भारत के स्वाभाविक और प्राकृतिक वासी, इस देश के आदिनिवासी और मूलवासी कहे जाते हैं। इन्हें ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने इंडीजीनियस पीपुल कहा है। लेकिन चालाक सवर्ण आर्यों ने जिस प्रकार से अछूत को हरिजन और दलित, आदिवासी को वनवासी, गिरवासी और जंगली घोषित कर दिया, उसी तर्ज पर आदिनिवासी-मूलवासी को भी मूलनिवासी (भाड़ेदार) बना दिया।
सवर्ण कौन: सबसे पहले हम सवर्ण कौन, इसे ही समझ लें। बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के शोध और निष्कर्ष इस विषय में अधिक प्रासंगिक होंगे। शुद्र कौन थे? नामक ग्रन्थ में बाबा साहब ने जो कुछ लिखा है, उसके अनुसार शूद्र प्रारम्भ में सूर्यवंशी आर्य क्षत्रिय वीर यौद्धा थे, लेकिन ब्राह्मणों से युद्ध और वैमनस्यता के कारण बामणों ने उनका उपनयन संस्कार बन्द कर दिया और उनको क्षत्रिय से शूद्र बना दिया। इस प्रकार शुद्र नामक चौथे वर्ण का उद्भव हुआ। बाबा साहब के अनुसार, वर्ण संरचना के समय—-भारत में ब्राह्मण, क्षत्रित, वैश्य और शुद्र चार ही वर्ण थे। जिनमें सभी आर्य थे। जिन्हें सवर्ण कहा गया और उस समय के शेष वाशिंदे, अर्थात भारत के मूलवासी-आदिनिवासी अवर्ण, अर्थात, जिनका कोई वर्ण नहीं, कहलाये गये।
यह चार स्तरीय वर्ण व्यवस्था रची गयी उसके तकरीबन एक हजार साल बाद गैर आर्य प्रजातियों का भारत में आगमन हुआ। जैसे हूँण, कुषाण, शक, मंगोल और बाद में मुगल, ईसाई, पारसी, पुर्तगाली आदि। इस प्रकार वर्ण संरचना के बाद में भारत में आने वाले लोगों के वंशज भी अवर्ण ही हुए। जिनमें से शासक जाति होने के बाद भी अंग्रेजों और मुसलमानों को बामणों ने क्षत्रिय नहीं, बल्कि मुसलमानों को म्लेच्छ और अंग्रेजों को फिरंगी नाम दे दिया। जो किसी वर्ण में शामिल नहीं। इस प्रकार फिर से प्रमाणित हुआ कि उक्त चार वर्णों में शामिल प्रजातियों के अलावा भारत के शेष सब अवर्ण श्रेणी में माने गए।
वर्तमान भारत में खुद को शूद्रों के वंशज मानने वाली कुछ सवर्ण आर्य जातियों ने खुद को भारत के असली निवासी और मूल मालिक सिद्ध करने के लिए–मूलवासी-आदिनिवासी शब्द को तोड़-मरोड़कर मूलनिवासी बना डाला और बाबा साहब के निष्कर्षों के विपरीत खुद को असवर्ण घोषित कर दिया। इन लोगों ने कभी भी अपने आप को भारत के इंडीजीनियश पीपुल या आदिवासी नहीं माना। ये कभी भी विश्व आदिवासी दिवस नहीं मनाते, लेकिन शाब्दिक चालबाजी के जरिये वास्तविक मूलवासी शब्द को, कूट रचित मूलनिवासी शब्द के रूप में गढ़कर और समाज को भ्रमित कर के अपने आप को भारत का मूलवासी और मूलमालिक बताने का षड्यंत्र रच डाला।
जबकि वास्तव में इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि खुद को भ्रमवश शूद्र मानने वालों में अनेक जातियां आर्य शूद्रों की नहीं, बल्कि मूलवासियों की ही वंशज हैं। इसके उपरान्त भी कि बाबा साहब ने अछूतों का जो शोधात्मक अध्ययन किया है, उसके अनुसार वर्तमान में अजा में शामिल या कथित रूप से अछूत मानी जाने वाली या बामणों द्वारा अछूत घोषित जातियों में से केवल “चमार” जाति के अलावा अन्य किसी भी जाति के आर्य-शूद्र-वंशीय होने के प्राथमिक आधार नहीं मिलते हैं। चमार जाति के भी शूद्र होने के अकाट्य प्रमाण नहीं हैं, फिर भी वामन मेश्राम और मायावती/बसपा समर्थक समस्त अनु. जातियों को शूद्रवंशी घोषित करके भारत की वास्तविक मालिक मूलवासी जातियों के वर्तमान वंशजों को और ओबीसी, मुस्लिम और ईसाइयों को भी भारत के मूलनिवासी बनाकर भारत के मालिक मूलवासी बनाने के लिए लगातार भ्रम फैला रहे हैं। झूठ फैला रहे हैं।
इस प्रकार उपनयन संस्कार से तिरस्कृत सवर्ण शूद्र्वंशी आर्य भी संघ पर काबिज आर्य ब्राह्मणों की भाँति खुद को भारत के मूल मालिक सिद्ध करने के षड्यंत्र में बराबर शामिल प्रतीत होते हैं। केवल यही नहीं, इन लोगों की ओर से अपने द्वारा गढ़े गए झूठ और बाबा साहब के महत्वपूर्ण शोधों को असत्य सिद्ध करने के लिए किसी (सम्भवत: इन्हीं के द्वारा) बनावटी और प्रायोजित डीएनए रिपोर्ट का भी आधार लिया जा रहा है। जबकि खुद को शुद्र बताने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस देश में बामणों द्वारा हजारों सालों तक शूद्रों की नवविवाहिता स्त्रियों से यौनि पवित्र संस्कार के नाम पर प्रथम सम्भोग किया जाता रहा था और भारत में विवाहेत्तर सम्बंधों को कटु सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। जिनसे बामणों और गैरवर्णीय/गैर जातीय मर्दों की औलादें शूद्रों सहित सभी वर्णों में जन्मती रही होंगी, इससे इनकार करना असम्भव है। ऐसे में वर्तमान में डी इन ए की प्रामाणिकता अप्रासंगिक, असम्भव और अकल्पनीय है।
इसके अलावा भारत में नस्लीय भेद नहीं, बल्कि जन्मजातीय विभेद मूल समस्या है, जिसका स्थायी और व्यावहारिक समाधान प्रायोजित तरीके से मूलवासी को मूलनिवासी बनाना या बनावटी डीएनए रिपोर्ट नहीं, बल्कि समान संवैधानिक भागीदारी और राष्ट्रीय संसाधनों में हिस्सेदारी है। जो मूलनिवासी का षड्यंत्र फ़ैलाने से नहीं, बल्कि संवैधानिक और मूलवासी हकों की प्राप्ति से ही सम्भव है। जिसके लिए वंचित समाज को गुमराह करने की नहीं, बल्कि उनको सजग और जागरूक बनाना पहली और अंतिम जरूरत है। जबकि इस दिशा में कुछ नहीं हो रहा है। इसके विपरीत बुद्ध और भीम वन्दना गायी जाकर इनकी पूजा की जा रही हैं। जो मनुवाद का पोषण कर रही हैं।
अंत में यही कहा जा सकता है कि मूलवासियों को यदि अपने प्राकृतिक और मौलिक हक पाने हैं तो आर्य-सवर्ण-षड्यंत्रकारियों से भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था को मुक्त करना होगा।
(ये लेखक केे अपने विचार है, इससे भारत वार्ता सेे कोई संबंध नहीं हैै)