कांग्रेस पार्टी में सबल नेतृत्व की कमी तो खुद कांग्रेसी भी महसूस करते हैं लेकिन अब विचारधारा की दृष्टि से भी कांग्रेस दुविधा में फंस गई है। अभी-अभी ‘भारत माता की जय’ के सवाल पर कांग्रेस भाजपा से भी आगे निकल गई। यदि इस नारे को लेकर वोटों का अंदाज लगाया जाए तो कांग्रेस ने अपने थोक वोटों का काफी नुकसान कर लिया है।
महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस के नेता बालासाहब विखे पाटील ने जिस जोश-खरोश के साथ मुस्लिम विधायक वारिस पठान की निंदा की है और उसे मुअत्तिल करवाने में कांग्रेस विधायकों ने जो भूमिका अदा की है, क्या उसके कारण उसको मिलने वाले अल्पसंख्यकों के वोट खटाई में नहीं पड़ जाएंगे? इस घटना का असर महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पड़ेगा, क्योंकि शिवसेना से त्रस्त अल्पसंख्यकों को कांग्रेस वहां कवच की तरह लगती है। महाराष्ट्र से भी ज्यादा गंभीर घटना मध्यप्रदेश में हो गई। वहां विधानसभा में असद औवेसी की भर्त्सना का प्रस्ताव किसने रखा? किसी भाजपा विधायक या संघ के स्वयंसेवक ने नहीं रखा। वह रखा कांग्रेस के प्रखर विधायक जीतू पटवारी ने।
पूरी विधानसभा ने जीतू की वैचारिक पहल को सिर-माथे पर लगाया। अब कांग्रेस के नेता बताएं कि उनकी ‘सेक्यूलर’ या धर्म निरपेक्ष छवि का क्या हुआ? पाटील और पटवारी ने जो कर दिया, कांग्रेसी नेतृत्व न तो उसका समर्थन कर सकता है न विरोध! वह हतप्रभ है। उसे भाजपा की बी-टीम बनना पड़ रहा है। जो कांग्रेस जवाहरलाल नेहरु विवि, अखलाक, कालबुर्गी, सम्मान-वापसी आदि मुद्दों पर भाजपा से चोंचे लड़ाती रही है, वह ‘भारतमाता की जय’ पर दुविधा में हैं। उसकी बोलती बंद है। वह भाजपा के पीछे-पीछे घिसट रही है। वह अपने साथी दलों से इस मुद्दे पर अलग-थलग पड़ गई है।
अरुणाचल और उत्तराखंड में कांग्रेस नेतृत्व चाहता तो संकट आने ही नहीं देता लेकिन अपना संगठन और अपनी विचारधारा को सम्हालने की बजाय उसका ध्यान सिर्फ मोदी सरकार की भर्त्सना में लगा हुआ है। वह छतरी के हत्थे से हाथी की टांग खींचने की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस न तो देश को वैकल्पिक नेतृत्व दे पा रही है और न ही कोई विचारधारा! उसके पास सात-आठ राज्यों में जो सरकारें हैं, उनमें ही कुछ ऐसा कर गुजरे कि वह पूरे राष्ट्र में चर्चा और सराहना का विषय बन जाए। यदि कांग्रेस खत्म हो गई तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी खतरनाक होगा।