साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को मालेगांव बम विस्फोट मामले में सरकार ने तब गिरफ़्तार किया था जब सरकार ने नीति के आधार पर यह निर्णय कर लिया था कि आतंकवादी गतिविधियों में कुछ हिन्दुओं की संलिप्तता दिखाना भी जरुरी है । अभी तक आतंकवादी गतिविधियों में जितने लोग पकड़े जा रहे थे वे सब मुसलमान ही थे । सोनिया कांग्रेस की सरकार को उस वक़्त लगता था कि यदि आतंकवादी गतिविधियों से किसी तरह कुछ हिन्दुओं को भी पकड़ लिया जाये तो सरकार मुसलमानों के तुष्टिकरण के माध्यम से उनके वोट बैंक का लाभ उठा सकती है । इस नीति के पीछे , ऐसा माना जाता है कि मोटे तौर पर दिग्विजय सिंह का दिमाग़ काम करता था । वे उन दिनों एक साथ दो मोर्चों पर काम कर रहे थे । व्यक्तिगत मोर्चा अमृता का था और संगठन के लिहाज़ से मोर्चा आतंकवाद को भगवा बताने का था । आतंकवाद का सोनिया कांग्रेस के हित में कैसे प्रयोग किया जा सकता है , इस थ्योरी के जनक दिग्विजय सिंह ही माने जाते थे । जब सोनिया कांग्रेस ने , एक बार सिद्धान्त के तौर पर स्वीकार कर लिया गया कि आतंकवाद को भगवा आतंकवाद का नाम देना है , और उसके माध्यम से मुसलमानों को प्रसन्न करना है तो बाद में तो उसका केवल कार्यन्वयन ही बचा था । उसके लिये सरकार ने वही भेड़िये और लेले की पुरानी कहानी का सहारा लिया । आतंकवाद को भगवा बताना है तो गिरफ्तारी के लिये भगवे रंग वाले पात्र की तलाश शुरु हुई । कहानी को सनसनीख़ेज़ बनाना है इसलिये पात्र महिला हो तो सोने पर सुहागा हो जायेगा । इसी खोज में पुलिस के हत्थे साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर चढ़ गईं जो कभी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ी रही थीं । इस एक पात्र से ही सोनिया कांग्रेस की भगवा आतंकवाद की कहानी बख़ूबी लिखी जा सकती थी । विद्यार्थी परिषद से प्रज्ञा ठाकुर के सम्बंधों को भगवा बताने में दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को कितनी देर लगती ! अब प्रश्न केवल इतना ही था कि प्रज्ञा ठाकुर को किस अपराध के अन्तर्गत गिरफ़्तार किया जाये ? जब सरकार पुलिस को कोई काम सौंप देती है और पुलिस के अधिकारी वे हों जो वक़ील लाल कृष्ण आडवाणी , उन्हें झुकने के लिये कहा गया था तो उन्होंने क्रालिंग शुरु कर दी, तो केस तैयार करने में क्या दिक़्क़त हो सकती है ? २००६ और २००८ में महाराष्ट्र के मालेगांव में बम विस्फोट हुये थे । उनमें शामिल लोग गिरफ़्तार भी हो चुके थे । लेकिन जाँच एजेंसियों को तो अब सरकार द्वारा कल्पित भगवा आतंकवाद के सिद्धान्त को स्थापित करना था , इसलिये कुछ अति उत्साही पुलिस वालों ने प्रज्ञा ठाकुर को भी मालेगांव के बम विस्फोट में ही लपेट दिया और अक्तूबर २००८ में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया । प्रज्ञा को सामान्य क़ानूनी सहायता भी न मिल सके , इसके लिये उस पर मकोका अधिनियम की विभिन्न धाराएँ आरोपित कर दी गईं ।
लेकिन एक दिक़्क़त अभी भी बाक़ी थी । एक ही अपराध और एक ही घटना । उस के लिये पुलिस ने दो अलग अलग केस तैयार कर सिये । एक साथ ही दो अलग अलग समूहों को दोषी ठहरा दिया । पुलिस की इस हरकत से विस्फोट में संलिप्तता का आरोप भुगत रहे तथाकथित आतंकवादियों को बचाव का एक ठोस रास्ता उपलब्ध हो गया । इन विस्फोटों के लिये पकड़े गये मुसलमानों ने अदालत में ज़मानत की अर्ज़ी लगा दी । यदि पुलिस की जाँच यह कहती है कि इन विस्फोटों के लिये प्रज्ञा ठाकुर और उसके साथी ज़िम्मेदार हैं तो इन मुसलमानों को क्यों पकड़ा हुआ है ? यदि पुलिस की जाँच यह कहती है कि इस विस्फोट के लिये मुसलमान दोषी हैं तो प्रज्ञा ठाकुर को क्यों पकड़ा हुआ है ? लेकिन जेल में बन्द मुसलमानों ने तो यही तर्क दिया कि पुलिस ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि मालेगांव विस्फोट के लिये प्रज्ञा और उन के साथी ज़िम्मेदार हैं , इसलिये उन्हें कम से कम ज़मानत पर तो छोड़ ही दिया जाये । लेकिन पुलिस तो जानती थी कि प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ़्तारी तो मात्र सोनिया कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ब्रिगेड की राजनैतिक पहल में रंग भरने मात्र के लिये है , उसका मालेगांव के विस्फोट से कुछ लेना देना नहीं है । इसलिये पुलिस ने इन मुसलमान आतंकवादियों की ज़मानत की अर्ज़ी का डट कर विरोध किया । विधि के जानकार लोगों को तभी ज्ञात हो गया था कि सोनिया कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण के अभियान को पूरा करने के लिये साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की बलि चढ़ाई जा रही है । उसका बम विस्फोट से कुछ लेना देना नहीं है ।
