आज जम्मू कश्मीर में प्रजा परिषद आन्दोलन के साठ साल पूरे हो गये हैं । इसी आ न्दोलन में आज के ही दिन उस समय की भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्राणोत्सर्ग कर जम्मू कश्मीर के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा था । उनका श्रीनगर की जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में देहान्त हो गया था । जम्मू कश्मीर में प्रजा परिषद का आन्दोलन पूरे उफान पर था । राज्य की सम्पूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियाँ सारे प्रदेश में एक ही हुंकार लगा रहीं थीं — एक देश में दो प्रधान , दो निशान , दो विधान नहीं चलेंगे , नहीं चलेंगे । डा० मुखर्जी स्वयं जम्मू कश्मीर में जाकर स्थिति का अध्ययन करना चाहते थे और उस समय के राज्य के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला से मिल कर समस्या का राष्ट्रीय हितों के अनुकूल समाधान निकालना चाहते थे । भारतीय जनसंघ , रामराज्य परिषद , हिन्दु महासभा और अकाली दल ने मिलकर , प्रजा परिषद के समर्थन में देश भर में पाँच मार्च १९५३ को आन्दोलन प्रारम्भ कर ही दिया था । दिल्ली में हर रोज़ देश के अनेक हिस्सों से आकर सत्याग्रही गिरफ़्तारियाँ दे रहे थे ।
दरअसल जम्मू कश्मीर में संकट पैदा करने के लिये राजनैतिक षड्यंत्रों की शुरुआत १९४७ में ही शुरु हो गई थी । रियासत के भारत में विलय के बाद यही उचित था कि सत्ता लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये जन प्रतिनिधियों को सौंपी जाती । यदि उस वक़्त की परिस्थितियों में चुनाव करवाना संभव नहीं था तो यह और भी ज़रुरी था कि सत्ता राज्य के तीनों संभागों जम्मू, लद्दाख और कश्मीर के जन प्रतिनिधि मंडल को सौंपी जाती , ताकि राज्य के सभी लोगों में नई व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा होता । लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरु के दुराग्रह पर जब यह सत्ता कश्मीर घाटी में सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली नैशनल कान्फ्रेंस के अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला को सौंप दी गई तो राज्य की राष्ट्रवादी ताक़तों ने १७ नबम्वर १९४७ को राज्य में प्रजा परिषद नाम के नये राजनैतिक दल का गठन कर लिया । उधर लद्दाख में लद्दाख बौद्ध परिषद के नाम से ऐसी संस्था पहले ही विद्यमान थी । लेकिन प्रजा परिषद का मक़सद नकारात्मक विरोध करना ही नहीं था , वह शेख को विश्वास में लेकर पूरे राज्य में एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधर थी । लेकिन शेख की इसमें कोई रुचि नहीं थी । उनका विज़न केवल कश्मीर घाटी तक ही सीमित था । वे जम्मू और लद्दाख के साथ बराबर के आसन पर बैठ कर सहयोग नहीं करना चाहते थे बल्कि उन्हें सत्ता का टुकड़ा डाल कर ख़रीदना चाहते थे । उस समय जम्मू में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संघचालक पंडित प्रेम नाथ डोगरा सबसे प्रभावी और सम्मानित जननेता थे जिन्हें शेख ने मंत्रिपद का लालच देकर अपने साथ मिलाना चाहा । यही डोगरा बाद में प्रजा परिषद के अध्यक्ष बने थे । जन संघर्षों की भट्टी में से तप कर निकले पंडित प्रेम नाथ के लिये इस प्रस्ताव की भला क्या औकात हो सकती थी, क्योंकि प्रजा परिषद राष्ट्रीय हितों की लड़ाई लड रही थी , व्यक्तिगत सत्ता की लड़ाई नहीं । परन्तु जैसा कि इतिहास में होता आया है , हर युग में