बसु का बयान और सरकार का निकम्मापन

संसद सत्र से ठीक पहले वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मनमोहन सिंह सरकार की कमजोरियों को उजागर करते हुए २०१४ के बाद आर्थिक सुधार होने बाबत बयान दिया; उससे कांग्रेस और सरकार दोनों भौचक हैं| बसु का यह बयान ऐसे वक़्त में आया है जब सरकार के सहयोगी दल भी सरकार के साथ राजनीतिक संबंधों को सकारात्मक नहीं बता रहे| फिर सेना प्रमुख-सरकार का विवाद भी अभी थमा नहीं है| बसु के बयान ने मनमोहन सरकार के उस दावे की पोल भी खोल दी है जिसमें वे घोषणा किया करते थे कि देश आर्थिक रूप से मजबूत एवं सक्षम है और सरकार देश के समग्र विकास हेतु उचित कदम उठा रही है|

बसु के मनमोहन सरकार के पोल-खोल बयान से निश्चित रूप से भारत की छवि को धक्का लगा है| चूँकि बसु ने यह बयान अमेरिका में दिया है तो स्वाभाविक है कि वहां भी उनके कथन के निहितार्थ खोजे जा रहे होंगे| कुल मिलाकर बसु के बयान ने भारत में राजनीति गर्मा दी है तो अन्य देश लाभ-हानि का गुणा-भाग करने में लग गए हैं| बयान से देश की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका से अब बसु-सरकार दोनों ही डमेज कंट्रोल करने में लग गए हैं| हालांकि यहाँ गौर करने की बात है कि बसु ने गठबंधन सरकार के दुष्प्रभाव को भी रेखांकित करते हुए कहा है कि गठबंधन धर्म के चलते कोई भी सरकार खुल कर फैसले नहीं कर सकती और यदि इस परंपरा का २०१४ में दोहराव नहीं होता है तो आर्थिक सुधारों में निश्चित रूप से गति आएगी।

 

बसु के इस बयान से कई लोग सहमत भी हो सकते हैं तो कई असहमति भी जता सकते हैं| १९९७ में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में भाजपा ने ५ वर्षों तक २४ दलों की साझा सरकार सफलतापूर्वक चला राजनीति के इस भ्रम को तोडा था कि साझा दल मिलकर सफलतापूर्वक सरकार नहीं चला सकते। हालांकि १९९७ से २०१२ में काफी बदलाव आया है और राजनीति की एक पीढ़ी बदल चुकी है| अब देशहित से ज्यादा स्वहित को प्राथमिकता दी जाने लगी है। ऐसे में वर्तमान गठबंधन सरकार के समक्ष निश्चित ही विकट परिस्थितियाँ हैं| किन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह परिस्थितियाँ भी सरकार की खुद पैदा की हुई हैं| यदि मनमोहन सरकार साझा दलों की नकेल पहले से कसकर रखती तो आज यह नौबत ही नहीं आती कि किसी भी देशहित के फैसले से पूर्व सरकार लाचार नज़र आती है और प्रधानमंत्री गठबंधन धर्म का रोना रोकर देश को तसल्ली देते नज़र आते हैं| आखिर कब तक कांग्रेस सत्ता-पिपासा शांत करने हेतु इस कमजोर एवं लाचार सरकार को देश के ऊपर थोपे रखेगी? वह सुबह कब आएगी जब देशहित के महत्वपूर्ण फैसले को लेकर गठबंधन धर्म का रोना नहीं रोया जाएगा? वर्तमान सरकार के बस में इन परिस्थितियों को बनाना असंभव जान पड़ता है|

 

जहां तक बात आर्थिक सुधारों में भारत के पिछड़ेपन की है तो यह सर्वमान्य है कि एक प्रख्यात अर्थशाष्त्री होने के बावजूद मनमोहन सिंह आर्थिक सुधारों को पटरी पर लाने की कई बार असफल कोशिश कर चुके हैं| १९९२ के आर्थिक उदारीकरण के दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार अवश्य प्रासंगिक हुए थे किन्तु वर्तमान हालातों एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई गिरावट को देखते हुए उनका आर्थिक सुधार एजेंडा किसी भी सूरत में प्रासंगिक नहीं लगता| वहीं योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने यूँ तो बसु के बयान को लेकर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कि किन्तु इशारों-इशारों में उन्होंने भी आर्थिक सुधारों की दशा-दिशा तेज करने का बल दिया| सरकार के समक्ष दुविधा यही है कि एक शीर्ष स्तर के अधिकारी की बात को झुठलाया कैसे जाए? इसकी कोशिशें भी हुई किन्तु क्या सरकार को यह भी बताना पड़ेगा कि बसु ने तो बस सरकार की निष्क्रियता को स्वीकार किया है, देश तो इस सरकार के निकम्मेपन को काफी पहले ही समझ चुका है|

 

संप्रग सरकार-२ के कार्यकाल को तीन वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं और ऐसी स्थिति में यदि शीर्ष स्तर से सरकार के निकम्मेपन की पोल खुलती है तो यह हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। सरकार तथा कांग्रेस को यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि उनके मंत्रियों की कारगुजारियों, साझा दलों की मनमानी एवं प्रधानमंत्री की चुप्पी से देश को काफी नुकसान उठाना पड़ा है और आगे भी यही स्थिति बनती नज़र आ रही है। बसु के बयान से सरकार को सीख लेनी चाहिए तथा आर्थिक सुधारों के मोर्चे को पुनः दुरुस्त करना चाहिए ताकि वैश्विक परिदृश्य में देश के प्रति अविश्वास तो न पैदा हो।