भारत में ये कहावत अक्सर सुनी जाती हैं, कि “जब मुसीबतें और बुरा वक्त आता है, तो चारों तरफ से आता है”… आज ये कहावत देश में काँग्रेस की स्थिति और उसके द्वारा रचित झूठों, जालसाजियों और षडयंत्रों पर पूरी तरह लागू होती दिखाई दे रही है. 16 मई 2014 को भारत की जनता ने काँग्रेस को उसके पिछले दस वर्षों के भ्रष्टाचार, कुशासन और अहंकार की ऐसी बुरी सजा दी, कि उसे मात्र 44 सीटों पर संतोष करना पड़ा. इस करारी हार ने काँग्रेस को बुरी तरह सन्नाटे में ला दिया और मानसिक रूप से त्रस्त कर दिया. जिस व्यक्ति अर्थात नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द तमाम तरह के आरोप, बयानबाजी और “मौत का सौदागर” जैसी घटिया भाषा का उपयोग किया गया, वही व्यक्ति समूचे विपक्ष की नाक पर घूँसा लगाते हुए न सिर्फ प्रधानमंत्री बना, बल्कि पूर्ण बहुमत के साथ बना. देश के कई “कथित” बुद्धिजीवियों ने कभी सोचा भी न होगा कि तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने जिस व्यक्ति को अमेरिका का वीज़ा न मिले, इस हेतु जी-तोड़ कोशिशें और पत्राचार किया गया, आज वही व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में एक वर्ष में तीन-तीन बार ससम्मान अमेरिका गया. सोनिया गाँधी की किचन कैबिनेट अर्थात NAC में शामिल जिस शक्तिशाली “NGOs गिरोह” ने देश-विदेश में नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार और कानाफूसियों का दौर चला रखा था, वे NGOs अब अपनी आय के स्रोत सूखते देखकर बौखलाने लगे हैं.इसी के साथ TRP के भूखे भेड़ियों और एक जमात विशेष का एजेंडा चलाने वाले मीडिया समूहों ने “गुजरात 2002” से लगातार जिस एक व्यक्ति के खिलाफ घृणा अभियान चलाया, वह मोदी की इतनी शानदार जीत के बावजूद बदस्तूर जारी है. विगत कुछ दिनों में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने लगातार तीन-चार ऐसे फैसले दिए हैं, जिससे “काँग्रेस-NGOs-मीडिया” का यह “नापाक गठबंधन” बुरी तरह शर्मसार हुआ और सत्य की जीत हुई है. हालाँकि अभी भी इस गिरोह ने कोई सबक नहीं सीखा, और अपनी गलतियों पर ध्यान देने, पश्चाताप करने अथवा सुधार करने की कोई इच्छा नहीं दिखाई है. नरेंद्र मोदी, जॉर्ज फर्नांडीस, भाजपा को विशुद्ध लाभ पहुँचाने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को जानबूझकर “काँग्रेस पोषित मीडिया चैनलों” ने दबाए रखा. देश को “बीफ”, “गौमांस”, “आरक्षण” जैसी बातों में उलझाए रखा गया, ताकि सुप्रीम कोर्ट के इन ऐतिहासिक निर्णयों का जनता को पता ना चले. परन्तु अब ऐसा होने वाला नहीं है, देश की जनता न सिर्फ जागरूक हो गई है, बल्कि सोशल मीडिया पर लगातार पोल खुलने के कारण जनता ने इन चैनलों पर भरोसा करना भी कम कर दिया है. आगामी जनवरी 2016 में जब केन्द्र सरकार नेताजी सुभाषचंद्र बोस की गुप्त फाईलों को सार्वजनिक करना आरम्भ करेगी, तब इस “गिरोह” का और भी पर्दाफ़ाश होगा.