जनहितों को ताक पर रख कर व्यक्तिगत सत्ता के लिये कापुरुष मिल ही जाते हैं । शेख ने जम्मू के गिरधारी लाल डोगरा को अपने साथ मिला लिया । १९४९ में ही शेख ने प्रेमनाथ डोगरा को गिरफ़्तार कर लिया और उन पर हत्या और बलात्कार के आरोप आयद किये । राज्य की जनता ने शेख की इस फासीवादी सत्ता के खिलाफ लम्बा आन्दोलन छेड़ा और सरकार को अन्ततः डोगरा को रिहा करना पड़ा । लेकिन अब तक यह स्पष्ट हो गया था शेख जम्मू और लद्दाख को राज्य की राजनीति और सत्ता में बराबर का हिस्सेदार न मान कर , इन्हें कश्मीर घाटी का उपनिवेश बना देना चाहते थे । लद्दाख के लोग तो शेख के इस व्यवहार से इतने उत्तेजित थे कि वहाँ के मुख्य लामा कशुक बकुला ने यहाँ तक कह डाला कि इस प्रकार का व्यवहार सहने से अच्छा है कि लद्दाख को पंजाब से मिला दिया जाये ।
इतिहास के इस मोड़ पर पंडित जवाहर लाल नेहरु की साम्प्रदायिक सोच ने राज्य के और पूरे देश के हितों को और नुक़सान पहुँचाया । जम्मू कश्मीर २६ अक्तूबर १९४७ को विधिवत देश की संघीय व्यवस्था का अंग बन गया था । अब वहाँ के सभी बाशिंदे अन्य नागरिकों के समान ही भारत के नागरिक थे । लेकिन पंडित नेहरु अपनी साम्प्रदायिक सोच के कारण अभी भी सारा हिसाब किताब हिन्दु और मुसलमान के हिसाब से ही लगा रहे थे । उन को लग रहा था कि कश्मीर घाटी के मुसलमान भारत में रहने को राज़ी हुये हैं , इसलिये ज़रुरी है कि उनके तुष्टीकरण से उनको प्रसन्न किया जाये । नेहरु भूल गये कि केवल कश्मीरी मुसलमानों ने ही नहीं बल्कि पाकिस्तान बनने के बाबजूद देश के सभी प्रान्तों में लाखों मुसलमानों ने अपनी इच्छा से हिन्दोस्तान में रहना पसन्द किया है । वे उसी प्रकार भारत के सामान्य नागरिक हैं जिस प्रकार अन्य अन्य मज़हबों को मानने बाले लोग । लेकिन नेहरु अपनी इस हिन्दु-मुस्लिम सोच से बाहर आने को तैयार नहीं थे । नेहरु की इस साम्प्रदायिक सोच का लाभ शेख अब्दुल्ला ने उठाया और जम्मू कश्मीर में राजशाही के स्थान पर शेख शाही स्थापित करनी चाही ।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण १९५१ में राज्य की संविधान सभा के लिये होने वाले चुनावों में सामने आया । इस संविधान सभा को ही राज्य का भावी संविधान बनाना था प्रदेश में नई प्रशासकीय सत्ता की रुप रेखा स्थापित करनी थी । संविधान सभा की सौ सीटें थीं । लेकिन इनमें से २५ सीटें उन इलाक़ों में पड़तीं थीं जो अभी भी पाकिस्तान के क़ब्ज़े में थे और जहाँ फ़िलहाल चुनाव करवाना संभव नहीं था । शेष बची ७५ सीटों में से दो लद्दाख क्षेत्र की थीं । बाक़ी की ७३ सीटों में से ४३ सीटें कश्मीर घाटी को दे दी गईं और जम्मू संभाग को केवल ३० सीटें दी गईं जबकि जम्मू संभाग की जनसंख्या कश्मीर घाटी की जनसंख्या से कहीं ज़्यादा थी । लेकिन उससे भी बढ़कर ताज्जुब तब हुआ जब चुनाव के समय शेख अब्दुल्ला की नैशनल कान्फ्रेंस को जिताने के लिये या तो विरोधियों को नामांकन पत्र भरने ही नहीं दिया , या फिर जिन्होंने हिम्मत की उनके नामांकन पत्र ही रद्द कर दिये गये ।प्रजा परिषद को संविधान सभा के चुनाव लड़ने का अवसर नहीं दिया गया । दो प्रत्याशी फिर भी डटे रहे लेकिन उनके लिये प्रचार करना असंभव बना दिया , इसलिये अंतिम समय वे भी मजबूर होकर चुनाव मैदान से हट गये । इस प्रकार दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी राजनैतिक दल ने सभी ७५ सीटें निर्विरोध जीत कर नया रिकार्ड क़ायम किया । संविधान सभा पर क़ब्ज़ा कर लेने के बाद शेख असली रंग में आ गये ।
