रामकथा आदर्श जीवन की संपूर्ण गाइड है। राम भारतवर्ष के प्राण हैं। वे भारत के रोम-रोम में बसे हैं। यही कारण है कि उनका अनादर देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘मेरे राम मेरी रामकथा’ लिखने से पूर्व प्रख्यात लेखक नरेन्द्र कोहली राम चरित्र पर एक वृह्द उपन्यास लिख चुके हैं, जिसे खूब सराहा गया। यह दो भागों में था – अभ्युदय-१ (दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर) और अभ्युदय-२ (युद्ध-१ व युद्ध-२)। पहला खंड ‘दीक्षा’ का लेखन उन्होंने १९७३ में शुरू किया था लेकिन इसको लिखने से पहले उनके मन में बड़ी उथल-पुथल मची थी। आखिर वे भारत के मर्म पर लिखने जा रहे थे। जरा-सी ऊंच-नीच बवंडर खड़ा कर सकती थी। लेकिन, राम के जीवन का कोई कड़वा सच होता तब लेखकीय धर्म उसे भी लिखने के लिए मजबूर करता, ऐसे में मुश्किल हो सकती थी। उनसे पहले कुछेक अति बुद्धिवादियों ने राम के चरित्र को छलनी करने का प्रयास किया ही था। यही कारण रहा कि जब कोहली ने उपन्यास लिखना आरंभ किया तो सबसे पहली आपत्ति उनके पिता ने ही की। उनका मानना था कि राम परम ब्रह्म हैं और नरेन्द्र साधारण चरित्र का कथाकार, जो घटना का रस लेता है। उनके पिता को आशंका थी कि वह लोकप्रियता हासिल करने के लिए राम के चरित्र को औरों की तरह दूषित न कर दें। लेकिन, ‘दीक्षा’ जब प्रकाशित होकर आया, पाठकों और आलोचकों के हाथ पहुंचा। इसके बाद वहां से जो सकारात्मक रुझान आया वह नरेन्द्र कोहली के लिए बड़े ही आनंद का विषय था। खासकर वह क्षण उनके लिए अविस्मरणीय है जब उन्होंने माता-पिता को बैठाकर ‘दीक्षा’ का पाठ उनके सामने किया। उपन्यास सुनकर उनके पिता ने प्रसन्नता जाहिर की। कहा कि- उन्हें कोई आपत्ति नहीं क्योंकि उपन्यास में कहीं भी प्रभु राम की अवमानना नहीं है। एक सनातनी हिन्दू का प्रमाण-पत्र मिलने के बाद तो लेखक का साहस बढ़ गया और इसके बाद १९७५ से १९७९ के बीच रामकथा के सारे खंड प्रकाशित हो गए। हालांकि ऐसा नहीं रहा कि उनकी आलोचना नहीं हुई। समीक्षकों ने आपत्ति जताई थी कि राम का चरित्र स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि लेखक ने राम की किसी भी चारित्रिक दुर्बलता का चित्रण नहीं किया था। आलोचक की मान्यता थी कि ऐसा कोई नहीं है जिसकी कोई चारित्रिक दुर्बलता नहीं हो। उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक है क्योंकि उन्होंने संभवत: अपने जीवन में ऐसा कोई सज्जन देखा ही नहीं होगा। इस पर लेखक कहता है कि श्रीराम के चरित्र में मुझे कहीं कोई छिद्र दिखाई नहीं दे रहा था। जब दोष था ही नहीं तो तथाकथित साहित्यिक पंडितों को प्रसन्न करने के लिए मैं उस परम पावन चरित्र पर कालिमा तो नहीं पोत सकता था।
लोकनायक राम के जीवन पर शानदार उपन्यास लिखने के लम्बे समय बाद २००९ में उनकी ‘मेरे राम मेरी रामकथा’ पुस्तक का प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की रचना के संदर्भ में नरेन्द्र कोहली कहते हैं कि रामकथा के प्रकाशन के बाद से बहुत सारे प्रश्न मेरे सामने आए थे- कुछ दूसरों के द्वारा पूछे गए और कुछ मेरे अपने मन में अंकुरित हुए थे। बहुत कुछ वह था जो लोग पूछ रहे थे और बहुत कुछ वह था जो मैं पाठकों को बताना चाहता था। यही कारण है कि समय-समय पर अनेक कोणों से, अनेक पक्षों को लेकर मैं अपनी सृजन प्रक्रिया और अपनी कृति के विषय में सोचता, कहता और लिखता रहा। अंतत: उन सारे निबन्धों, साक्षात्कारों, वक्तव्यों और व्याख्यानों को मैंने एक कृति के रूप में प्रस्तुत करने का मन बनाया। इस प्रकार जो मंथन नरेन्द्र कोहली मन में हुआ वही ‘मेरे राम मेरी रामकथा’ में आपके सामने है।