बहरहाल, हम लौटते हैं हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को लगाई गई फटकारों और काँग्रेसी षड्यंत्रों पर. पाठकों को “ताबूत घोटाला” नाम का काण्ड जरूर याद होगा. कारगिल युद्ध के समय वाजपेयी सरकार ने मृत सैनिकों के शव सुरक्षित रूप से रखने और लाने के लिए एक अमेरिकी कम्पनी, ब्यूत्रों एंड बायजा से अल्युमीनियम के ताबूत आयात किए थे. भारत ने यह युद्ध 1999 में लड़ा था और उसमें विजय प्राप्त की. तत्कालीन विपक्ष में बैठी काँग्रेस को वाजपेयी सरकार की यह उपलब्धि फूटी आँख नहीं सुहाई और उसने षड्यंत्र रचने का फैसला कर लिया. संसद में वाजपेयी के क्षीण बहुमत को देखते हुए काँग्रेस ने उस समय के सबसे ईमानदार समाजवादी व्यक्ति जॉर्ज फर्नांडीस जो कि रक्षामंत्री भी थे, को निशाना बनाने का फैसला किया. अपने “पालतू” अखबारों एवं चैनलों के माध्यम से ताबूत घोटाले के आरोप जमकर लगाए गए. कई दिनों तक संसद में लगातार हंगामा किया गया, और कार्यवाही ठप्प रखी गई. अंततः मीडिया के दबाव में वाजपेयी जी ने फर्नांडीस को रक्षामंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया. हालाँकि उस समय भी जॉर्ज फर्नांडीस ने संसद में अपने लिखित बयान में यह कहा था कि, “इस ताबूत खरीदी से उनका कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि जिस समय इन्हें खरीदने का फैसला हुआ, उस समय वे रक्षामंत्री थे ही नहीं और खरीद प्रक्रिया में उनका कोई दखल नहीं था. क्योंकि यह खरीद रक्षा सचिव के स्तर तक ही सीमित थी”. भारत और अमेरिका के राजदूतों ने भी एक प्रेस कांफ्रेंस में उन ताबूतों की वास्तविक कीमत वही बताई जिस भाव पर खरीदी की गई. परन्तु “काँग्रेस-मीडिया-NGO” का यह त्रिकोणीय गिरोह वाजपेयी सरकार के एक शक्तिशाली मंत्री की “बलि” आवश्यक समझता था, इसलिए इतना शोर मचाया गया कि देश की जनता भी इसे सच मानने लगी. अंततः जॉर्ज फर्नांडीस को बेआबरू होकर जाना ही पड़ा.
इस घटना ने उनके बेदाग़ राजनैतिक करियर पर एक गहरा दाग लगा दिया और वे सदमे में चले गए. ताबूत घोटाले को लेकर सबसे पहली FIR यूपीए शासनकाल के दौरान 2006 में दायर की गई. जॉर्ज फर्नांडीस को सीबीआई, जाँच आयोग और जनहित याचिकाओं के माध्यम से लगातार परेशान किया जाता रहा. उस समय काँग्रेस (यूपीए) की ही सरकार थी, CBI भी काँग्रेस के दबाव में थी. लेकिन 2009 तक जॉर्ज फर्नांडीस के खिलाफ एक भी सबूत एकत्रित करने में नाकाम रही. अंततः CBI ने हथियार डाल दिए और विशेष सीबीआई कोर्ट ने जॉर्ज फर्नांडीस को बाइज्जत बरी कर दिया. लेकिन काँग्रेस में एक “डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट” (शातिर दिमागों और घटिया चालों का विभाग) भी है, वह इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था, पाले-पोसे हुए NGOs किस दिन काम आते. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करवा दी गई, और यह मामला फिर से उलझा दिया गया. अंततः विगत 13 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने ताबूत घोटाले से सम्बन्धित सभी “जनहित”(??) याचिकाओं को बकवास और झूठा करार देते हुए उन्हें खारिज कर दिया और अपने निर्णय में कहा है कि “ताबूत घोटाला” नाम का कोई घोटाला हुआ ही नहीं है और इस तरह के झूठे मामलों में न्यायालय का समय बर्बाद नहीं किया जावे. परन्तु काँग्रेस को शर्म तो आती नहीं है, इसलिए उसकी तरफ से कोई सफाई आने का सवाल नहीं था. परन्तु देश का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के रुख इस कथित घोटाले पर जैसा था, वह बेहद निराशाजनक और बिकाऊ किस्म का था. उल्लेखनीय है कि ताबूत घोटाले को सबसे पहले प्रमुखता से उठाने वाले थे “तहलका” के संपादक तरुण तेजपाल, जो आजकल यौन हिंसा के एक मामले में जमानत पर चल रहे हैं. खैर… यह तो था काँग्रेस को पड़ने वाला पहला तमाचा, परन्तु अफ़सोस यह रहा कि जॉर्ज फर्नांडीस इस समय “अल्ज़ईमर” रोग से पीड़ित हो चुके हैं और वे अपनी इस जीत पर कुछ कहने अथवा इसका आनंद लेने की स्थिति में नहीं हैं.
सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सुनवाई कर रही विशेष सीबीआई कोर्ट ने हाल ही में काँग्रेस के एक और घृणित षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश किया. जैसा अब पूरा देश और दुनिया जानती है कि यूपीए शासनकाल में चरम पर पहुँच चुके भ्रष्टाचार में “लूट का सिरमौर” 2G स्पेक्ट्रम घोटाला रहा है. भारत की जनता और खजाने को सुव्यवस्थित रूप से चूना लगाने के इस “भ्रष्ट महाअभियान” में खरबों रूपए का हेर-फेर हुआ. 2G और कोयला घोटाला इन्हीं दो प्रमुख महाघोटालों की वजह से मनमोहन सिंह की छवि रसातल में पहुँची. परन्तु यूपीए सरकार के अंतिम वर्षों में केन्द्रीय मंत्री इतने अहंकारी और षडयंत्रकारी बन चुके थे कि सबसे पहले तो कपिल सिब्बल साहब “जीरो लॉस” नाम की नायाब थ्योरी खोज लाए. सिब्बल के अनुसार 2G कोई घोटाला ही नहीं था, और इससे सरकारी राजस्व को कतई कोई नुक्सान नहीं हुआ है. उन्होंने तो CAG विनोद राय को भी झूठा और बेईमान घोषित कर दिया था. लेकिन जब चारों तरफ से नए-नए खुलासे होने लगे, सुप्रीम कोर्ट से लताड़ पड़ने लगी और सिब्बल की जीरो लॉस थ्योरी खुद ही शून्य बन गई तब यूपीए के एक और शक्तिशाली मंत्री चिदंबरम ने अपने आकाओं के इशारे पर यह “अदभुत रचना” की, कि 2G घोटाला आज का नहीं है, बल्कि वाजपेयी सरकार के समय से चला आ रहा है. सोनिया गाँधी सहित सभी मंत्रियों ने विभिन्न प्रसार माध्यमों में आकर जोर-शोर से चीखना आरम्भ कर दिया कि वाजपेयी सरकार के समय प्रमोद महाजन और अरुण शौरी ने विभिन्न कंपनियों को मनमाने दामों पर स्पेक्ट्रम बेचकर देश का करोड़ों रूपए का नुक्सान किया है. देश की जनता को भ्रम में डालने और अपने अपराधों से हाथ धोने की इस कवायद में “काबिल वकील” कपिल सिब्बल और चिदंबरम ने काफी मदद की. यूपीए सरकार को लगा कि तीसरी बार भी वही सत्ता में आएगी, इसीलिए बड़ी बेशर्मी से यूपीए सरकार द्वारा एक झूठे और गढे हुए मामले को न्यायालय में ले जाया गया, ताकि वाजपेयी सरकार की छवि खराब करके स्वयं का राजनैतिक घाटा कम किया जा सके.
चूँकि काँग्रेस के बुरे दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं, इसीलिए अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के विशेष जज ओपी सैनी ने यूपीए सरकार द्वारा दायर इस मामले को पूरी तरह खारिज करते हुए तत्कालीन दूरसंचार सचिव श्यामल घोष तथा भारती सेल्युलर, हचिंसन और वोडाफोन द्वारा सन 2002 में पूर्णतः वैध तरीके से हासिल किए गए स्पेक्ट्रम और उसकी प्रक्रिया को वाजिब ठहराया. न्यायाधीश ओपी सैनी ने 235 पृष्ठ के अपने फैसले में लिखा है कि “FIR एवं अन्य सबूतों को देखने पर साफ़ पता चलता है कि यह मामला राजनैतिक विद्वेष से दायर किया गया है. इसमें कोई तथ्य नहीं हैं और यह आरोप-पत्र पूर्णतः फर्जी और गढा हुआ प्रतीत होता है. तत्कालीन दूरसंचार मंत्री प्रमोद महाजन ने उस समय की परिस्थितियों के अनुसार एकदम सही निर्णय लिया था. न्यायाधीश ने सिब्बल-चिदंबरम की जोड़ी पर अप्रत्यक्ष टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “यह चार्जशीट बड़े ही योजनाबद्घ तरीके और इस सफाई से तैयार की गई है, मानो इन कंपनियों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम प्रदान करने के लिए अकेले प्रमोद महाजन ही जिम्मेदार हों”. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने के बाद भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने काँग्रेस और कपिल सिब्बल द्वारा देश से माफी की माँग की, जो “काँग्रेस के स्वभाव को देखते हुए” तत्काल खारिज भी हो गई, वैसे भी काँग्रेस पार्टी ने उनके दूरसंचार मंत्री ए.राजा के तमाम गुनाहों से पहले ही अपना पल्ला झाड़ रखा था.