विदेशी शक्तियों ने भी उनसे सम्पर्क करना शुरु कर दिया और शेख ने जम्मू कश्मीर की आज़ादी का राग अलापना शुरु कर दिया । सरकारी फ़ंक्शनों में राष्ट्रीय ध्वज के स्थान पर नैशनल कान्फ्रेंस के झंडे ही नहीं फहराने लगे , बल्कि शेख ने विरोध करने वाली राज्य की राष्ट्रवादी जनता को चुनौती देनी शुरु कर दी । जम्मू में एक सरकारी कालिज में नैशनल कान्फ्रेंस का झंडा फहराने के प्रश्न पर जन विद्रोह इतना प्रबल हो उठा कि सरकार को सेना बुलाना पड़ी और ७२ घंटे का कर्फ़्यू लगाना पड़ा । शेख अब्दुल्ला ने राज्य में कश्मीर मिलिशिया नाम से एक सशस्त्र बल का गठन किया हुआ था , जिसका ख़र्च तो सरकारी ख़जाने से होता था लेकिन काम वह शेख की व्यक्तिगत सेना के तौर पर करती थी । जम्मू में इस मिलिशिया का आतंक था । प्रेमनाथ डोगरा समेत प्रजा परिषद के तमाम नेता जेल में डाल दिये गये । लेकिन एक बार फिर जनता की जीत हुई और जनान्दोलन के आगे झुकते हुये सभी नेताओं को छोड़ना पड़ा ।
लेकिन असली लड़ाई तो अभी आने वाली थी । राज्य का नया संविधान बन रहा था । पंडित नेहरु और शेख ने दिल्ली में आपस में बैठ कर निर्णय कर लिया कि नया संविधान कैसा होगा । इस प्रक्रिया में न जम्मू के लोगों को शामिल किया गया और न ही लद्दाख के लोगों को । नेहरु और शेख में दिल्ली में क्या खिचड़ी पक रही है , इस ओर जम्मू कश्मीर समेत सारे देश की आँखें लगी थीं । लेकिन जब इन दो दोस्तों की बातचीत का रहस्य देश के आगे खुला तो मानों भूकम्प आ गया हो । जम्मू कश्मीर राज्य का अपना अलग झंडा होगा । जम्मू कश्मीर राज्य में संघीय संविधान के ‘ख’ श्रेणी के राज्यों की तर्ज पर अब राजप्रमुख नहीं रहेगा बल्कि भारत के राष्ट्रपति की तर्ज पर तरह राज्य की विधायिका प्रधान का निर्वाचन करेगी । राज्य का अपना अलग संविधान बना रहेगा । संघीय संविधान में दिये गये मौलिक अधिकार राज्य के नागरिकों को प्रदान नहीं किये जायेंगे । उच्चतम न्यायालय , महालेखाकार , चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र जम्मू कश्मीर में नहीं होगा । राज्य का संघीय व्यवस्था में वित्तीय एकीकरण नहीं होगा । शेख ने व्यंग्य से कहा इन छोटी छोटी बातों पर बाद में विचार कर लिया जायेगा । शेख और नेहरु बाद में विचार कर सकते थे लेकिन जम्मू कश्मीर की राष्ट्रवादी चेतना अब तक समझ गई थी कि यदि शेख के बेलगाम घोड़े की लगाम अभी न पकड़ी तो बाद में बहुत देर हो जायेगी । लेकिन इस पूरे प्रसंग में राज्य की राष्ट्रवादी शक्तियों ख़ास कर जम्मू के लोगों के सीने पर एक ऐसा घाव हुआ , जिसकी उन्होंने आशा नहीं की थी । पंडित नेहरु ने हैदराबाद के निज़ाम जिसने बाकायदा भारतीय सेना से युद्ध लड कर समर्पण किया था , को तो हैदराबाद राज्य का सांविधानिक राजप्रमुख रहने दिया । महाराजा हरि सिंह ने लंदन की गोलमेज़ कान्फरेंस में छाती ठोंक कर अंग्रेज़ों को कहा था कि हम भारत के लोगों की स्वतंत्रता की आकांक्षाओं के साथ हैं और बाद में महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये दबाव डाल रहे भारत के वायसराय मांऊँटबेटन से अंतिम दिन मिलने से इंकार करने का साहस दिखाया था । उनको राजप्रमुख के पद से हटाने की दुरभिसंधियां नेहरु और शेख कर रहे थे , तब महाराजा के सुपुत्र कर्ण सिंह नेहरु शेख के पाले में मिल गये । जम्मू के लोगों का यह ऐसा घाव था , जो उनको उनके अपनों ने ही नहीं दिया था , बल्कि राष्ट्रीय हितों की निर्णायक लड़ाई शुरु होने के ठीक पहले दिया था । लेकिन इस घाव ने राज्य की राष्ट्रवादी शक्तियों के लड़ने के संकल्प को और मज़बूत किया ।