लेखक ने पुस्तक में रामायण के प्रसंगों को वर्तमान की परिस्थितियों के बरक्स रखकर यथास्थिति से अवगत कराने का सकारात्मक प्रयास किया है। किसी देश पर अधिपत्य जमाए रखने के लिए वहां बौद्धिक नेतृत्व को खत्म करना जरूरी है। रावण व अन्य राक्षण यही किया करते थे। वे इसे समझाने के लिए बांग्लादेश स्वतंत्रता के युद्ध का उदाहरण देते हैं। कोहली लिखते हैं कि उस युद्ध में उनकी गहरी रुचि थी। इसलिए उसके संबंध में समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाली सूचनाओं को वे बहुत रुचि से पढ़ते थे। उसी संदर्भ में समाचार छपा था कि पाकिस्तानी सेना अत्यंत सुनियोजित ढंग से सूची बना-बनाकर बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों की हत्या कर रही है। उनकी इच्छा थी कि बांग्लादेश का एक-एक बुद्धिजीवी समाप्त कर दिया जाए ताकि बांग्लादेश को बौद्धिक नेतृत्व नहीं मिल सके। इस समाचार से लेखक को स्पष्ट हुआ कि रावण के नेतृत्व में राक्षस, दंडकवन के ऋषियों का मांस क्यों खा रहे थे। अब तक ऋषियों के वध की घटनाएं, राक्षसों की क्रूरता को चित्रित करने का साधन मात्र थीं, किन्तु अब वे मानव समाज के दलित-दमित वर्ग को पिछड़ा बनाए रखने के लिए उसे बौद्धिक नेतृत्व से वंचित करने के क्रूर षड्यंत्र का प्रतीक थीं।
मेरे राम मेरी रामकथा
– नरेन्द्र कोहली
मूल्य : २५० रुपए (सजिल्द)
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
४६९५, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
आज समाज में नुकीले दांतों, विशाल और भयाभय शरीर वाले राक्षस नहीं है। लेकिन, राक्षस तो हैं ही। जो धर्म का पालन नहीं करते, गरीब और असहाय को सताते हैं वे राक्षस ही हैं। इसे भी लेखक ने स्पष्ट किया है। राक्षस को जाति नहीं है। रामकथा में ही एकाधिक स्थानों पर राम जिस समय किसी राक्षस के कंठ पर अपने चरण रखकर पूछते हैं कि वह कौन है तो वह अपना परिचय देता हुआ कहता है कि वह गंधर्व था, अब राक्षस हो गया है। इस प्रकार सामान्य लोग भी राक्षस हो जाते हैं और दंड के अभाव में लगातार राक्षस हो रहे हैं। राक्षस जीवन-शैली और चिंतन को स्वीकार कर लेने वाला कोई भी व्यक्ति राक्षस हो सकता है। आमूलचूल परिवर्तन समाज जागरण और जनांदोलन से ही आता है। यही कारण है कि ऋषियों ने राम को रावण के खिलाफ जननायक के रूप में खड़ा किया, अयोध्या के राजा के रूप में नहीं। उन्होंने राम से पहले जनजागरण कराया, समाज में राम की छवि जननेता की बनाई ताकि लोग राम के साथ अन्यास के खिलाफ उठ खड़े हों। विश्वामित्र को सिद्धाश्रम ही बचाना होता तो वे स्वयं किसी राजा की शरण में चले जाते या ताड़का वध के बाद राम को वापस अयोध्या भेज देते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि उनकी योजना समाज जागरण कर अत्याचारी रावण के खात्मे की थी। नरेन्द्र कोहली ने ‘मेरे राम मेरी रामकथा’ में राम के जीवन से जुड़े कई प्रश्नों को बेहतर तर्क प्रस्तुत कर स्पष्ट किया है। जिन प्रसंगों को लेकर विधर्मी राम के चरित्र पर सवाल उठाते हैं उन्हें ‘मेरे राम मेरी रामकथा’ करारा जवाब है। रामसेतु प्रसंग की चर्चा कर उन्होंने केन्द्र सरकार और राम विरोधियों की मानसिकता को भी उजागर किया है। वैसे तो देश में रोज ही कहीं न कहीं रामकथा का वाचन-श्रवण होता ही रहता है फिर भी राम के मर्म को समझना है तो यह पुस्तक और राम के जीवन पर लिखा नरेन्द्र कोहली का उपन्यास पढऩा चाहिए।