असल में कपिल सिब्बल साहब ने अपने एक चहेते रिटायर्ड जज शिवराज पाटिल को इस बात की जिम्मेदारी सौंपी थी कि, वे 1999 से 2002 के बीच हुए स्पेक्ट्रम आवंटन की सभी फाईलों में से कुछ न कुछ ऐसा खोज निकालें जिससे वाजपेयी सरकार और खासकर प्रमोद महाजन को कठघरे में खड़ा किया जा सके. उसी को आधार बनाकर मनगढंत कहानी के रूप में साक्ष्य प्रस्तुत किए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के कारण यह षड्यंत्र पकड़ में आ गया. श्यामल घोष, जो कि एक बेहद ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी माने जाते थे, उन्होंने हमेशा इस बात का खंडन किया कि तीनों दूरसंचार कंपनियों का उन पर कोई दबाव था अथवा प्रमोद महाजन से उनकी कोई साँठगाँठ थी. एक बार सर्वोच्च अदालत ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में सीबीआई को “तोते” की संज्ञा दी थी, उसके पीछे कारण यही था कि अपने शासनकाल में यूपीए ने लगभग सभी संस्थाओं का ऐसा नाश कर दिया था, कि वे सिर्फ काँग्रेस की पालतू बनकर रह गई थीं. इसी “तोते” ने श्यामल घोष और एयरटेल, वोडाफोन तथा हचिंसन के बीच किए गए काल्पनिक भ्रष्टाचार की कुछ ऐसी कहानी रची, जिससे तोते के मालिक खुश हो जाएँ.जस्टिस ओपी सैनी ने सीबीआई अधिकारियों को लताड़ लगाते हुए पूछा कि, “इस कथित षड्यंत्र में षड्यंत्रकारी के रूप में सिर्फ श्यामल घोष का ही नाम क्यों है? षड्यंत्र के मामले में किसी एकल व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट कैसे दायर हो सकती है? और आरोपी कहाँ हैं? श्यामल घोष ने किसके साथ मिलकर यह षड्यंत्र रचा?”. यूपीए रचित झूठे कागजातों पर खड़ी सीबीआई के पास इसका कोई जवाब नहीं था. फटकार खाने के बाद तत्कालीन सीबीआई ने सुनील मित्तल, रवि रुईया और असीम घोष के नाम भी आरोप-पत्र में जोड़े, परन्तु कोई भी प्रामाणिक तथ्य नहीं होने की वजह से पहले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने इस नकली चार्जशीट पर स्थगन दे दिया और इसी वर्ष जनवरी 2015 में जस्टिस दत्तू की खंडपीठ ने तीनों कंपनियों के प्रमुखों के खिलाफ इस चार्जशीट को ही खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वास्तविक न्याय करते हुए यूपीए शासनकाल के दौरान की गई इस झूठी और द्वेषपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए तत्कालीन जाँच अधिकारी आरए यादव के खिलाफ जाँच का आदेश दिया है और न्यायालय का समय खराब करने और त्रुटिपूर्ण एवं बनावटी तथ्य पेश करने हेतु आलोचना करते हुए ईमानदार अधिकारियों को परेशान करने से बाज आने की सलाह दी है. अब उन सभी सीबीआई अधिकारियों के खिलाफ जाँच की जाएगी, जिन्होंने तत्कालीन काँग्रेस सरकार के दबाव में आकर नकली तथ्य पेश किए, झूठी कहानियाँ रचीं, परन्तु केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है कि अधिकारियों के साथ-साथ उन काँग्रेस सरकार के उन मंत्रियों सिब्बल और चिदंबरम को भी कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, जिन्होंने प्रमोद महाजन और वाजपेयी सरकार को बदनाम करने के लिए यह षड्यंत्र रचा.
कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी बदनामी और कुकर्मों को छिपाने के लिए काँग्रेस किस हद तक जा सकती है, यह मामला उसकी मिसाल है. पहले वाले मामले में बेचारे जॉर्ज फर्नांडीस अब अल्जाइमर से पीड़ित हैं, इसलिए ना तो वे अपनी जीत की खुशी मना सकते हैं और ना ही काँग्रेस के इस झूठ के खिलाफ कोई बयान दे सकते हैं. ठीक वही स्थिति प्रमोद महाजन की है, क्लीन चिट् मिलने से पहले ही उनकी मृत्यु हो चुकी है. परन्तु जिस मीडिया ने “ताबूत घोटाले” के समय फर्नांडीस और 2G मामले में प्रमोद महाजन की छवि खराब करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकी चुप्पी के गहरे मायने हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस को मारे गए उक्त दोनों ही तमाचों की गूँज किसी भी चैनल पर सुनाई नहीं दी, यह बड़ा ही रहस्यमयी लगता है.