बाक़ी सारा तो कल का इतिहास है । २२ नवम्बर १९५२ को प्रजा परिषद के नेतृत्व में राज्य में राष्ट्रीय अखंडता की लड़ाई शुरु हो गई । इसमें केवल हिन्दु, सिक्ख , गुज्जर ,शिया , पहाड़ी ही शामिल नहीं थे बल्कि बहुत संख्या में मुसलमान भी शामिल हुये । शेख की कश्मीर मिलिशिया ने ज़ुल्मों की इन्तहा कर दी । घरों में घुसकर लोगों से मारपीट ही नहीं की गई औरतों से बलात्कार की घटनाएँ हुईं । घर जला दिये गये । सम्पत्तियाँ नष्ट कर दी गईं । हज़ारों सत्याग्रही जेलों में ठूँसा दिये गये । जम्मू से सत्याग्रहियों को पकड़ पकड़ कर श्रीनगर की जेलों में भेजा जा रहा था । प्रेमनाथ डोगरा समेत प्रजा परिषद के सभी नेता बन्दी बना लिये गये । लेकिन अब तो यह आन्दोलन किसीराजनैतिक दल का आन्दोलन न रह कर जनता का आन्दोलन बन चुका था । गाँव गाँव में इस सत्याग्रह की तपश अनुभव की जा रही थी । पुलिस स्थान स्थान पर निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोलियाँ चला रही थी । सुन्दरबनी , रामबन, हीरानगर , जोड़ियाँ इत्यादि स्थानों पर पन्द्रह सत्याग्रही राष्ट्रीय अखंडता के लिये शेख की गोलियों का शिकार होकर आत्मोसर्ग कर चुके थे , लेकिन दिल्ली में बैठे नेहरु इन शहादतों को मनगढ़न्त बता कर जले पर नमक छिड़क रहे थे । डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी कभी नेहरु से और कभी शेख से प्रजा परिषद से बात करने का आग्रह कर रहे थे । लेकिन दोनों ही आन्दोलन में गिर रही लाशों की गिनती करते जा रहे थे और बातचीत से इन्कार कर रहे थे ।
शायद डा० मुखर्जी को लगने लगा था कि राष्ट्रीय एकता अखंडता के लिये और नेहरु की आँखों पर पड़े पर्दे को हटाने के लिये किसी बड़े बलिदान की ज़रुरत है । कुछ वर्ष पहले ही उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था — मेरी तीव्र इच्छा है कि जब भी मेरा अन्त आये तो में कर्मक्षेत्र में निरन्तर सत्य के लिये संघर्ष करता हुआ मरुं ।” लगता है अब उन्होंने डायरी में लिखी अपनी इस को पूरा करने का निर्णय कर लिया था । प्रजा परिषद के इस राष्ट्रीय आन्दोलन को सारे देशवासियों का समर्थन देने के लिये वे ११ मई १९५३ को वे पठानकोट पहुँचे और उन्होंने जम्मू कश्मीर में माधोपुर-लखनपुर से प्रवेश किया । राज्य की पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और बन्दी बना कर श्रीनगर की जेल में भेज दिया । वहाँ २३ जून १९५३ को उनका रहस्यमयी परिस्थितियों में देहान्त हो गया । मुखर्जी के इस आत्मबलिदान से नेहरु की आँखों पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया । नैशनल कान्फ्रेंस में भी शेख के खिलाफ विद्रोह हो गया । मंत्रिमंडल ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया । शेख अपदस्थ हुये । उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया । पार्टी में उनके साथ कुल छह लोग गये ।गढ़ आया पर सिंह गया । आज प्रजा परिषद के आन्दोलन और डा० मुखर्जी की शहादत को साठ साल पूरे हो गये हैं । राष्ट्रवादी ताक़तों की लड़ाई अभी भी देश भर में जारी है । इसे निर्णायक मोड़ पर ले आना ही मुखर्जी और प्रजा परिषद के आन्दोलन के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजली है ।