भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल ठीक कहा कि सिर्फ नारेबाजी से काम नहीं चलेगा। जब तक हम जनता को कुछ ठोस काम करके नहीं दिखाएंगे, वह संतुष्ट नहीं होगी। उन्होंने अपने सभी कार्यकर्ताओं से सात सद्गुणों का पालन करने को कहा है। ये हैं- सेवा-भाव, संतुलन, संयम, समन्वय, सकारात्मकता, सम्वेदना और सम्वाद! इन सातों सद्गुणों में ‘स’ के अनुप्रास की छटा देखने लायक है। ये सद्गुण यदि हर कार्यकर्ता की आचरण-संहिता का अंग बन जाएं तो आप मान लीजिए कि वे नेता नहीं, देवता बन जाएंगे।
मोदी द्वारा कही गईं ये बातें ऐसी लगती हैं, जैसे किसी प्राचीन गुरुकुल के दीक्षांत-समारोह में कोई ऋषि ब्रह्मचारियों को उपदेश दे रहा हो। ये सात सद्गुण इतने उत्तम हैं कि इनके आगे यूनानी दार्शनिक प्लेटो के रिपब्लिक में वर्णित ‘दार्शनिक राजा’ के सदगुण भी फीके पड़ जाएं।
यहां असली प्रश्न यह है कि जब मोदी ये मोती बिखेर रहे थे तो कार्यकर्तागण क्या सोच रहे होंगे? वे सोच रहे होंगे कि हम किसके मुंह से क्या सुन रहे हैं? हम गुरुकुल के ब्रह्मचारी हैं या राजनेता? हमें आचार्य कौटिल्य या भर्तृहरि से कूटनीति सीखनी चाहिए या याज्यवल्क्य के उपदेश सुनने चाहिए?
भर्तृहरि कहते हैं, राजनीति क्या है? वारांगना है। वेश्या है। झूठी-सच्ची, मधुर-कठोर, दयालु-हिंसक, नित्यव्यया-नित्य धनागमा, क्षण-क्षण में रुपांतर करने वाली है। आप खुद कौटिल्य और भर्तृहरि के पटु शिष्य हैं और उपदेश झाड़ रहे हैं, याज्यवल्क्य का! इन हवाई उपदेशों की जगह यदि इन भाजपा नेताओं को ठोस कार्यक्रम के निर्देश दिए जाते तो वे अगले एक साल में कुछ करके दिखाते।
आज भी संघ और भाजपा के पास तपस्वी कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है लेकिन उसकी जगह नौकरशाही के दम पर सारी नौटंकी चल रही है। दो साल तो लगभग खाली निकल गए। आप आंकड़ों के गुब्बारे उछाल कर ओबामा-जैसों को चाहे भरमाते रहें, यहां तो देश के किसान, व्यापारी, मजदूर जरा भी राहत महसूस नहीं कर रहे हैं। देश तो कांग्रेस-मुक्त अपने आप हो रहा है लेकिन प्रदेशों में दर्जनों कांग्रेस जमी बैठी हैं। उन्हें हटाने के लिए भाषणों की झाड़ू काफी नहीं हैं। यदि यह साल भी खाली निकल गया तो प्रादेशिक चुनावों में वही हाल हो सकता है, जो बिहार में हुआ है। भाजपा यदि असम के फरेब में फंस गई तो अगले साल उसकी स्थिति विषम हो सकती है।