काँग्रेस के बुरे दिनों को जारी रखते हुए सबसे ताज़ा मामला, अर्थात काँग्रेस के मुँह पर पड़ने वाला “तीसरा तमाचा” रहा संजीव भट्ट केस. पाठकों को याद होगा कि गुजरात 2002 के दंगों के पश्चात नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए काँग्रेस-NGOs-मीडिया गठबंधन के दो-तीन प्रमुख पोस्टर चेहरे हुआ करते थे, पहली थीं तीस्ता जावेद सीतलवाड, दूसरी थीं अहसान जाफरी की विधवा और तीसरे थे पुलिस अफसर संजीव भट्ट.इनमें से तीस्ता जावेद द्वारा पोषित NGOs को काँग्रेस सरकारों ने आर्थिक और नैतिक(??) मदद तो पहुँचाई ही, तीस्ता जावेद सीतलवाड को काँग्रेस ने पद्म पुरस्कार से भी सम्मानित कर दिया. पिछले वर्ष गुजरात दंगों को लेकर तीस्ता सीतलवाड के तमाम दस्तावेज कूटरचित एवं नकली पाए गए, तथा दंगों में पीड़ित मुस्लिमों के नाम पर तीस्ता ने अपने NGO के जरिए किस प्रकार लाखों रूपए की धोखाधड़ी की और नकली शपथ-पत्र पेश किए, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता और शबनम हाशमी के “NGOs गिरोह” को जमकर लताड़ लगाई थी. परन्तु संजीव भट्ट ने अपने इन “गुरुओं” की हालत से कोई सबक नहीं सीखा और वही गलतियाँ कीं जो उन्होंने की थीं. उल्लेखनीय है कि संजीव भट्ट IPS अधिकारी रहे हैं और हाल ही में उन्हें सेवा से बर्खास्त किया गया है. संजीव भट्ट की बर्खास्तगी को काँग्रेस ने “तानाशाही” और “लोकतंत्र की हत्या” निरूपित किया था, जबकि वास्तविकता यह है कि नरेंद्र मोदी को फाँसने के लिए काँग्रेस ने पहले दिन से ही संजीव भट्ट को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया था. अब “ईनाम” स्वरूप संजीव भट्ट को काँग्रेस ने कितने रूपए दिए यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन संजीव भट्ट की पत्नी को चुनाव लड़ने के लिए काँग्रेस का टिकट और पार्टी फंड से चन्दा जरूर दिया था. तो ऐसे महानुभाव संजीव भट्ट जी ने नरेंद्र मोदी को दंगाई साबित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह शपथ पत्र दायर किया था कि पुलिस के आला अधिकारियों की जिस बैठक में “कथित रूप से” नरेंद्र मोदी ने यह कहा था कि, “हिंदुओं को अपना गुस्सा उतार लेने दो, दंगे हो जाने दो” उस बैठक में मैं अर्थात संजीव भट्ट खुद भी शामिल थे. यह शपथ पत्र और संजीव भट्ट की यह याचिका, गत माह सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी और भट्ट के दावे को पूरी तरह से नकली और मनगढंत बताया.
चूँकि गुजरात दंगों से सम्बन्धित प्रत्येक मामले की जाँच एक विशेष SIT कर रही है जिसके प्रत्येक कदम पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और सहमति है, उस SIT ने अपनी जाँच में पाया कि संजीव भट्ट के दावे न सिर्फ झूठ का पुलिंदा हैं, बल्कि उसने न्यायालय को गुमराह करने तथा तथ्यों-सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने में अपनी सारी सीमाएँ तोड़ दीं. गुजरात दंगों को “राज्य-प्रश्रय” आधारित बताने के चक्कर में संजीव भट्ट ने अपनी “गुरु माँ” अर्थात तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का मार्ग अपनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उसके द्वारा पेश नकली शपथ पत्रों और फर्जी ई-मेल की एक न चली. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में संजीव भट्ट और NGOs गिरोह की जमकर खिंचाई की है. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की विशेष बेंच इस बात से खासी नाराज थी, कि संजीव भट्ट ने जानबूझकर अपने राजनैतिक संपर्कों, अपने पुलिस अधिकारी होने के रसूख और NGOs साथियों के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी को जबरन फाँसने की कोशिश की. सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि संजीव भट्ट और “नर्मदा बचाओ आंदोलन” के एक प्रमुख कार्यकर्ता के बीच जो ई-मेल का आदान-प्रदान हुआ है, उसमें संजीव भट्ट यह कहता हुआ पाया गया है कि “हमें ऐसी स्थिति पैदा करनी चाहिए जिससे SIT का काम करना मुश्किल हो जाए. कृपया दिल्ली स्थित अपने संचार संपर्कों और रायशुमारी बनाने वाली एजेंसियों को इस काम में लगाओ..”. फरवरी 2002 की उस शासकीय मीटिंग में संजीव भट्ट ने अपनी उपस्थिति सिद्ध करने के लिए ना सिर्फ फर्जी ई-मेल का सहारा लिया, बल्कि एक चतुर पुलिस अधिकारी की तरह जानबूझकर कोर्ट में आधे-अधूरे साक्ष्य प्रस्तुत किए. सुप्रीम कोर्ट ने भट्ट के वकील से पूछा कि “संजीव भट्ट को 2011 में इतने वर्ष के बाद ऐसे संवेदनशील और विस्फोटक आरोप करने की याद क्यों आई? यह बात भट्ट ने पहले SIT को क्यों नहीं बताई?”.
संजीव भट्ट शुरू से गुजरात में काँग्रेस के मोहरे और नरेंद्र मोदी विरोधियों के पसंदीदा चेहरे रहे हैं. हाल ही में एक सोशल मीडिया पर एक ऑडियो क्लिप जारी हुई थी, जिसमें संजीव भट्ट अर्जुन मोधवाडिया से पूछ रहे हैं कि “मेरा ब्लैकबेरी फोन अभी तक मुझे नहीं मिला है, कब पहुँचाओगे? और जिस ईनाम की बात हुई थी, वह कहाँ है?”. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जाँच में यह भी पाया कि IPS होने का दबाव डालकर संजीव भट्ट ने गुजरात दंगों के एक प्रमुख गवाह हवलदार केडी पंत को भी धमकाने और उस पर अपने पक्ष में बयान देने के लिए दबाव बनाया था. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होने तथा सिस्टम से परिचित होने के कारण ही 25 मार्च 2011 को संजीव भट्ट ने यह दबाव बनाया था कि हवलदार पंत की पूछताछ उसके सामने की जाए, लेकिन मामला SIT के हाथ में होने के कारण उसकी दाल नहीं गली.
