अगर आधी दुनिया समेटे पांच देश अमेरिका की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ खड़े हो जाये तो दुनिया के नक्शे पर वर्ल्ड आर्डर बदल सकता है। इसके संकेत पहली बार दिल्ली में ब्रिक्स सम्मेलन के उस प्रस्ताव ने दे दिये, जिसमें ईरान से लेकर सीरिया और डब्ल्यूटीओ से लेकर आईएमएफ पर अमेरिकी नीति का खुला विरोध नजर आया। ईरान की जिस परमाणु नीति के खिलाफ अमेरिका और इजरायल दुनिया को अपने साथ करना चाहते हैं, उसका खुला विरोध ब्रिक्स ने इस प्रस्ताव के साथ किया ,’ ईरान की परमाणु नीति पर टकराव से ना तो कोई रास्ता निकलेगा और ना ही किसी को लाभ होगा।’ प्रस्ताव के मजमून ने यह भी जता दिया कि चीन, भारत और रुस ना सिर्फ संयुक्त राष्ट्र में ईरान को लेकर अमेरिकी नीति के खिलाफ हैं बल्कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को वह शांतिपूर्ण इस्तेमाल के तौर पर देखते हैं। और अगर अमेरिका को ऐसा नहीं लगता तो उसे आईएईए और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत बातचीत और राजनयिक रास्ते से बात करनी चाहिये ना कि धमकी भरे अंदाज में। इतना ही नहीं ब्रिक्स के जरीये पहली बार भारत,चीन और रुस ने सीरिया की संप्रभुता,अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता का सवाल खड़ा कर अमेरिकी राजनीतिक दखलअंदाजी को भी आईना दिखाया है। और अरब लीग के अमेरिका के साथ खड़े होने पर भी संयुक्त राष्ट्र में चीन-रुस के वीटो के अधिकार पर बारत के समर्थन की बात कहकर अमेरिकी विस्तार को रोकने के खुले संकेत भी दिये हैं।
दरअसल, अमेरिका ने जिस तरह ईरान से तेल खरीदने पर ही पाबंदी का सवाल भारत और चीन के सामने रखा था, उससे एक कदम आगे बढ़कर भारत और चीन ने ब्रिक्स के मंच के जरीये अमेरिकी अर्थनीति को भी चुनौती दे दी। महत्वपूर्ण है कि ईरान से तेल आयात बंद करने करने से इंकार करते हुये भारत ने पहले ही अपनी आर्थिक मजबूरी जतायी थी। और साफ कहा था कि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। लेकिन ब्रिक्स के मंच पर भारत के तेवर और कड़े हुये। और पहली बार ईरान से इतर अमेरिका ही नहीं पश्चिमी परस्त आर्थिक नीतियों का विरोध भी भारत और चीन ने यह कहकर किया कि जब मंदी की गिरफ्त में अमेरिका और विकसित देशो की विकास दर घटी तब भारत चीन ने ना सिर्फ विकास दर को बरकरार रखा बल्कि उसमें वृद्दि भी की, जिससे दुनिया की अर्थव्यवस्था पटरी पर रही। क्योंकि ब्रिक्स में शामिल पांच देश की जनसख्या अगर दुनिया की आधी है तो दुनिया के कुल जीडीपी का 40 फीसदी भी ब्रिक्स में ही समाया हुआ है।
असल में महत्वपूर्ण यह भी है कि पहली बार भारत चीन ने मिलकर माना कि डब्ल्यूटीओ की नीतियां सिर्फ विकसित देशो का हित साधती हैं। विश्व बैंक से लेकर आईएमएफ तक अमेरिकी परस्त हैं। इसलिये डवलपमेंटल बैंक की जरुरत है। यानी जिस अर्थनीति की चकाचौंध तले अमेरिका दुनिया को कई अंतराष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों के जरीये आर्थिक सुधार का पाठ पढ़ाता रहा है, उसका विरोध भारत ने अगर पहली बार किया तो ब्राजील,दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने संकटों को जी-8 से लेकर जी -20 तक के घेरे में रखा। जिसका समर्थन चीन और रुस ने किया। यानी पहली बार विकल्प का सवाल अगर आर्थिक नीतियों के जरीये उठा तो अमेरिकी विस्तार नीति को रोकने के लिये ईरान और सीरिया के साथ एशिया के ताकतवर देश खड़े भी दिखे। यानी आतंक पर नकेल कसने के नाम पर इराक युद्द से लेकर अफगानिस्तान तक में जो अमेरिकी पैठ शुरु हुई और दुनिया अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर के अनुरुप चलती दिखायी देती रही उसमें पहली बार सेंध चीन,रुस और भारत ने मिलकर लगायी है।
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका का मिथ टूट रहा है या फिर अमेरिका दुनिया के नक्शे पर इजरायल और अरब लीग के जरीये कोई नयी लकीर खिंचने का प्रयास करेगा। यानी ब्रिक्स का जवाब जल्द आयेगा। क्योंकि ब्रिक्स के प्रस्ताव ने अमेरिका को एक साथ चार झटके दिये हैं। और झटको का जवाब नही आया तो नई विश्व व्यवस्था भी जल्द ही दुनिया के मानचित्र पर नजर आने लगेगी।