के लिए कहा है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश माननीय बलवीर सिंह कमीशन एवं एक्सपर्ट के साथ मिल उसे बनाने की संभावानाओं को तलाश रहे हैं। वर्तमान में हिन्दु सिविल लाॅ जिसमें हिन्दु सिख, जैन और बौद्ध आदि सम्मिलित है। वहीं पर्सनल लाॅ में मुस्लिम, ईसाई एवं पारसी शामिल है।
ये एक अलग बात एवं विचित्र संयोग है कि इस अस्त्र को तब गढ़ा जा रहा है जबकि उत्तर प्रदेश का चुनाव नजदीक में है जिसमें एक और सपा अपने अस्तित्व को बचाने में लगी है वहीं बसपा एवं भाजपा में पुनः शासित होने की तड़प है। जात-धर्म की राजनीति करने वालों के लिए ‘‘समान नागरिक संहिता‘‘ एक घातक आस्त्र है यूं तो भाजपा पर हमेशा हिन्दुत्व की राजनीति करने का आरोप तथाकथित धर्म निरपेक्ष जो है नहीं शुरू से ही लगाती आ रही है। निःसंदेह ऊंह-पोह की स्थिति बनी हुइ्र्र है। मंदिर मुद्दा को अब और नहीं खींचा जा सकता और न ही तथाकथित सेक्यूलर ताकतों से बेर मोल लिया जा सकता, इसलिए भाजपा देश में विकास एवं समान नागरिक संहिता का राग अलापना शुरू कर दिया है। यूं तो ये राग पुराना है, लेकिन पक्का है कई अनचाहे में चित भी हो सकते हैं।
हालांकि ‘‘समान नागरिक संहिता’’ का उल्लेख देश के संविधान के अनुच्छेद 44 में भी देखने को मिलता है। इसके पूर्व सन् 1840 में समान नागरिकता की पहल ब्रिटिश राज में की गई थी, लेकिन वो ज्यादा कुछ कर नहीं कर पाए क्योंकि उनका उ्ददेश्य तो ‘‘बांटो और राज करो’’ से ही पूरी तरह सुरक्षित था आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू एवं बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी इसकी बकालत की थी। इसके लागू होने से सबसे जयादा चिंतित कट्टरपंथी लोग है उनकी दुकान ठप्प पड़ने की पूरी आशंका है। भारत की सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर इसकी आवश्यकता को बताता रहा है, सन 1985 में शाहबानों केस में सुप्रीम केार्ट ने आदेश दिया था कि उसके पूर्व पति से गुजारा भत्ता मिलना चाहिए एवं पर्सनल लाॅ में ‘‘समान नागरिक संहिता’’ भी लागू होना चाहिए। ये अलग बात है कि सियासी चाल के चलते राजीव गांधी की सरकार ने कोर्ट का फैसला बदलने के लिए संसद में विवादास्पद बिल पेश किया निःसंदेह इससे मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और भी खराब हो गई। जमाना कहां से कहां बदल गया है लेकिन हम पर्सनल लाॅ की आड़ में महिलाओं को सिर्फ दबाने का ही कार्य किया है जो किसी भी सूरत में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पुरूषों को अपनी सरकती सत्ता को बचाने में कठमुल्लाओं की अहम् भूमिका रही है जब भारत का संविधान औरत और मर्द के बीच भेद नहीं करता तो कठमुल्लाओं की क्या बिसात। वैसे भी संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार यूनीफार्म सिविल कोड को लागू करना राज्यों का ही कर्तव्य है सियासी चालबाजों ने उसे धर्म से जोड़ दखल अंदाजी से जोड़ अपनी दुकान चलाने का कार्य किया है। वर्तमान में गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है, यहां यक्ष प्रश्न उठता है जब गोवा में ये संभव हो सकता है जहां विशेष जाति की बहुलता है तो फिर पूरे विविध संपन्नता वाले पूरे देश में क्यों लागू नहीं हो सकता?
वैसे भी कई देशों जैसे फ्रांस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जर्मनी एवं उज्बेगिस्तान में कामन लाॅ सिस्टम लागू है।
विकास में धर्म के पेंच को निकालने के लिए ‘‘समान नागरिक संहिता’’ की निःसंदेह महति आवश्यकता है।