1990 से ही संजीव भट्ट और एक निलंबित जज आरके जैन की साँठगाँठ के कई आपराधिक मामले विभाग के अधिकारियों की जानकारी में थे. भट्ट नारकोटिक्स विभाग में होने के कारण कई मासूमों को धमकाने का काम कर चुका था, और SIT ने अपनी जाँच में पाया कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही संजीव भट्ट पर ब्लैकमेलिंग के कई मामले विभिन्न थानों में दर्ज थे, परन्तु IPS होने की धौंस, जजों से पहचान तथा NGOs के लोगों द्वारा दबाव बनाकर खुद को “पीड़ित” दर्शाने की उसकी चालबाजी पुरानी थी. लेकिन ज्यादा चतुर बनने के चक्कर में खुद अपने ही बिछाए जाल में फंसते हुए संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में जिन ई-मेल को तथ्य-सबूत कहते हुए पेश किया था, उससे यह भी सिद्ध हो गया कि संजीव भट्ट ने तत्कालीन अतिरिक्त एडवोकेट जनरल श्री तुषार मेहता का ई-मेल अकाउंट भी हैक किया था, ताकि इस मामले में चल रही अंदरूनी जानकारी एवं पत्राचार के बारे में ख़ुफ़िया ख़बरें हासिल की जा सकें. संजीव भट्ट को बर्खास्त करने के लिए इतने कारण पर्याप्त थे, लेकिन काँग्रेस को यह सब रास नहीं आ रहा था. बर्खास्तगी के बाद राशिद अल्वी ने बयान दिया कि “नरेंद्र मोदी के शासन में अफसरशाही पर दबाव बनाया जा रहा है और भट्ट जैसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ बदले की भावना से काम किया जा रहा है”. हालाँकि अल्वी सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और SIT की जाँच के बारे में कुछ भी कहने से बचते रहे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संजीव भट्ट ने इस मामले को खामख्वाह सनसनीखेज बनाने के लिए झूठे तथ्यों एवं नकली शपथ-पत्रों का सहारा लिया, और न्यायालय को प्रभावित करने के लिए अपने मीडियाई संपर्कों, NGOs गिरोह और “एक विपक्षी राजनैतिक पार्टी” का सहारा लिया. नरेंद्र मोदी के खिलाफ याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने संजीव भट्ट पर आगे कार्रवाई जारी रखने के भी निर्देश दिए. परिणाम यह हुआ है कि मोदी-भाजपा-संघ को फाँसने के चक्कर में “सत्य की ताकत” के कारण काँग्रेस का यह मोहरा भी पिट गया है, लेकिन फिर भी मीडिया में इस मामले की कोई विशेष चर्चा नहीं होना बड़ा रहस्यमयी है.
इस प्रकार सितम्बर-अक्टूबर 2015 के दो माह में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस पार्टी और उसके काले कारनामों एवं षडयंत्र की पोल खोलते हुए जिस तरह लगातार निर्णय आए हैं, उसने काँग्रेस को सन्निपात की अवस्था में धकेल दिया है. चूँकि मीडिया-NGOs और काँग्रेस का बहुत पुराना गठबंधन है, इसलिए इन जॉर्ज फर्नांडीस, प्रमोद महाजन और संजीव भट्ट इन तीनों ही मामलों को लगभग नगण्य कवरेज मिला और आम जनता से यह सच बड़ी सफाई से छिपा लिया गया और उसे जानबूझकर बीफ-गौमांस-साहित्य अकादमी जैसे फालतू विवादों में उलझाए रखा गया है. हालाँकि इन तमाम हथकण्डों के बावजूद काँग्रेस की मुश्किलें अभी कम होने वाली नहीं हैं, बल्कि और बढ़ने वाली ही हैं, क्योंकि जल्दी ही सोनिया गाँधी और काँग्रेस पर “नेशनल हेराल्ड” अखबार की संपत्ति हथियाकर उसे पारिवारिक स्वरूप देने के मामले में भी न्यायालयीन केस तेजी से आगे बढ़ेगा. इसके अलावा हाल ही में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के परिजनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर उनकी रहस्यमयी मृत्यु से सम्बन्धित सभी गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की जो माँग की थी, वह न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा मान ली गई है, बल्कि 23 जनवरी 2016 की तारीख भी घोषित की गई है, जिसके बाद केन्द्र सरकार के पास नेहरू-बोस-पटेल से सम्बन्धित जो भी दस्तावेज हैं उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाएगा. इस दिशा में तत्काल पहला कदम बढ़ाते हुए केन्द्र सरकार ने रूस और जापान की सरकारों से सुभाषचंद्र बोस से सम्बन्धित सभी दस्तावेजों की माँग की है. अर्थात 23 जनवरी 2016 के बाद काँग्रेस के लिए “एक और बुरा सपना” आरम्भ होने की पूरी उम्मीद है.
