बुलंदशहर के पास दोस्तपुर गांव में मां और बेटी के साथ बलात्कार का जो हादसा हुआ, वह उत्तरप्रदेश ही क्या, सारे भारत के लिए बड़े शर्म की बात है। अब तक बलात्कार के हादसे अकेले में होते थे, किसी चलती हुई बस में या किसी निर्जन एकांत में होते थे लेकिन यह हादसा उन मां और बेटी के साथ हुआ है, जिनके साथ उनके अपने पुरुष थे। पुरुषों को पेड़ से बांध दिया गया और तीन घंटे तक मां-बेटी के साथ कई राक्षसों ने बलात्कार किया।
आदमी के भेस में इन जानवरों को कोई शर्म नहीं आई। इन्होंने ऐसा बर्ताव किया, मानो इनके घर में कोई मां-बेटी या सास-बहू नहीं हो। यदि इस हादसे को लेकर पूरे देश में हल्ला नहीं मचता तो यह बात भी आई-गई हो जाती, जैसे कि बलात्कार की अन्य घटनाएं कई अन्य प्रदेशों में हो जाती हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आनन-फानन कार्रवाई की, स्थानीय पुलिस अधिकारियों को तत्काल बर्खास्त किया और वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों को अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। इसी का नतीजा है कि तीन-चार बलात्कारी तुरंत पकड़े गए और शेष सभी पकड़े जाने वाले हैं। यह सराहनीय है लेकिन इससे बनेगा क्या? आगे होगा क्या?
कुछ नहीं। इन गिरफ्तारियों का नतीजा शून्य होगा? क्यों होगा? क्योंकि दो-चार-दस साल तक उन पर मुकदमा चलेगा। वे जेल में पड़े-पड़े मुफ्त की रोटियां तोड़ेंगे। उनमें से कुछ बरी हो जाएंगे। जो फंसेंगे, उन्हें दो-चार साल की सजा हो जाएगी। लोगों को तब तक पता ही नहीं चलेगा कि वह बलात्कार कैसे हुआ था, कहां हुआ था, किसकी जिंदगी तबाह हुई थी। लोग सब कुछ भूल चुके होंगे। उस फैसले से क्या किसी भावी बलात्कारी की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ेगी? बिल्कुल नहीं। अभी तक हमारे देश में यही होता रहा है। तो क्या किया जाए?
इसका एक ही इलाज है। बलात्कार के मुकदमों को एक माह में ही खत्म किया जाए। यदि एक-दो हफ्ते में ही किया जाए तो बेहतर! अपराधियों को दिल्ली, लखनऊ या प्रांतीय राजधानियों में समारोहपूर्वक सूली पर लटकाया जाए और वह जीवंत दृश्य सभी चैनलों पर दिखाया जाए। बलात्कार तो हत्या से भी ज्यादा संगीन जुर्म है। हत्या किया हुआ आदमी बस एक बार मरता है लेकिन बलात्कृत महिला को तो रोज मरना पड़ता है। उसे खुद को जीवन भर एक जीवित लाश की तरह ढोते रहना पड़ता है।