गायत्री-परिवार के मुखिया डा. प्रणव पंड्या ने राज्यसभा में अपनी नामजदगी को अस्वीकार करके अपने कद को उंचा कर लिया है। उनके इस अस्वीकार में कहीं भी मोदी सरकार की खिल्ली नहीं उड़ती है। उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रति सम्मान जाहिर किया है लेकिन खुद पर भाजपा या किसी अन्य पार्टी का ठप्पा लगवाने से मना कर दिया है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यसभा सदस्यों के बारे में अक्सर धारणा यही रहती है कि जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में असाधारण योगदान किया है, ऐसे विशिष्ट लोगों को ही मनोनीत किया जाता है। इस दृष्टि से डा. पंड्या राज्यसभा के सदस्य बन जाते तो कुछ गलत नहीं होता।
लेकिन कल रात उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उनसे आग्रह किया। बार-बार किया। लेकिन जब मोदी ने उन्हें फोन किया तो वे मना नहीं कर सके। उनके नाम की घोषणा हो जाने के बाद उनके सैकड़ों भक्तों ने असहमति जाहिर की। ऐसे में उन्होंने अपने एक लाख भक्तों को ई-मेल भेजे और उनकी राय मांगी। हजारों भक्तों और प्रशंसकों का सोचना यह था कि राज्यसभा का सदस्य बनना अपने आपको राजनीति के कीचड़ में फंसाना है।
मुझे इस तर्क पर संदेह है, फिर भी मैं डा. पंड्या के निर्णय को उचित मानता हूं, क्योंकि देश में धारणा यही बनती कि जैसे अन्य लोग नेताओं के आगे नाक रगड़कर पदों की भीख मांगते हैं, प्रणव पंड्या भी अपवाद नहीं होंगे। धीरे-धीरे उनकी इज्जत पैंदे में बैठ जाती। मैं पिछले 55-60 साल से राजनीति को अंदर से देखता-परखता रहा हूं। हमारे नेता अपनी तिकड़मों में ही इतने अधिक व्यस्त रहते हैं कि उन्हें योग्य लोगों की पहचान में कोई रुचि नहीं होती। ऐसे में इस तरह के सम्मानों को स्वीकार करने के पहले हर व्यक्ति को खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि सम्मान देने वाले की पात्रता क्या है? यदि सम्मान देने वाले लोग ही सम्मानीय न हो तो उनके दिए हुए सम्मान की कीमत क्या है? इस सम्मान को अस्वीकार करके डा. पंड्या ने अपना सम्मान बढ़ाया है।
प्रणव की विनम्रता, सादगी और आध्यात्मिकता के संकेत प्रारंभ से ही मिलते रहे है। उन्होंने अपने ससुर पं. श्रीराम शर्मा के गायत्री-परिवार को देश और विदेश में दूर-दूर तक फैला दिया है। वे गृहस्थ होते हुए भी सच्चे संत की तरह रहते हैं। प्रणव पंड्या- जैसे संतों के लिए राज्यसभा क्या, देश के बड़े से बड़े पद का कोई अर्थ नहीं है। यह बहुत शुभ है कि प्रणवजी हमारे नेताओं की तरह अहमन्य नहीं हैं। उन्होंने अपने अनुयायिओं की राय को महत्व देकर लोकतंत्र का भी मान बढ़ाया है। डा. प्रणव का आचरण देश के सभी साधु-संतों और कलाकारों के लिए भी अनुकरणीय है।