बहरहाल… आगे बढ़ते हैं और संक्षिप्त में एक और मुद्दा समझने की कोशिश करते हैं, वह मुद्दा है देश के कुछ साहित्यकारों की संवेदनशीलता का “अचानक” जागृत होना. पिछले कुछ दिनों में खासकर दादरी की घटना के बाद देश के कुछ चुनिंदा साहित्यकारों की आत्मा अचानक जागृत हो गई है. 1975 के आपातकाल के बाद अब जाकर कुछ साहित्यकारों को “अचानक” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद आने लगी है… कुछ कथित साहित्यकार तो अचानक इतने आहत हो गए हैं कि उन्हें यह देश डूबता नज़र आने लगा है. जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, नरेंद्र मोदी की सरकार को बदनाम करने और भारत की छवि को विदेशों में धूमिल करने के लिए “एक समूचा NGOs गिरोह” काम कर रहा है, जिसे मिशनरी पोषित मीडिया और काँग्रेस का पूर्ण समर्थन हासिल है. कुछ मामूली से तथ्यों पर गौर करें… अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के दाभोलकर की हत्या हुई महाराष्ट्र में, उस समय वहाँ NCP-काँग्रेस की सरकार थी, चव्हाण मुख्यमंत्री थे… लेकिन उस समय किसी साहित्यकार ने ना तो पृथ्वीराज चव्हाण का इस्तीफा माँगा और ना ही उनकी अंतरात्मा जागृत हुई. कर्नाटक में काँग्रेस शासन के अंतर्गत साहित्यकार कल्बुर्गी की हत्या हुई, परन्तु साहित्य अकादमी से सम्मानित किसी भी लेखक को उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुहावरा याद नहीं आया. इसी प्रकार दादरी में इखलाक की जो हत्या हुई, वह स्पष्ट रूप से क़ानून-व्यवस्था का मामला था जो कि राज्य सरकार के अधीन होता है. परन्तु किसी भी संवेदनशील(??) कवि या शायर ने अखिलेश यादव से इस्तीफ़ा नहीं माँगा…. क्या कभी इस बात पर विचार हुआ है कि हर बार ऐसा क्यों होता है कि पिछले 18 माह में देश में कहीं भी दूरदराज कोई भी घटना होती है तो तत्काल हमारा मीडिया और कुछ “संगठन” अचानक नरेंद्र मोदी जवाब दें, नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें की टेर लगाने लगते हैं?? साहित्य अकादमी द्वारा अज्ञात कारणों के लिए पुरस्कृत कुछ तथाकथित साहित्यकार (जिनमें से कुछ की रचनाएँ तो विशुद्ध कूड़ा हैं) विदेशी संचार माध्यमों तथा NGOs के बहकावे में आकर सम्मान-पुरस्कार लौटाने का जो कदम उठा रहे हैं, यह उन्हीं को हास्यास्पद बना रहा है. ऐसा इसलिए, क्योंकि इनकी आत्मा-अंतरात्मा-संवेदनशीलता वगैरह जो भी है वह बड़े दोहरे मापदण्ड लिए हुए और वैचारिक पाखण्ड से भरी हुई है… चंद उदाहरण देखें…
१) नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल को जब साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, उस समय अर्थात 1984 में दिल्ली जैसे स्थान पर 3000 से अधिक सिखों की हत्या उन्हीं की पसंदीदा पार्टी के लोगों (HKL भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाईटलर) द्वारा की गई थी. कुछ माह बाद ही सहगल को यह सम्मान दिया गया, जिसे उनहोंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया…
२) 1990 के उन काले दिनों में जब कश्मीर से बाकायदा आव्हान करके पंडितों को मारा-खदेड़ा जा रहा था, कश्मीर से लाखों शरणार्थी अपने ही देश में शरण लेने के लिए मजबूर हो रहे थे उस समय शशि देशपांडे नाम की लेखिका को मानवाधिकार और असहिष्णुता नज़र नहीं आ रही थी. उन्होंने भी उस समय अकादमी पुरस्कार डकार लिया.
