अपनी छवि से जुझते मोदी

नरेन्द्र मोदी की माया और मोदी के बाबू। 2002 से लेकर 2007 तक तक तो हर जुबान पर यही रहा। लेकिन महीने भर पहले ऐसा क्या हुआ कि मोदी ने माया कोडनानी से भी पल्ला झाड़ा और बाबू बजरंगी से भी। जिस माया बेन को दंगों के दाग के बावजूद मोदी ने मंत्री बनाया और जिस बाबू बजरंगी को मोदी सरकार के मंत्रियों ने हत्या करने के बाद भी फरार करवाया, उसी माया और बाबू को लेकर जो सवाल 10 अप्रैल को मोदी सरकार ने उठाये उसपर 10 मई को जिस तरह पलटे, उसने सबसे बड़ी राहत किसी को दी है तो वह माया बेन कोडनानी और बाबू बजरंगी ही हैं। सवाल है ऐसा क्या हुआ जो 30 दिनों में मोदी ने अपना ही निर्णय उलट लिया। 10 अप्रैल को माया बेन और बाबू बजरंगी के लिये फांसी की सजा मांगी थी मोदी सरकार ने। और 10 मई को मोदी सरकार ने ही फांसी की अपनी अपील वापस ले ली।

 

अब दलील यही दी जा रही है फांसी की अपील करने से पहले एडवोकेट जनरल से सलाह-मश्विरा नहीं किया गया।  सियासी मजबूरी का मतलब साफ है कि माया बेन कोडनानी की पहचान नरोदा पाटिया में 2002 के बाद से अब तक जो है और बाबू बजरंगी ने बजरंग दल और विश्वहिन्दु परिषद की छतरी तले जिन नारों को 2002 में लगाया, वह दोनों ही मोदी की गुजरात प्रयोगशाला के सफल सियासी कैमिकल रहे। लेकिन 2012 की चुनावी जीत और 2014 के दिल्ली मिशन के लिये मोदी के बढते कदम के लिये यह सियासी कैमिकल फायदेमंद है या घाटे का सौदा इस पर कोई ठोस राय मोदी खुद अब तक नही बना पाये हैं। क्योंकि गुजरात के विकास पर गुजरात दंगे धब्बा भी है और राजनीतिक लाभ भी। दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाते मोदी को गुजरात प्रयोगशाला रोकती भी है और संघ परिवार ढकेलता भी है। विहिप और संघ से टकरा कर भी मोदी सिर्फ विकास का जाप करते हैं तो मोदी का अपना वोट बैंक डगमगाता है। यानी मोदी ने लिये मुश्किल यह है कि उन्हें एक छवि तोड़नी और एक छवि बनानी है। लेकिन बनी छवि तोड़नी भी मुश्किल है और सिर्फ नयी छवि के सहारे आगे बढ़ना भी मुश्किल।

 

2002 के मोदी और 2013 के मोदी में फर्क कितना भी ढूंढा जाये लेकिन राजनीतिक तौर पर मोदी 2002 की छवि से मुक्त हो नहीं पायेंगे। मोदी 2014 के मिशन के लिये 2002 का रास्ता छोडने के लिये छटपटायेंगे जरुर। लेकिन जिस हिन्दुत्व के आसरे मोदी की छवि को तलाशा जा रहा है उसका सच है क्या। ध्यान दें तो हिन्दुत्व की जमीन पर खड़े विहिप और हिन्दु महासभा से मोदी का छत्तीस का संबंध है। इसलिये जैसे ही मोदी सरकार ने फांसी की मांग वापस ली वैसे ही विहिप ने मोदी पर यह कहते हुये दोहरा हमला कर दिया कि मोदी सरकार हिन्दुत्व के भी खिलाफ है और लिबरल बनने के चक्कर में सियासत भी कर रही है। बकायदा गुजरात विहिप के महासचिव रणछोड भाई ने बयान जारी किया। और तीन सवाल रखे- पहला माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को पूरी तरफ माफ किया जाये। दूसरा जितने भी हिन्दुओं के खिलाफ मामले हैं, वह खारिज किये जायें और तीसरा एसआईटी का बहाना लेकर मोदी फांसी पर सियासत कर रहे हैं। दूसरी तरफ मोदी को लेकर संघ भी बंटा हुआ है। संघ का एक धड़ा तो हिन्दुत्व के मसले विहिप के ही खिलाफ है तो आरएसएस के भीतर मोदी का खुला विरोध कट्टर हिन्दुत्व वाला धड़ा ही करता है। वहीं बाबरी मस्जिद पर ताल ठोकने वाली शिवसेना ही मोदी का विरोध करती है। लेकिन राजनीतिक तौर पर कांग्रेस कभी मोदी को हिन्दुत्व से इतर मानाने को तैयार नहीं है। और 2007 में सोनिया गांधी का मोदी को मौत का सौदागर कहना इसकी पहचान है। असल में मोदी पहली बार कांग्रेस की राजनीतिक जमीन और बीजेपी की दिल्ली चौकड़ी में फंस चुके हैं। कांग्रेस को बीजेपी में हिन्दु लाइन बरकरार रखनी है तो सबसे लोकप्रिय नेता में हिन्दुत्व का लेप लगाना ही होगा। तभी मुस्लिम वोट उसकी छोली में आ सकते है। इसलिये 2009 में आडवाणी हार्ड थे और 2014 के लिये मोदी को हार्ड बनाना दिकाना ही होगा। और दूसरी तरफ बीजेपी की दिल्ली चौकडी गठबंधन की सियासत तले खुद को लिबरल ठहराने के लिये मोदी पर कट्टर हिन्दुत्व का तमगा ठोकेगी ही । आडवाणी लिबरल हो चुके है । सुषमा और जेटली तो कानूनची रहे और संघी रंग में लगे नहीं । यूं बीजेपी की सियासत का यह सच भी है कि जब वाजपेयी कट्टर थे तो संघ उनके साथ था । सत्ता मिलने के बाद वाजपेयी ने  संघ से खुद को दूर किया तो वाजपेयी लिबरल लगने लगे और आडवाणी कट्टर हो गये । और अब आडवाणी खुद को बीजेपी या संघ से दूर कर रहे है तो उनकी छवि लिबरल बनायी जा रही है और मोदी कट्टर नजर आते है । लेकिन सच यही है कि मोदी को लेकर संघ भी उसी उहापोह में है जिसे लेकर बीजेपी के लिबरल। तो मोदी क्या करें।