समीक्षा-लेख
डाॅ. वेदप्रताप वैदिक का यह ग्रंथ समय-समय पर उनके द्वारा समाचार पत्रों में लिखे गए विभिन्न लेखों का संग्रह हैं। लेकिन इस ग्रंथ को ध्यान से पढ़ें तो लगता है कि किसी विद्वान ने अपने अनेक शोध-प्रबंधों को एक ही गुलदस्ते में गूंथ दिया है। डाॅ. वैदिक ने दशाब्दियों पूर्व अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-प्रबंध हिंदी में लिखकर यह सिद्ध किया था कि व्यक्ति अगर चाहे तो वह अपनी संकल्प-षक्ति से तमाम तरह की रूढि़यों को तोड़कर सत्य के पक्ष में एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है। उनकी पुस्तक हम सबके आदर्ष कवि बाबा कबीरदास को समर्पित है। उनके अनेक लेखों में कबीर की फटकार की ही गूंज सुनाई पड़ती है। वर्तमान समय में हम में से अधिकांष लोगों की समझ का दायरा मात्र शुद्ध साहित्य तक ही सीमित जान पड़ता है जबकि डाॅ. वैदिक को पढ़ते हुए यह स्पष्ट होने लगता है कि उनकी दृष्टि वैष्विक इतिहास, राजनीति, समाजषास्त्र, अनेक दार्षनिक प्रपत्तियों और व्यवहार ज्ञान-संपन्न स्थापनाओं से भी संपुंजित है। उनका यह कहना कि सभी राजनीतिक दलों को (मात्र भाजपा ही नहीं) नये हिंदुत्व के क्षितिज का आकलन करना चाहिए।
भाजपा संबंधी प्रारंभिक खंड में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और कांग्रेस तथा भाजपा के अपने अन्तद्र्वंदों और अंतर्विरोधों का विष्लेषण है। इस खंड में लेखक ने तात्कालिक महत्व के विषय ज्यादा उठाए हैं लेकिन हर निबंध में गहरे उतरने की कोषिष दिखाई पड़ती है। यहाँ पत्रकारिता और राजनीतिक पांडित्य, दोनों का सुंदर समन्वय हुआ है। कंधार-अपहरण, भाजपा की हार, तहलका और बंगारू-कांड आदि अनेक विषयों पर लेखक ने दो-टूक राय जाहिर की है। प्रमोद महाजन संबंधी लेख में किया गया निर्मम विष्लेषण भाजपा के लिए गहरा सबक है। इस लेख की शैली इतनी विलक्षण है कि वह मारती भी है और रोने भी नहीं देती। भाजपा और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के साथ डाॅ. वैदिक के इतने अंतरंग संबंध रहे हैं कि उनके बिना इस तरह का विष्लेषण संभव ही नहीं हो सकता था। वाजपेयी, आडवाणी, मोदी, उमा भारती, प्रमोद महाजन आदि भाजपा नेताओं का जैसा वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन और चरित्र-चित्रण डाॅ. वैदिक ने किया है, कितने पत्रकार कर सकते हैं।
डाॅ. वैदिक की पुस्तक में संग्रहीत भाजपा से संबंधित प्रारंभिक लेखों से अलग ‘हिंदुत्व’ एवं ‘मुसलमान’ खंडों में संकलित आलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण हंै। डाॅ. वैदिक ने हिंदुत्व खंड के पहले ही आलेख में ‘राज्य और राष्ट्र’ पर महत्वपूर्ण निर्वचन किया है। डाॅ. वैदिक लिखते हैं ‘वेदों से लेकर महाभारत काल तक न कोई हिंदू राष्ट्र था न मुस्लिम राष्ट्र ! न ईसाई राष्ट्र और न ही कोई यहूदी राष्ट्र। उस समय तक हिंदुत्व या इस्लाम या ईसाइयित या जायनवाद ही नहीं था तो मज़हब पर आधारित कोई राष्ट्र विद्यमान कैसे होता? जहां तक आधुनिक राज्य का प्रष्न है, चार लक्षणों वाले राज्य ‘सुनिष्चित भू-भाग, जनता, सरकार और संप्रभुता’ का उस जमाने में अस्तित्व ही कहां था ? राज्य-राष्ट्र की कल्पना तो अभी कुछ सदी पुरानी है और वह भी यूरोप में पैदा हुई है….. पहले तो कोई राष्ट्र-राज्य हो यानी राष्ट्र भी हो, राज्य भी हो और फिर वह मज़हब पर आधारित भी हो यह बिलकुल अजूबा है। पाकिस्तान के अलावा दुनिया का कोई भी राष्ट्र आज तक मज़हब के आधार पर नहीं बना। इस्राइल भी नहीं, सउदी अरब भी नहीं, इटली भी नहीं। आगे डाॅ. वैदिक लिखते हैं ‘‘राष्ट्रवाद का आधार धर्म नहीं।’’ डाॅ. वैदिक की पोथी के विचार हम सबको हिलाकर रख देंगे। सही अर्थों में डाॅ. वैदिक की स्थापनाएं, क्या हिंदू और क्या मुसलमान, सभी की आंखें खोलने के लिए काफी हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना संबंधी डाॅ. वैदिक के मौलिक लेखों ने भाजपा और संघ की आंतरिक राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला था। लालकृष्ण आडवाणी की पाकिस्तान-यात्रा के तुरंत बाद लिखे गए इन खोजपूर्ण निबंधों ने देष में काफी खलबली मचा दी थी।
‘धर्म-परिवर्तन नहीं, मर्म-परिवर्तन’, ‘धर्मातंरण और हिंदुत्व’, ‘इस्लाम और योग’, ‘वंदेमातरम-इस्लाम विरोधी नहीं’, ‘आतंकवादी हंै, मुसलमानों के दुष्मन’, ‘मुसलमानों की संस्कृत सेवा’, ‘क्यों न हो सबके लिए एक जैसा निजी कानून’, ‘कठमुल्लांे और कामरेडों की जुगलबंदी’ आदि विषय सिद्ध करते हैं कि हम सभी कितनी अनर्गल बहसों में अपना समय नष्ट करते आए हैं। लेखक ने उभय-सांप्रदायिकता और संकीर्णता पर तीव्र प्रहार किए हैं। उन्होंने किसी को भी नहीं बख्शा है। उदाहरण के लिए पहले तो यह कि धर्म शब्द के साथ उपपद लगता ही नहीं। जैसे आकाष शब्द एकवचन ही होता या होना चाहिए। वही स्थिति धर्म शब्द की भी है। यह शब्द जब आचार्यों या उसके प्रतिपादकों के साथ जुड़ने लगा तब बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म आदि शब्द बने। अन्यथा ‘धर्मो विष्वस्य जगतो प्रतिष्ठा’ इतना भर समझ लेना काफी है। जो सदा से चलता चला आया है, जो शाष्वत है, उसे ही हम सनातन कहते हैं। वही एक धर्म है। जितने द्वैत हैं, वे सब के सब मिथ्या हैं। जैसे प्रमाण-प्रमेय, कार्य-कारण, दृष्टा-दृष्य, आत्मा-अनात्मा आदि। सनातन सिद्धांत कहता है कि कार्य-कारण दोनों से परे, जो दोनों से विलक्षण वस्तु है, वही सत्य है।
पृष्ठ 183 पर डाॅ. वैदिक ठीक कहते हैं कि हिंदू शब्द नया है और विदेषी है। जबकि आर्य या भारतीय शब्द पुराने हैं और स्वदेषी हैं……। ईरान के शहंषाह खुद को आर्यमेहर कहते हैं। अफगानिस्तान के मुसलमान अब भी आर्य उपनाम लगाते हैं और अपने बच्चों के नाम वेद, अवेस्ता, कनिष्क आदि रखते हैं। डाॅ. वैदिक इसी के साथ यह भी मानते हंै कि ‘हिंदुत्व’ के पीछे गहन तपस्या, सतत संघर्ष और विलक्षण आत्मोत्सर्ग का इतिहास छिपा है। विनायक दामोदर सावरकर के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिंदुत्व’ पर जितनी विषद समीक्षा डाॅ. वैदिक ने लिखी है, उनके पहले किसी विद्वान ने नहीं लिखी है।
डाॅ0 वैदिक की यह चिंता सार्थक है कि स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी यदि हम राष्ट्रवाद (ऋग्वेद और अथर्ववेद में राष्ट्र शब्द अनेक ऋचाओं में प्रयुक्त हुआ है) की धारणा पर पुनर्विचार करने का सत्साहस नहीं करेंगे तो जो मानसिकता खिलाफत आंदोलन, मुस्लिम लीग के उत्कर्ष और सत्ता की बंदरबाट के दौर में पैदा हुई थी, वह दक्षिण एषिया के भविष्य को अंधकारमय बना सकती है। भारत जिस रूप में आज है, वह भी रह पाएगा या नहीं, यह चिंता का विषय हो जाएगा। अखंड भारत के सिलसिले में डाॅ. वैदिक गांधी, लोहिया, गोलवलकर और सावरकर से भी आगे जाते हैं। वे ‘आर्यावत्र्त’ का सपना देखते हैं। वे ईरान से ब्रह्मदेष (म्यांमार) और तिब्बत से मालदीव तक के क्षेत्र को एक सूत्र में बांधने का सूत्र प्रदान करते हैं। ‘‘यह हिंदुत्व का कौनसा चेहरा है’ शीर्षक वाले लेख में डाॅ. वैदिक समन्यु क्रोधवाली शब्दावली में प्रष्न करते हैं, ‘कौनसे हिंदू धर्म-ग्रंथ में लिखा है कि निहत्थों की हत्या करो, भिक्षुणी से बलात्कार करो, गर्भवती स्त्रियों के पेट चीरो, अनाथ बच्चों के गले काट दो और बूढ़ों की हड्डियाॅं तोड़ दो’ हिंदुत्व का ऐसा चेहरा देखकर हम में से कौन नहीं लज्जित होगा।’’ फिर भी ‘मुस्लिम पर्सनल लाॅ’ के संदर्भ में डाॅ. वैदिक का कहना है कि करोड़ों मुसलमान इन मध्यकालीन कानूनों की चक्की में पिस रहे हैं। सेक्यूलर देष में यह एक तरह की विसंगति है, जो अंततः राष्ट्रीय स्तर पर विभक्तमनस्कता को जन्म देती है। इस्लाम पर लिखे डाॅ. वैदिक के लेख मुसलमानों के बीच नई रोषनी पैदा करेगें। किसी गैर-मुस्लिम विद्वान की इस्लाम के बारे में इतनी ठोस जानकारी मुसलमानों को भी चकित करेगी। गोधरा-कांड पर डाॅ. वैदिक की तीखी टिप्पणियों ने भारतीय राजनीति को एक नया मुहावरा प्रदान किया – राजधर्म का उल्लंघन। इस शब्द का उच्चार तत्कालीन प्रधानमंत्री ने तो कई बार किया ही, आज भी वैदिकजी की यह अवधारणा भारतीय राजनीति में संदर्भ की तरह प्रयुक्त होती है। डाॅ. वैदिक के विचार आरक्षण के विषय में भी औरों से अलग हैं। उनका कहना है कि मजहब के आधार पर दिया गया आरक्षण जाति के आधार पर दिए गए आरक्षण से भी ज्यादा खतरनाक है।
‘मुसलमानों की संस्कृत सेवा’ को लेकर हमारी इतिहास दृष्टि काफी धुंधली है। इस धुंध को साफ करने के लिए डाॅ वैदिक ने यह आलेख बड़े मनोयोग से लिखा है। इसका यह अर्थ भी नहीं लिया जाए कि उनके अन्य आलेख किसी भी हालात में कमतर है। मगर साहित्य के विद्यार्थियों के लिए यहां दी गई सूचनाएं गवाह हंै कि डाॅ. वैदिक की विद्वता का परिसर कितना व्यापक है। मुसलमानों की संस्कृत सेवा पर प्रकाष डालते हुए डाॅ. वैदिक बताते है कि छठी सदी में शाह खुसरो नौषेरवाॅ ने पंचतंत्र का पुरानी फारसी में अनुवाद कर दिया था। आज भी पष्चिम और मध्य एषिया के मुस्लिम देषों में ‘कलीलग’ और ‘दमनक’ के नाम से पंचतंत्र की कहानियाॅं घर-घर में कहीं-सुनी जाती हंै। आयुर्वेद, ज्योतिष और समरषास्त्र के अनेक ग्रंथ आठवीं और नौंवी सदी में अफगान और अरबी विद्वानों ने फारसी और अरबी भाषा में रूंपातारित किए। गणित विज्ञान और ज्योतिष का भारतीय ज्ञान यूरोपीय लोगों को इन्हीं अरबी ग्रंथों से मिला। शाहजहंा के जमाने में पंडित राज जगन्नाथ ने बादषाह के कृपापात्र रहते हुए भामिनी-विलास, गंगा-लहरी और रस गंगाधर जैसी कृतियाॅं तैयार कीं। औरंगजेब के भाई दाराषिकोह ने तुर्की में ‘मजमुल बहरीन’ लिखा और शायद स्वयं ही ‘समुद्र संगम’ के नाम से उसका संस्कृत अनुवाद किया। शाहजहां ने मुनीष्वर और नित्यानंद जैसे धुरंधर विद्वानों को प्रश्रय दिया आदि। ‘अफगानिस्तान कभी आर्याना था’, निबंध अपने आप में इतना सूचना-संपन्न है कि उसे कई ग्रंथों के बराबर माना जा सकता है।
अंत में इस समीक्षाकार का सभी समझदार, सुधी पाठकों से यह निवेदन है कि 350 पृष्ठों में लिखा गया डाॅ. वैदिक का यह ग्रंथ वे तो पढ़ें ही, जिनकी जानकारी का क्षेत्र सीमित है। साथ ही वे सब भी पढ़ें, जो सोचते हैं कि सोचना सिर्फ अंग्रेजी वालों को आता है। मौलिक सोच से ओत-प्रोत यह ग्रंथ न सिर्फ, हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित करता है अपितु 21 वीं शताब्दि की भारतीय बौद्धिकता को नए आयाम भी प्रदान करता है।विपुल ज्ञान राषि से भरी डाॅ. वैदिक की यह कृति सचमुच संग्रहणीय है और एक से अधिक बार पढ़े जाने की मांग करती है।
(लेखक हिंदी के मूर्धन्य कवि और दर्षन के अध्येता हैं)
लेखक: डाॅ. वेदप्रताप वैदिक, ‘भाजपा हिंदुत्व और मुसलमान’ (राजकमल प्रकाषन, नई दिल्ली) मूल्य 450 रू.