आज दो खबरें पढ़कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। एक तो भोपाल में पढ़ी और दूसरी दिल्ली में! दिल्ली की खबर यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ से जुड़ी संस्था ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ ने मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को अंग्रेजी के बारे में कई साहसिक सुझाव दिए हैं। इस न्यास के मंत्री अतुल कोठारी ने जावड़ेकर को लिखा है कि देश की प्राथमिक शालाओं में से अंग्रेजी पढ़ाने की अनिवार्यता खत्म की जाए। बच्चों पर अंग्रेजी लादी न जाए। ऊंची कक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय नहीं पढ़ाया जाए।
सूचना तकनीक, मेडिकल और इंजीनियरी जैसे विषयों की पढ़ाई भी भारतीय भाषाओं में हो। उच्च-शोध के लिए खर्च किए जाने वाले करोड़ों रुपए देते समय यह देखा जाए कि वह शोध देश के लिए कितना उपयोगी है। इसी प्रकार पाठ्य-पुस्तकों में आए हुए मनगढ़ंत तथ्य, विदेशी विद्वानों की पूर्वग्रहित टिप्पणियां और भारतीय संस्कृति-विरोधी व्याख्याओं को भी निकाला जाए। जावड़ेकर ने इन सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया है।
अतुल कोठारी अत्यंत निष्ठावान भारतीय भाषाप्रेमी हैं। उन्हें मैं सदा प्रोत्साहित करता रहा हूं। उन्होंने यह अदभुत कार्य किया है। मैं उन्हें बधाई देता हूं। वे अग्रगण्य हैं, क्योंकि संघ हिंदी की बात बहुत जोर से करता रहा है लेकिन उसे पता नहीं कि हिंदी आएगी कैसे? वह नौकरानी से महारानी बनेगी कैसे? यह रास्ता डा. लोहिया ने खोला था। उन्होंने कहा था, अंग्रेजी हटाओ। सिर्फ हटाओ, मिटाओ नहीं। संघ अभी तक हिंदी की लड़ाई खाली हाथ लड़ रहा था। कोठारी ने उसके हाथ में ब्रह्मास्त्र दे दिया है। देखें, जावड़ेकर क्या करते हैं? वे टीवी या सिनेमा के पर्दे से उतरकर मंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठे हैं। वे जमीनी कार्यकर्ता रहे हैं। एक पत्रकार-परिवार के वारिस हैं। वे जरुर कुछ हिम्मत दिखाएंगे।
दूसरी खबर आज सुबह भोपाल में पढ़ी थी। उससे पता चला कि मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों में अब दीक्षांत समारोहों के अवसर पर अंग्रेजों की गुलामी नहीं होगी। याने उपाधि वितरण करते समय शिक्षक और छात्र अपने सिर पर चौखुटी टोपी और चोगा नहीं पहनेंगे बल्कि भारतीय पगड़ी और कुर्ता-धोती या पाजामा पहनेंगे। उच्च शिक्षा विभाग ने सभी उप-कुलपतियों से सुझाव मांगे हैं। इस मुद्दे को कुछ साल पहले कांग्रेस के मंत्री जयराम रमेश ने सार्वजनिक तौर पर उठाया था। उन्होंने इसे अंग्रेजों की गुलामी का प्रतीक कहा था। रमेश मेरे अच्छे मित्र हैं। कन्नड़भाषी हाते हुए भी वे मुझसे सदा हिंदी में बात करते हैं। रमेश-जैसे पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत नेता इन मुद्दों को उठाते रहें तो देश को सांस्कृतिक आजादी मिलने में देर नहीं लगेगी।