अरुणाचल के बारे में जो फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है, वह एतिहासिक है लेकिन मेरी राय में वह अधूरा है। इसमें शक नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा पहली बार किया है कि किसी अपदस्थ सरकार को दुबारा कुर्सी पर बिठाया है। इसके साथ-साथ उसने राज्यपालों को भी अच्छी-खासी नसीहत दे दी है। वास्तव में यह फैसला सिर्फ राज्यपाल ज्योतिप्रसाद राजखोवा की करतूत पर है। इस फैसले में अरुणाचल के राज्यपाल के अलावा किसी पर भी कोई टिप्पणी नहीं की गई है। न केंद्र सरकार पर, न तत्कालीन मुख्यमंत्री पर, न दल-बदल करनेवाले कांग्रेसी सदस्यों पर! क्या किसी राज्यपाल में इतना दम होता है कि वह अपने भरोसे विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को बदल दे? राजखोवा ने अरुणाचल विधानसभा का सत्र एक महिने पहले खिसका लिया तो क्या यह उन्होंने अपने दम पर खिसकाया होगा? राजखोवा पुराने आईएएस अधिकारी रहे हैं। क्या उन्हें विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों का पता नहीं है?
अदालत को चाहिए था कि वह राजखोवा को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करती। यदि राजखोवा टांग नहीं अड़ाते तो हो सकता था कि दल-बदल करनेवाले 21 कांग्रेसी विधायकों को महिने भर में मुख्यमंत्री नबाम तुकी वापस ले आते। विधानसभा का सत्र किसी होटल में चला और नए मुख्यमंत्री कलिखो पुल को बहुमत मिला। दल-बदल करनेवाले विधायक अभी भी विधानसभा के सदस्य हैं अर्थात बहुमत अभी भी तुकी का नहीं, पुल का है। अब पांच माह बाद यदि तुकी दुबारा मुख्यमंत्री बनेंगे तो वे सरकार कैसे चलाएंगे?
अल्पमत की यह सरकार तो लोकतंत्र का मजाक होगा। अदालत का फैसला तब पूरा होता जब वह तुकी को विधानसभा में शक्ति-परीक्षण के लिए भी कहती। अदालत ने न तो राज्यपाल को दंडित किया और न ही पुराने मुख्यमंत्री को शक्ति-परीक्षण के लिए कहा। याने अरुणाचल को फिर अधर में लटका दिया। पहले ‘अफ्सा’ और अब अरुणाचल पर यह फैसला देकर अदालत ने केंद्र सरकार को सांसत में डाल दिया है। उत्तराखंड, अफ्सा और अरुणाचल के फैसले हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रमाण तो हैं लेकिन न्यायपालिका को थोड़ी हिम्मत और दिखानी चाहिए। उसे राष्ट्रपति और केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सीधी टिप्पणी करनी चाहिए।