३) केरल की एक वामपंथी लेखिका हैं सारा जोसफ (आजकल आम आदमी पार्टी की केरल संस्थापक हैं), इनका मामला तो और भी मजेदार है. आज मोदी और भाजपा को जमकर कोसने वाली इन लेखिका को गुजरात दंगों अर्थात 2002 के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार के हाथों ही साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था, तब उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता जैसे नुमाईशी वाक्य याद नहीं आ रहे थे…
४) एक और सज्जन हैं अशोक वाजपेयी साहब. ये साहब अर्जुन सिंह के खासुलखास हुआ करते थे. जिस समय मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की तूती बोलती थी, उस समय प्रदेश के साँस्कृतिक परिदृश्य पर वाजपेयी साहब का एकाधिकार और कब्ज़ा था. इन्हीं के एक हमकदम साहित्यकार उदय प्रकाश तो अशोक वाजपेयी को सरेआम “पावर ब्रोकर” (सत्ता के दलाल) घोषित कर चुके हैं. ऐसे महान सज्जन अशोक वाजपेयी जी को जब यह बताया गया कि भोपाल में भीषण गैस काण्ड हुआ है, हजारों लोग मारे गए हैं तो आगामी दिनों में होने वाले साहित्य-नाटक सम्मेलन स्थगित कर दिए जाने चाहिए. तब वाजपेयी जी का जवाब था, “मुर्दों के साथ मरा नहीं करते, कार्यक्रम तो होगा”. ऐसी होती है लेखकीय संवेदनशीलता.
गत वर्ष अक्टूबर 2014 में काँग्रेस शासित कर्नाटक में बंगलौर के पास एक “जीवदया समिति कार्यकर्ता” को मुस्लिमों की भीड़ ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया था, उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह गौ-हत्या विरोधी कुछ पुस्तकें बाँट रहा था… इसी प्रकार सितम्बर 2014 में भोपाल में पशुओं के लिए काम करने वाली प्रसिद्ध संस्था PETA की एक मुस्लिम मोहतरमा की मुस्लिमों द्वारा ही जमकर पिटाई की गई, क्योंकि वह “शाकाहारी बकरीद” बनाने की अपील कर रही थी, और इन सभी के ऊपर हैं तस्लीमा नसरीन.. जब हैदराबाद में AIMIM के कार्यकताओं ने तस्लीमा पर हमला किया, उस समय यह पुरस्कार सम्मान लौटाने की नौटंकी करने वाला “लेखक-कवि गिरोह” अपने मुँह में दही जमाकर बैठ गया था.
ये तो सिर्फ चंद ही उदाहरण हैं, यदि पुरस्कार लौटाने वाले प्रत्येक साहित्यकार की पृष्ठभूमि और उनके कार्यकलापों पर नज़र घुमाई जाए तो साफ़-साफ़ दिखाई देगा कि “अधिकाँश” (सभी नहीं, अधिकाँश) लेखकों, साहित्यकारों को जो भी सम्मान-पुरस्कार आदि मिले हैं वह सत्ता की नज़दीकी, परिवार और पार्टी विशेष की चापलूसी के कारण ही मिले हैं, और इनमें से बहुत सारे लेखक-साहित्यकार-कवि किसी न किसी NGO से जरूर जुड़े हैं. जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उसने NGOs का टेंटुआ दबाना शुरू किया है, ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे बड़े मगरमच्छों पर लगाम की कार्रवाई आरम्भ की है, तभी से यह “गिरोह” बेचैन है. पिछले अठारह माह में इनका काम यही रह गया है कि येन-केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी सरकार को किसी न किसी “अ-मुद्दे” में उलझाए रखना, भारत को विदेशों में बदनाम करने के लिए नित-नए षड्यंत्र रचना, अपने पालतू मीडिया चैनलों के सहारे सिर्फ वही नकारात्मक ख़बरें दिखाना जिसमें सरकार की आलोचना का मौका मिले. इस गिरोह को केन्द्र सरकार की एक भी बात सकारात्मक नहीं दिखाई देती. चूँकि काँग्रेस के पास खोने के लिए तो अब कुछ बचा ही नहीं, इसलिए अपने “मोदी-द्वेष” के कारण खुल्लमखुल्ला इस खेल में शामिल है. काँग्रेस ने पिछले साठ वर्ष में प्रशासनिक स्तर पर, अकादमिक स्तर पर, मीडियाई स्तर पर एवं NGOs के स्तर पर जो नेटवर्क खड़ा किया है, उसे अब पूरी तरह सरकार के खिलाफ “एक्टिव” कर दिया गया है. इसीलिए संजीव भट्ट जैसे “आपराधिक पुलसिए” को भी आराम से NGOs में शरण मिल जाती है तथा जॉर्ज फर्नांडीस अथवा प्रमोद महाजन को क्लीन चिट् मिलने की ख़बरें भी बड़े आराम से चुपचाप दबा ली जाती हैं. हालाँकि यह बेचैनी बेवजह नहीं है, क्योंकि यह “गिरोह” जानता है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह और अजित डोभाल जैसे लोग इनका क्या हश्र कर सकते हैं… सिर्फ समय की बात है.