आज साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को जेल में पड़े हुये छह साल पूरे हो गये हैं । राष्ट्रीय जाँच एजेंसी उस पर कोई केस नहीं बना सकी । उसके ख़िलाफ़ तमाम हथकंडे इस्तेमाल करने के बावजूद कोई प्रमाण नहीं जुटा सकी । एक स्टेज पर तो राष्ट्रीय जाँच अभिकरण को कहना ही पड़ा कि साध्वी के ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत न होने के कारण इन पर लगे आरोप निरस्त कर देने चाहिये । यदि सही प्रकार से कहा जाये तो प्रज्ञा ठाकुर का केस अभी प्रारम्भ ही नहीं हुआ है । लेकिन इसके बावजूद सरकार साध्वी को रिहा करने के लिये तैयार नहीं है । सरकार उसकी ज़मानत की अर्ज़ी का डट कर विरोध करती है । जेल में साध्वी को शारीरिक व मानसिक यातनांएं दी गईं । उनकी केवल पिटाई ही नहीं की गई बल्कि उन पर फब्तियां कसी गईं । डराने धमकाने का जो सिलसिला चला , उसको तो भला क्या कहा जाये ? जेल में ही साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को कैंसर के रोग ने घेर लिया । जेल में भला कैंसर जैसे प्राज्ञघातक रोग के इलाज की क्या व्यवस्था हो सकती है ? प्रज्ञा ठाकुर ने ज़मानत के लिये एक बार फिर आवेदन दिया । वे बाहर अपने कैंसर का इलाज करवाना चाहती थीं । लेकिन सरकार ने इस बार भी उनकी ज़मानत का जी जान से विरोध किया । उनकी ज़मानत नहीं हो सकी । इसे ताज्जुब ही कहना होगा कि जिन राजनैतिक दलों ने जाने माने आतंकवादी मौलाना मदनी को जेल से छुड़ाने के लिये केरल विधान सभा में बाक़ायदा एक प्रस्ताव पारित कर अपने पंथ निरपेक्ष होने का राजनैतिक लाभ उठाने का घटिया प्रयास किया वही राजनैतिक दल साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को फाँसी पर लटका देने के लिये दिल्ली के जंतर मंत्र पर धरना प्रदर्शन करते हैं ।
आज प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बिना किसी अपराध के भी जेल में पड़े हुये लगभग छह साल हो गई हैं । प्रश्न है कि बिना मुक़द्दमा चलाये हुये किसी हिन्दू स्त्री को , केवल इसलिये कि मुसलमान ख़ुश हो जायेंगे, भला कितनी देर जेल में बन्द रखा जा सकता है ? पुलिस अपनी तोता-बिल्ली की कहानी को और कितना लम्बा खींच सकती है ? लेकिन ताज्जुब है अब पुलिस ने जब देखा कि प्रज्ञा सिंह के ख़िलाफ़ और किसी भी अपराध में कोई सबूत नहीं मिला है तो उसने सुनील जोशी की हत्या के मामले में प्रज्ञा सिंह ठाकुर को जोड़ना शुरु कर दिया । पुलिस का कहना है कि सुनील जोशी ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर का यौन शोषण करने का प्रयास किया , इससे क्रुद्ध होकर प्रज्ञा के साथियों ने सुनील का वध कर दिया । पहले यही पुलिस सुनील को आतंकवाद के साथ जोड़ रही थी , अब जब वहाँ कुछ नहीं मिला तो उसे यौन शोषण के साथ जोड़ कर उसकी हत्या को प्रज्ञा के माथे मढ़ने का प्रयास कर रही है ।
क़िस्सा कोताह यह कि जाँच एजेंसियों ने उस वक्त सोनिया कांग्रेस को ख़ुश करने के लिये और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने के लिये प्रज्ञा सिंह ठाकुर को पकड़ लिया , और अपनी कारगुज़ारी दिखाने के लिये उसके इर्द गिर्द कपोल कल्पित कथाओं का ताना बाना भी बुन दिया । इटली के मैकियावली से और लोग चाहे परिचित न हों लेकिन सोनिया गान्धी का नाम सुनते सुनते भारत के पुलिसवालों ने तो उसे अच्छी तरह जान ही लिया है । इसलिये निर्दोष को झूठे केस में कैसे फँसाना है , इसकी मैकियावली महारत तो पुलिस ने प्राप्त कर ही ली है । उसी का शिकार प्रज्ञा सिंह ठाकुर हो गईं । दुर्भाग्य से मैकियावली ने यह नहीं बताया कि किसी निर्दोष को एक बार फँसा कर , फिर उसे बाहर कैसे निकालना है । यही कारण है कि पुलिस अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिये अभी भी प्रज्ञा सिंह के इर्द गिर्द झूठ का ताना बाना बुनती ही जा रही है । कैंसर की मरीज़ प्रज्ञा ठाकुर क्या दिग्विजय सिंह के बुने हुये फ़रेब के इस जाल से निकल पायेगी या उसी में उलझी रह कर दम तोड़ देगी ? इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य ही देगा , लेकिन एक साध्वी के साथ किये इस दुर्व्यवहार की ज़िम्मेदारी तो आख़िर किसी न किसी को लेनी ही होगी ।